संस्कृतिख़ास बात ख़ास बातः हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श पर बात रखती लेखिका नीलिमा चौहान के साथ

ख़ास बातः हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श पर बात रखती लेखिका नीलिमा चौहान के साथ

आंख की किरकिरी का सफ़र पतनशीलता पहुंचना ही था! न पहुंचता तब यह मानने को मन करता के स्त्रियों के लिए वो समाज तैयार हो गया है जहां वे स्त्री होने के दबाव और ख़ामियाज़े से आज़ाद हो रही हैं, हो जाएंगी। देखिए जमात को एक बार यह पोस्चरिंग देने भर की देरी होती है वो भी बारास्ता लेखन, के आप अपनी अलग आज़ाद सोच और पहचान की अहमियत पहचानती हैं।

नीलिमा चौहान हिंदी लेखिका हैं। फ़िलहाल वह दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। नीलिमा की लेखनी की शुरुआत ब्लॉगिंग से हुई। वहां पर उन्होंने अपने अनुभवों को दर्ज करना शुरू किया। स्त्री अंतर्मन को दर्ज करने वाली नीलिमा चौहान की किताबें पतनशील पत्नियों के नोट्स, ऑफिशियली पतनशील प्रकाशित हो चुकी है। प्रस्तुत है, नीलिमा चौहान से फेमिनिज़म इन इंडिया के साथ बातचीत।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप अक्सर अपने परिचय में ख़ुद को सफल मां, बेटी, पत्नी, दोस्त और लेखक बताती हैं। अमूमन एक फेमिनिस्ट के बतौर लोग, ख़ासकर महिलाएं इस तरह के परिचय से बचते हैं और ख़ुद को एक स्वतंत्र पहचान के रूप में पेश करना ज़्यादा पसन्द करते हैं न कि किसी सामाजिक रोल से जोड़कर। ऐसे में आपका ऐसा परिचय देने के पीछे कोई ख़ास वजह?

नीलिमा चौहानः पतनशील होना दी गई, थोपी गई, ओढ़ ली गई पहचानों से मुक्त होना है। समाज ने स्त्री को जिन भूमिकाओं में बांधा है उनके फ़्रेम्स तयशुदा हैं। स्वतंत्र चेतना वाली बौद्धिक स्त्री तक से सामाजिक भूमिकाओं पर खरा उतरने की उम्मीदें पाल ली जाती है। इन भूमिकाओं के आदर्श समाज ने सदियों पहले से तय किये हुए हैं। जैसे ही जब भी कोई स्त्री इन खाकों से बाहर कदम रखती है, समाज के पास उस स्त्री को देने के लिए किस्म-किस्म के तमगे होते हैं। पतनशील पत्नियों के नोट्स में अपना परिचय देते हुए मुझे यह सबसे बेहतर तरीका लगा यह कहने का कि थोपी गई भूमिकाओं और आदर्शों को निभाते हुए दिखने वाली स्त्री अपने भीतर से इन खाकों को तोड़ चुकी है। अपने परिचय में पत्नी, मां, बेटी, दोस्त और शिक्षिका कहते हुए मैंने यह भी कहा है कि मैं हिप्पी बोहेमियन बाइक गैंग की सरगना स्लट नेत्री भी हो सकती हूं क्योंकि भीतर से मैं उन सारे खाकों को तोड़ चुकी हूं जो एक अच्छी स्त्री और बुरी स्त्री के बीच रेखा खींचने का काम करते हैं। मैंने यह परिचय दिया ताकि सनद रहे कि किताब लिखने वाली किसी मनगढ़ंत पात्र की हवाई बातें नहीं कर रही। वही सच कह रही है जो वह खुद जी रही है और जीने के रास्ते पर है, जिस रास्ते का नाम पतनशीलता है। 

पतनशीलता फ़ेमेनिज़म के लिए लोकोपयुक्त पर्याय है। इस पर चार किताब तो क्या आजीवन लिखा जा सकता है। इसलिए ही इसे एक शृंखला का रूप दिया गया। एक जेंडरमुक्त समाज की परिकल्पना के आसपास जो भी लिखा जायेगा इस कड़ी में आ सकेगा।

 फेमिनिज़म इन इंडियाः आँख की किरकिरी से पतनशीलता तक के सफ़र के बारे में कुछ बताइए।

