महिलाओं के ख़िलाफ़ लैंगिक हिंसा और अपराधों के मामले दुनिया भर में बढ़ रहे हैं। आज भी इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा की कमी है। बात जब सिनेमा की आती है तो समय-समय पर कुछ फिल्मों में लैंगिक हिंसा और भेदभाव के विषय को उठाया जाता है। इसी कड़ी में हम ऐसी कुछ शॉर्ट फ़िल्म्स के बारे में चर्चा करेंगे जो आपको इस मुद्दे की संवेदनशीलता को समझने में मदद करेगी। इन सबसे बढ़कर आपको इन अपराधों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरित करती है।
1- दैट डे ऑफ्टर एवरीडे
अनुराग कश्यप की 2013 में आई ये शॉर्ट फ़िल्म एक बहुत ही शानदार फ़िल्म है जो कि बहुत कम समय में भारतीय शहरी जीवन में महिलाओं के साथ रोज़मर्रा के जीवन में होने वाली छेड़छाड़ और उत्पीड़न को सम्बोधित करती है। ये शॉर्ट फ़िल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि 11 साल पहले अपने रिलीज़ के वक़्त थी। राधिका आप्टे, अरण्य कौर और गीतांजलि थापा द्वारा अभिनीत ये फ़िल्म तीन वर्किंग महिलाओं की कहानी के माध्यम से उन सभी महिलाओं के कठिन जीवन को दर्शाने की कोशिश की है जिन्हें आए दिन घर, मोहल्ले, बस, ऑफ़िस और सड़कों पर बहुत ख़राब स्थिति से गुजरना पड़ता है। साथ ही कैसे रोज़ाना महिलाओं को ऑब्जेक्टिफिकेशन और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समाज इसके बावजूद भी केवल महिलाओं को और ज़्यादा नियंत्रित करने की कोशिश करता है। आप शुरुआत में ध्यान दें तो बैकग्राउंड में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों की दुनियाभर की ख़बरों से यह फ़िल्म समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति को सामने रखती है।
फ़िल्म के लेखक नितिन भारद्वाज समाज में महिलाओं की स्थिति को दर्शाते हुए महिलाओं को इसके ख़िलाफ़ लड़ने, ख़ासतौर से अपने लिए आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करते हैं। केवल आवाज़ उठाने भर से महिला अपने आसपास की स्थिति बदलाव ला सकती है। इसको राधिका आप्टे के पति के किरदार के आख़िर में हुए परिवर्तन से बेहतर समझा जा सकता है। फ़िल्म दर्शकों को यह संदेश देती है कि महिलाओं को हर समस्या के ख़िलाफ़ अपने लिए आवाज़ उठाना कितना ज़रूरी है। राधिका आप्टे के किरदार की तरह आपको भी लग सकता है कि इसके लिए आप कब तैयार हैं। तो ऐसे में संध्या मृदुल का किरदार जो कहता है उस पर ग़ौर कीजिएगा, “जब तुम्हें लगे कि तुम तैयार हो, तब तुम तैयार हो!”
