इतिहास का ज़िक्र आते ही हमारे ज़हन में पराक्रमी राजाओं की तस्वीर उभरने लगती है। ऐसा होने की एक बड़ी वजह यह है कि इतिहास में जितना बढ़-चढ़कर राजाओं के वर्णन नज़र आते हैं, उतने रानियों के नहीं नज़र आते। रानियों के वर्णन अक्सर उनकी सुंदरता तक ही सीमित रह जाते हैं। मुग़ल साम्राज्य भी इससे अछूता नहीं। मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में मुग़ल रानियों का जो थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता भी है, उसमें भी उनकी पहचान को उनके पतियों या बेटों तक सीमित कर दिया जाता है। कुछ इतिहासकारों ने ज़रूर इतिहास लेखन के इस बंधे-बंधाए ढर्रे को चुनौती देते हुए अपनी किताब में मुग़ल रानियों को जगह दी है, और न सिर्फ़ जगह दी है, बल्कि उनकी ख़ूबियों के बारे में विस्तार से लिखा है। साल 2018 में प्रकाशित हुई इतिहासकार इरा मुखोटी की किताब डॉटर्स ऑफ दि सन ऐसी ही कुछ चुनिंदा किताबों में से एक है, जिसमें मुग़ल साम्राज्य की महिलाओं का वर्णन है।
मुग़ल काल में जब शायद सैद्धान्तिक तौर पर ‘नारीवाद’ से हर कोई परिचित भी नहीं था, बहुत-सी मुग़ल रानियों ने औरतों के रहन-सहन के पारंपरिक तय ढर्रों को चुनौती दी और नारीवादी आईकॉन के तौर पर उभरीं। उनकी आत्मनिर्भरता, उनका जीवन जीने का तरीका, शौक और सोचने का नज़रिया काफ़ी अलग था और वे दूसरी महिलाओं के लिए मिसाल बनीं। इनमें से कुछ ने मुग़ल काल में एक सम्माननीय भूमिका का वहन किया, जिसके लिए उन्हें बाकायदा वेतन भी मिलता था, कुछ के पास अपनी खुद की अकूत सम्पत्ति थी, कुछ को लिखने का शौक था तो कुछ को यात्राओं का। लिखने और यात्रा की शौकीन मुग़ल महिलाओं में से एक थीं गुलबदन बेगम, वे फ़ारसी और तुर्की में कविताएं लिखा करती थीं। 2024 में प्रकाशित हुई इतिहासकार रूबी लाल की किताब वागाबॉन्ड प्रिंसेस – द ग्रेट एडवेंचर्स ऑफ गुलबदन उनके बारे में विस्तार से जानने का एक अच्छा ज़रिया है।
गुलबदन, बाबर की बेटी थीं और इस लिहाज़ से वे बादशाह अकबर की बुआ हुईं। उनका जन्म 1523 में अफ़गानिस्तान में हुआ था अकबर के कहने पर उन्होंने उनके पिता हुमायूं की जीवनी ‘हुमायूंनामा’ लिखी थी। हुमायूंनामा सोलहवीं शताब्दी का इकलौता ऐसा दस्तावेज़ है, जिसे शाही परिवार की किसी औरत ने लिखा है। यही वजह है कि उन्हें भारत की पहली महिला इतिहासकार माना जा सकता है। गुलबदन ने इस किताब को उस शैली में नहीं लिखा, जैसे बाकी इतिहासकार लिखते थे। बाकी इतिहासकार पुरुष केन्द्रित नज़रिए से ही किताबें लिखते थे और उनमें राजाओं की खूबियों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा करते थे। यही नहीं हरम का वर्णन भी वे औरतों के रहने की एक अलग-थलग कामुक और भोग-विलास की जगह के तौर पर करते थे।
गुलबदन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, बल्कि हुमायूं और बाबर का चित्रण साधारण इंसानों के तौर पर उनकी ख़ूबियों और खामियों सहित किया और हरम के बारे में, वहां रहनेवाली महिलाओं के आपसी रिश्तों के बारे में विस्तार से लिखा। यही नहीं उन्होंने इसमें अपने जीवन और अपने आसपास की महिलाओं के जीवन की, ज़नानख़ाने के अंदर की रोज़मर्रा की कहानियां बताईं। इस तरह से उन्होंने हरम की तस्वीर एक औरत के नज़रिए से पेश की। उन्होंने इसमें बच्चों, महिलाओं, किन्नरों और हाशिए के अन्य लोगों को जगह दी। उन्होंने इसे कुछ तुर्की शब्दों और वाक्यांशों का इस्तेमाल करते हुए मुख्यतः फ़ारसी भाषा में लिखा। उन्होंने इसमें हुमायूं के अपनी बीवियों और अन्य महिलाओं से जटिल सम्बन्धों और बाबर के हरम की महिलाओं और बच्चों के साथ प्रेमपूर्ण, देखभाल भरे सम्बन्धों का उल्लेख किया। इस तरह के वर्णन पहले लिखी गई जीवनियों में नदारद थे।