नीलिमा चौहानः आंख की किरकिरी का सफ़र पतनशीलता पहुंचना ही था! न पहुंचता तब यह मानने को मन करता के स्त्रियों के लिए वो समाज तैयार हो गया है जहां वे स्त्री होने के दबाव और ख़ामियाज़े से आज़ाद हो रही हैं, हो जाएंगी। देखिए जमात को एक बार यह पोस्चरिंग देने भर की देरी होती है वो भी बारास्ता लेखन, के आप अपनी अलग आज़ाद सोच और पहचान की अहमियत पहचानती हैं। फिर समाज का काम होता है आपको आपके इस खाम्खयाली के लिए शर्मिंदा करना और आप फिर भी सीधे रास्ते पर नहीं आतीं तो आपसे इसकी कीमत वसूलना। जब आंख की किरकिरी नाम से ब्लॉग बनाया नहीं अहसास था के यही नाम क्यों और वर्चुअल दुनिया में अपनी बात कहने की एवज में आने वाली गुमनाम टिप्पणीयों से यह वहम टूटा के स्त्री कितनी भी स्वतंत्र और जमात कितनी भी विकसित हो ले, जेंडर आधारित ग़ैरबराबरी रहेगी ही। यह भी समझ में आया कि इस ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ सबसे सशक्त हथियार लिखना ही हो सकता है। बाद के दिनों में फ़ेसबुक पर ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ हैशटैग से लिखना, अपनी इसी पोस्चरिंग का पता ख़ुद को देते रहने का तरीका था। मनुष्य हूं, मनुष्य माना जाये कह चुकी स्त्री के पास तकलीफ़देह अनुभवों की कभी कोई कमी नहीं होती। इसलिए बनते बनते एक किताब ही बन गई जिसमें जैसा-जैसा भीतर महसूस होता आया वो सब लिखा जा सका। यह किरकिरी होना और यह पतनशील होना दरअसल उन तमाम स्त्रियों के पास जाने की कोशिश है जो इसी रास्ते पर कुछ आगे या कुछ पीछे चल रही हैं। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप कहती हैं कि आप उस तरह की प्रतिबद्धता से बचना चाहती हैं बाज़ार जिस दबाव को पैदा करता है। और आपने एक जगह बताया था कि आप इसी कड़ी की चार किताबें लिखने वाली हैं। तो आपको नहीं लगता कि बाज़ार के दबाव के कारण ही आप पर अब लिखने का दबाव है?

नीलिमा चौहानः लिखने के बाहरी दबाव में आकर लिखना बाज़ार के लिए उत्पादन करना है। लिखने के लिए भीतर से दबाव महसूस होने पर ही लिखना चाहिए। इस साल आपकी कौन सी किताब आ रही है के जवाब के लिए पीयर प्रेशर में लिखने वाले लेखकों की या फिर कलम से ही रोटी चलाने वाले लेखक की मजबूरी उससे यह उत्पादन करा सकती है। पतनशीलता फ़ेमेनिज़म के लिए लोकोपयुक्त पर्याय है। इस पर चार किताब तो क्या आजीवन लिखा जा सकता है। इसलिए ही इसे एक शृंखला का रूप दिया गया। एक जेंडरमुक्त समाज की परिकल्पना के आसपास जो भी लिखा जायेगा इस कड़ी में आ सकेगा। अभी दो किताबों के बाद जब भी भीतर से लिखने का दबाव उठेगा कुछ न कुछ लिखा जायेगा। मुझे जब किसी भी छवि में नहीं बंधना, लेखक की छवि में नहीं बंधना भी तो है न। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः एक प्राध्यापिका के रूप में आपको स्त्री विमर्श के हाइयर स्टडीज के सिलेबस तक सिमटने पर क्या कहना है?

नीलिमा चौहानः स्त्री विमर्श एक बदनाम करार कर दिया गया इलाका है। समाज को दुर्गम सवालों की नोंक से कोंचने वाला अस्त्र। स्त्री विमर्श का साहित्य, किताबों, बौद्धिक हलकों की बहसों में, शोध पत्रों में इसका सिमट जाना कोई संयोग नहीं है। विमर्शों से समाज को नफा न होना हर उस समाज की दिक्कत है जो समाज अतीतजीवी होता है। समाज से कच्चा माल उठाकर उसे विमर्श में ढालने भर से काम नहीं चलता। विमर्श को वापस समाज की ओर समाज के बीच ले जाया जाना चाहिए। पर यह गैप इरादतन होता है हर उस समाज में जिसे बदलाव से डर लगता है। केवल स्त्री विमर्श क्यों? दलित विमर्श के साथ भी हमने यही किया है, यहां तक कि वैज्ञानिक सोच अप्रोच तक के साथ भी यही हुआ है। वर्चस्ववादी राजनैतिक ढ़ांचों में विमर्शों की यही नियति होती है। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपकी लेखनी की सबसे ख़ास बात है कि बहुत गम्भीर विषय पर भी बहुत चुटीले अंदाज़ में सारी गहरी बातें आप कह जाती हैं। व्यंग का बहुत अच्छा इस्तेमाल आप करती हैं जो कि कहीं न कहीं पुरुषों को भी पढ़ने के लिए आकर्षित करती है, वे भी पढ़ना चाहते हैं। तो ये ह्यूमरस अंदाज़ में लिखना पहले से सोचा समझा था या बस अपने तरीके से कहने की ज़िद्द से ये विकसित हुआ?