2- जूस
नीरज घायवान द्वारा निर्देशित प्रभावशाली शॉर्ट फ़िल्म ‘जूस’ हर मध्यवर्गीय भारतीय घर की कहानी बयान करती है जिसमें परिवारों में व्याप्त लैंगिक भूमिकाओं और रोज़मर्रा के स्त्रीद्वेष (एवरीडे मिसाॅजिनी) को ख़ासतौर से उजागर किया गया है। फ़िल्म मेल एंटाइटलमेंट और सामाजिक अनुकूलन पर खुलकर बात करती है। कहानी की शुरुआत मंजू सिंह के घर दोस्तों के मीट से होती है जहां एक ओर सारे पुरुष आराम से ड्रॉइंग रूम में कूलर के सामने बैठकर हंसी-मज़ाक कर रहे होते हैं। वहीं दूसरी ओर भरी गर्मी में सभी महिलाएं रसोई में बिना पंखे के खाना पका रही होती हैं। इसके साथ ही बीच-बीच में मंजू को कई और तरह के काम सौंपे जाते हैं जबकि पुरुष सिर्फ़ सोफ़े पर बैठे सेक्सिस्ट टिपण्णी करते नज़र आते हैं। यहां ड्रॉइंग रूम और रसोई में कई तरह के कंट्रास्ट देखने को मिलते हैं जो बिना संवाद के भी आसानी से समझे जा सकते हैं।
मंजू सिंह जिसका किरदार शेफाली शाह ने निभाया है, यहां उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो मूक संघर्ष कर रही हैं। लेकिन जैसे जैसे मंजू समाज द्वारा बनाई अपनी ज़िम्मेदारियां निभाती है, आसपास की यथास्थिति के प्रति उसकी निराशा बढ़ती जाती है जो अन्त में एक शान्त प्रतिरोध के रूप में सामने आती है। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में जब मंजू ख़ुद के लिए जूस का ग्लास भरती है और कूलर के सामने बैठ जाती है, इस तरह वह पुरुषों के प्रभुत्व वाली जगह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। यह पल साधारण होते हुए भी क्रांतिकारी है।
फ़िल्म यह भी दिखाती है कि पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को बनाए रखने में न केवल पुरुषों बल्कि महिलाओं की भी बराबर भूमिका है। मंजू जब अपनी दोस्तों को देखती हैं जो अपने गृहस्थी के कर्त्तव्यों पर और त्याग नारीत्व में अंतर्निहित है जैसे विषयों पर चर्चा कर रही होती हैं तो यह स्पष्ट होता है कि इंटरनलाइज़्ड मिसोजिनी की पैठ बहुत गहरी है जो उत्पीड़न के कुश्चक्र को बरकरार रखता है। फ़िल्म में मंजू के ज़्यादा संवाद नहीं है लेकिन शेफाली शाह ने जो अभिनय किया है वो ज़बरदस्त है। ख़ासकर आख़िरी के क्षणों में जो उनकी आंखों से उन्होंने अभिनय किया है वो इस फ़िल्म का हाइलाइट है। जहां पहले मंजू का पति अपने गेज़ से डराने की कोशिश करता है और फिर अगले ही पल शर्म और दुविधा में अपनी नज़रे फेर लेता है।
3- नेकेड
2017 में रिलीज़ हुई राकेश कुमार द्वारा निर्देशित शॉर्ट फ़िल्म ‘नेकेड’ ऑनलाइन अंधकारमय दुनिया की सच्चाई को उजागर करती है। ख़ासतौर से साइबर स्पेस में महिलाओं के ख़िलाफ़ उत्पीड़न और उनके वस्तुकरण (ऑब्जेक्टिफिकेशन) को कई अन्य संदर्भों के साथ दर्शकों के सामने पेश करती है। इसके साथ ही वुमन सेक्शुअलिटी की सामाजिक धारणाओं की आलोचना करती है।