ये संस्मरण उस काल के दौरान मुगल साम्राज्य में महिलाओं के जीवन का एकमात्र विवरण है और इसे एक साहसिक कृति माना जाता है क्योंकि इसने इतिहास लिखने के बंधे-बंधाए ढर्रे को चुनौती दी। यही वजह है कि उनकी इस किताब को बहुत ख़ास माना जाता है। गुलबदन यात्राओं की भी शौकीन थीं, उन्होंने फतेहपुर सीकरी और सूरत के बीच लगभग आठ सौ मील की यात्रा की और अपने जीवन में पांचवें दशक में शाही महिलाओं के समूह के साथ मक्का की यात्रा पर निकलीं। गुलबदन की तरह की बाबर की बहन खानज़ादा बेग़म भी काफ़ी दिलचस्प और हिम्मती थीं। उन्होंने अपने भतीजे हुमायूँ की ओर से एक सौदा करने के लिए 65 साल की उम्र में प्रतिकूल मौसम से जूझते हुए 750 किलोमीटर के बर्फ़ीले रास्ते पर घोड़े पर सवार होकर यात्रा की थी।
नूरजहाँ पादशाह बेगम का समय
गुलबदन बेग़म के अलावा नूरजहां भी मुग़लकाल की सत्रहवीं सदी की प्रभावशाली महिलाओं में से एक थीं। उनका जन्म 31 मई, 1577 को कंधार के पास एक कारवां में हुआ था। विशाल मुग़ल साम्राज्य को चलाने में उन्होंने उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। अपनी शादी के तुरंत बाद, उन्होंने एक कर्मचारी के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए अपना पहला शाही आदेश जारी किया। आदेश में उनके हस्ताक्षर पर लिखा था, ‘नूरजहाँ पादशाह बेगम’, यानी नूरजहाँ, महिला सम्राट। 1613 ई. में ‘पादशाह बेगम’ के पद तक पहुंचने वाली पहली महिला थीं। उनके बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने अपने शौहर जहाँगीर की शराब की लत को कम करने में एक अहम भूमिका निभाई थी। वह बहुत बहादुर थीं और बहुत अच्छी शिकारी थीं और अक्सर जहाँगीर के साथ शिकार पर जाती थीं। वह बहुत महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ एक बेहतरीन वास्तुकार भी थीं। वह कविताएं भी लिखती थीं और उन्हें बाग़वानी का शौक भी था।
नूरजहां की पृष्ठभूमि राजघराने की नहीं थी, लेकिन फिर भी वह एक कुशल राजनीतिज्ञ थीं और मुग़ल साम्राज्य से जुड़ा हुआ कोई भी अहम निर्णय उनकी रज़ामंदी के बग़ैर नहीं लिया जाता था। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सक्रियता से हिस्सेदारी करके अपनी संपत्ति में बढ़ोतरी की और फिर उस संपत्ति को अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक खर्च किया। इस व्यापार से हुई आय को वे भवनों के निर्माण, दान देने, अपने मनोरंजन के लिए, शादियां करवाने और लोगों को तोहफ़े आदि देने पर खर्च करती थीं। इसके, अलावा उन्होंने 40 वर्ष से कम उम्र की अपनी महिला साथियों की शादी जहांगीर के सैनिकों और परिचारकों से करवाने की पहल की, और 40 से 70 वर्ष के बीच की महिलाओं को यह विकल्प दिया कि पति की तलाश करने के लिए या तो वे महल छोड़ दें या फिर उनके साथ रहें। इस प्रकार से उन्होंने ‘हरम’ के सबसे वंचित और कमज़ोर लोगों के हक़ में काम किया।