शॉर्ट फ़िल्म की शुरुआत एक्ट्रेस सैंडी के शॉर्ट फ़िल्म की एक क्लिप वायरल होने से होती है जिसे ऑनलाइन सैंडी के असली सेक्स क्लिप होने के दावे के साथ धड़ल्ले से शेयर किया जा रहा है। इसके लिए उसे ऑनलाइन नफ़रत का सामना भी करना पड़ता है। इसी दिन एक जर्नलिस्ट रिया के साथ सैंडी का इंटरव्यू भी है जो इस फ़िल्म का हाइलाइट है। इस इंटरव्यू के दौरान कई मुद्दे उठते हैं जिन पर सैंडी का बहुत स्पष्ट टेक है। यहां तानिया भट्टाचार्य की लेखनी की तारीफ़ करनी होगी जिन्होंने विभिन्न मुद्दों को एक ही कथानक में पिरोया है।
हालांकि जब फ़िल्म कई मुद्दों को एक साथ लेकर चलती है तो इसकी वजह से दर्शकों को थोड़ी कन्फ़्यूज़न हो सकती है। शुरुआत में लगता है कि फ़िल्म महिलाओं की यौनिकता और उसकी शारीरिक स्वायत्तता पर बात कर रही है तो आगे आपको लगेगा कि फ़िल्म समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ लैंगिक हिंसा की सतही समझ को दिखाने की कोशिश कर रही है कि तभी अन्त में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते साइबर अपराधों के प्रति जागरूक करता रितिभा चक्रवर्ती का मोनोलॉग आता है। इसके अलावा फ़िल्म में छोटे-छोटे सन्दर्भ भी मिलते हैं जिनमें से एक भाषा का है। रिया कई बार ऑनलाइन कही गई गालियों का ज़िक़्र करते हुए भी बच-बच कर भी अंग्रेज़ी की शब्दावली चुनती है जबकि सैंडी स्पष्ट हिन्दी में बेबाकी से कहती है। यह भाषिक राजनीति को दर्शाता है कि कैसे हम कई चीज़ें अंग्रेज़ी में कहने में नहीं सहज होते हैं लेकिन हिन्दी में स्पष्ट कहने में कतराते हैं।
4- गोइंग डच
2017 में यूट्यूब पर रिलीज़ हुई स्कूपव्हूप (ScoopWhoop) की पांच मिनट की शॉर्ट फ़िल्म ‘गोइंग डच’ समाज में मॉडर्न वुमन के फ्लॉड नोशन और उनसे समाज की उम्मीदों पर बात करती है। फ़िल्म बहुत कम समय में बहुत सी बातें कह जाती हैं जिन पर दर्शक सोचना शुरू ही करते हैं कि तभी धड़ाक से दूसरी और तीसरी बात कह जाती है। हालांकि बातचीत इतनी स्मूद चलती है कि ये कहीं भी इतनी जल्दी बात बदलने पर भी कोई ख़लल नहीं पता चलती। हां लेकिन ये सब आपको सोचने पर ज़रूर मजबूर करते हैं जिसके लिए इसके लेखन की तारीफ़ करनी होगी।
फ़िल्म बहुत ख़ूबसूरती से केवल दो किरदारों की बातचीत से ये समझाने की कोशिश करती है कि कैसे समाज ने महिलाओं के लिए आधुनिकता के भी बार सेट किए गए हैं। वो आधुनकि हो लेकिन इतनी, इससे ज़्यादा हुई तो वो ख़राब है। वो वाइन पी सकती है क्योंकि वो एलिगेंट या क्लासी है लेकिन व्हिस्की महिलाओं के लिए बुरी है। वो फ़ैमिली के अरेंज्ड ब्लाइंड डेट्स पर अनजान के साथ जा सकती है लेकिन ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स सेफ़ नहीं है। वो दूर-दराज घूमने जा सकती है लेकिन अकेले नहीं। उसके पास अगर हर बात का जवाब है तो वो बहुत ओपिनियन रखती है। पुरुष करियर ओरिएंटेड हो सकता है लेकिन किसी भी महिला की लाइफ़ का एंड गोल तो शादी ही होना चाहिए। गुल पनाग की किरदार बहुत सहजता से मुस्कान के साथ इन्हीं सारी बातों पर अपना टेक रखती हैं।
समाज में एक आधुनिक महिला, ख़ासकर वो नारीवादी हो तो उनको लेकर कई तरह की धारणाएं प्रचलित होती है, जैसा कि संजय राजौरा के किरदार के लिए फ़ेमिनिस्ट होने मतलब “ज़रूरत से ज़्यादा इंडिपेंडेंट” होना है। इसका कोई तुक नहीं है फिर भी। फ़िल्म इसी तरह की कई धारणाओं को बहुत शालीनता से तोड़ती चलती है। हालांकि मेरे लिए इस फ़िल्म का हाइलाइट तो आख़िरी सीन है जहां पीयूष नम्रता के पास हेलमेट देखकर ये पूर्वानुमान लगाता है कि उसके पास तो स्कूटी ही होगी।