नूरजहां की तरह की जहांआरा बेग़म को भी लिखने का शौक था। उनका जन्म अजमेर में हुआ था और परवरिश आगरा में हुई थी और वह मुमताज महल और शाहजहाँ की बड़ी बेटी थीं। वह पश्चिमी देशों के साथ व्यापार भी करती थीं और इससे उन्होंने काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। उनको राजकाज में काफ़ी दिलचस्पी थी और राजकाज में उनकी सलाह ली जाती थी। जब उनकी माँ मुमताज महल की मौत हुई, तो वे केवल 17 साल की थीं। उनकी माँ मुमताज महल की मौत के बाद उनकी आधी सम्पत्ति जहाँआरा को मिल गई थी और इस वजह से वे बहुत अमीर हो गई थीं। इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने हरम की ज़िम्मेदारी सम्भाली। उनको फ़ारसी भाषा की अच्छी जानकारी थी और उन्होंने फ़ारसी में दो ग्रंथ लिखे थे। उन्होंने 1660 मे ‘मुनीस-अल-अरवाह’ सूफी सन्तों का एक संकलन और ‘रिसाला- ए- साहिबियाह’ एक आत्म कथात्मक सूफी ग्रंथ लिखा था।
व्यापार के लिए उन्हें ‘शाही’ और ‘गंजवार’ नाम के दो पानी के जहाज दिए गए थे। कहा जाता है कि अपने मरने के बाद उन्होंने अपनी सम्पत्ति अपनी विवाहित और अविवाहित भतीजियों के नाम कर दी थी, इस प्रकार अपनी गैरमौजूदगी में भी उन्होंने महिलाओं को संरक्षण दिया। और साल 1648 में बने शाहजहानाबाद का नक्शा जहाँआरा बेगम ने अपनी देखरेख में बनवाया था और इसकी उन्नीस शाह इमारतों में से पाँच उन्होंने ही बनवाई थीं। यही नहीं दिल्ली के चाँदनी चौक की रूपरेखा भी उन्हीं ने बनाई थी। मुग़लकाल में महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर खुलेआम घूमने की आज़ादी नहीं थी। वह पहली मुगल शहज़ादी थीं, जिन्होंने महिलाओं के लिए एक सार्वजनिक स्थान बनवाया। उन्होंने दिल्ली से सटे यमुना पार साहिबाबाद में बेगम का बाग़ बनवाया था, ताकि महिलाएं आज़ादी के साथ बाग़ की सैर कर सकें और वहां की ख़ूबसूरती का आनंद ले सकें।
जहाँआरा ने अपनी भाइयों की शादियाँ करवाने और शाही दरबार की ज़िम्मेदारियाँ निभाने में कई साल बिताए। वह ज़िन्दगी भर अविवाहित रहीं। शाही ज़नाना के कोलाहल के बीच शान्ति की तलाश में उन्होंने सूफ़ीवाद की ओर रुख किया। इसके अलावा, उन्होंने राजा-रानियों की पक्की कब्र बनवाने के विचार को चुनौती देते हुए मरने से पहले यह वसीयत की कि उनकी कब्र पक्की न की जाए। नतीजन उनकी कब्र पक्की नहीं की गई है, उसे साधारण की रखा गया है। इस तरह से उन्होंने कई ऐसे काम किए, जो लीक से हटकर थे।
इस तरह हम देख सकते हैं कि भले ही वर्तमान में इतिहास की किताबों में फेरबदल करके मुग़ल काल का एक नकारात्मक चित्रण करने की कोशिश की जा रही हो, लेकिन उस दौर में महिलाओं की अपनी एजेंसी थी, वे अदृश्य नहीं थीं। चाहे वे खानज़ादा बेग़म हों, अकबर की पालक माँ महामंगा हों, नूरजहाँ हों, मुमताज महल हों या फिर जहाँआरा बेग़म हों, राजकाज में उनकी सलाह ली जाती थी। वे दृढ़ निश्चयी थीं, अपने और दूसरों के हक़ में आवाज उठाना जानती थीं और सम्पत्ति पर भी उनके अधिकार थे। इन महिलाओं ने अपने-अपने तरीके से मुग़ल साम्राज्य को आकार देने में अपनी भूमिका निभाई, इन भूमिकाओं के निर्वहन के लिए उनका सम्मान किया जाता था और बाक़ायदा वेतन भी दिया जाता था। ये महिलाएँ नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण का प्रतीक हैं। ये दर्शाती हैं कि किस तरह से मुग़ल साम्राज्य, जो असल में पितृसत्तात्मक ही था, में महिलाओं ने अपना वर्चस्व क़ायम किया।
स्रोतः
- BBC
- Vouge
- Her Zindagi
- Daughters Of The Sun Empresses, Queens And Begums Of The Mughal Empire, Ira Mukhoty.