5- द रिलेशनशिप मैनेजर
2020 में रिलीज़ हुई फाल्गुनी ठाकोरे की (लेखन व निर्देशन) फ़िल्म ‘द रिलेशनशिप मैनेजर’ घरेलू हिंसा पर आधारित है। ख़ासतौर से इस मुद्दे को लॉकडाउन के संदर्भ में बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उठाती है। फ़िल्म में दिव्या दत्ता ने कविता का किरदार निभाया है जो एक हिंसक रिश्ते का सामना कर रही होती है और अनुप सोनी ने विनय का किरदार निभाया है जो कि उनके बैंक के रिलेशनशिप मैनेजर हैं। कहानी तब शुरू होती है जब अपने क्लाइंट मिस्टर अरोरा से कॉल के दौरान विनय गलती से कविता की आवाज़ सुन लेता है और उसकी मदद करने की कोशिश करता है।
यह फ़िल्म घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ाई में हस्तक्षेप और एकजुटता के महत्त्व को उजागर करती है। यह उन सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देती है जो अक्सर सर्वाइवर को चुप रहने के लिए मजबूर करती हैं। यह भी संदेश देती है कि दर्शकों को ऐसे मौक़े पर निष्क्रिय दर्शक की तरह नहीं बैठे रहना चाहिए बल्कि ऐक्ट करना चाहिए। दिव्या दत्ता ने बहुत ही शानदार अभिनय किया है। उनकी सूक्ष्म अभिव्यक्ति गहरा दर्द व्यक्त करती है जिससे दर्शकों को भी उनका संघर्ष महसूस होता है।
हालांकि, जहां फ़िल्म का मर्म सही जगह पर है, वहीं यह लैंगिक चित्रण पर सवाल भी उठाता है। ख़ासकर पुरुष पात्रों के चित्रण को लेकर। पुरुष ग्राहक को वित्तीय मामलों में उलझा दिखाया गया है जबकि महिला पात्रों को अक्सर सतही चिंताओं तक सीमित रखा गया है। इससे कुछ पुराने रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिल सकता है। इसके अलावा फ़िल्म का अंत थोड़ा सरल लगता है और यह शायद घरेलू हिंसा से बाहर निकलने की जटिलताओं को सही तरीके से नहीं दर्शाता।
6- एवरीथिंग इज़ फाइन
मानसी निर्मल जैन की शॉर्ट फ़िल्म ‘एवरीथिंग इज़ फ़ाइन’ पारम्परिक शादी के दायरे में फ़ीमेल एजेंसी की खोज करती एक थकी हुई गृहिणी और टूटने की कगार पर पहुंची मां की कहानी है। आशा एक अधेड़ उम्र की मध्यवर्गीय गृहिणी है जो अपने 35 साल की असंतोषजनक शादी के बाद तलाक़ लेने का निर्णय लेती है। उसका यह निर्णय न केवल सामाजिक मानदंडों को चुनौती देता है बल्कि आत्मखोज और स्वतंत्रता की प्रबल इच्छा को भी दर्शाता है। फ़िल्म में मुख्य पात्र आशा के किरदार में सीमा पाहवा ने क्या बढ़िया अभिनय किया है। आशा जब अपनी बेटी के पास दिल्ली छुट्टी मानने आती है तब उसका पति भी उसके साथ आता है यह कहकर कि वो अपना ख़्याल नहीं रख सकती।
इसके अलावा यह फ़िल्म उन पितृसत्तात्मक ढांचों की भी आलोचना करती है जो अक़्सर महिलाओं की भूमिकाओं को निर्धारित करते हैं। फ़िल्म में आशा की यात्रा कई और महिलाओं के संघर्षों का प्रतीक है जो ऐसे बंधन से स्वतंत्र होना चाहती है जहां न सम्मान है न सहानुभूति। सीमा पाहवा ने आशा के किरदार में भावनात्मक उथल-पुथल और सामाजिक दबाव को बख़ूबी दर्शाया है।