नीलिमा चौहानः स्त्री विमर्श को दुनिया ने पहले ही बोझिलता के तमगे से नवाज़ा हुआ है। विमर्शों वाला स्त्री विमर्श वैसे ही बेकाम की चीज़ माना जा चुका है। साहित्य वाला स्त्री विमर्श “ये तो काल्पनिकता है, कहानी है” कहकर झुठलाया जाता रहा है। तो व्यंग्य ही एकमात्र तरीका दिखा जिसमें स्त्री विमर्श की सारी शुष्कता बोझिलता को सरसता और रोचकता से रिप्लेस किया जा सकता था। दूसरे शिकायत, रूदन, शिकवा, दयनीयता की नहीं हक़, हिम्मत और हौसले की बात करनी थी मुझे। व्यंग्य से ही मुमकिन था यह। इस तेवर को मैंने “डिकंस्ट्रक्शन विद ए स्माइल” कहा। 

तस्वीर साभारः नीलिमा चौहान।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप व्यंग्य और तंज की शैली में लिखती रही हैं अब तक। लेकिन आपको नहीं लगता कि व्यंग्य समझने के लिए भी तो कुछ हद तक प्रबुद्ध होने की ज़रूरत है तो ऐसे में ये केवल एलिट क्लास का साहित्य ही बनकर नहीं रह जाएगा?

नीलिमा चौहानः व्यंग्य एलीट की सम्पत्ति नहीं, वह तो पीड़ित का हथियार है। शक्तिशाली के ख़िलाफ़ वंचित वर्ग का औज़ार है। सत्ता पर, सत्ताशाली पर हंस सकने के ज़रिये सताया गया वर्ग एकजुट होने पाता है। मेरी किताबों में आपको उर्दू मिश्रित भाषा, लम्बी और नाटकीय वाक्य संरचना देखने को मिलेगी पर आप पाएंगे कि वह सुचिंतित है। हिंदी के संस्कृतनिष्ठ शब्द या बोझिल शब्द ये चमत्कार, अर्थ बोध और वह तंज नहीं रच सकते थे जिसकी दरकार थी। वैसे भी व्यंग्यात्मकता अखंड होती है। वाक्य को चीरने-फाड़ने और उसके अवयवों को अलगा देने से नहीं, रचना के पूरे प्रभाव से जन्म लेती है। व्यंग्यानुभूति के लिए सदिच्छा लगती है बस। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः “सॉफ्ट पॉर्न है”, “एलिट फ़ेमिनिज़्म है”, “अश्लील साहित्य है” इसी तरह के कई और आरोप लगे हैं आपकी पुस्तकों पर। इनपर आप क्या कहना चाहेंगी?

नीलिमा चौहानः स्त्री विमर्श की किताब पर आरोप लगना तो किताब के सही निशाने पर चोट लगने की निशानी होता है। स्त्री विमर्श के लेखन पर लगने वाले आरोपों की एक चेकलिस्ट होती है जिसे मृणाल पांडे जी ने अपने एक लेख में लिखा है। स्त्री का लिखना ही अपने में बग़ावत होता है और अगर कोई स्त्री पितृसत्ता से सीधी टक्कर वाले पात्रों की आड़ में छिपे बिना वाला लेखन करती है तो ऐसे आरोप अपेक्षित ही होने चाहिए। इसे मैं बीमारी के लक्षणों का सामने आना कहूंगी। लक्षण उठते हैं तो इलाज की ज़रूरत का अहसास भी तो तभी उठेगा न। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपने सेक्सुअलिटी पर बहुत ही मज़ेदार ढंग से लिखा है और उसमें एक स्त्री खुदसे और अपने गर्ल ग्रुप में खुलकर इस पर बात कर सके इसकी चाहत दिखती है। पर दरअसल हम देखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो ये बहुत आम है कि महिलाएं आपस में इन विषयों पर बात करती हैं और खुलकर बात करती हैं। तो जो आपका आग्रह है क्या वो शहरी एलिट लोगों के लिए है जो अक्सर सब कुछ ख़ुद तक रखना चाहते हैं?

नीलिमा चौहानः स्त्री की सेक्सुएलिटी की परिभाषा क्या है समाज में। अपने यौन अधिकारों के लिए चेतना का होना, अपनी देह के फ़ैसले अपने हाथ में होना, गर्भ की स्वामिनी होना। जबकि समाज स्त्री को इन सब अधिकारों से वंचित रख उसे एक असेक्सुअल प्राणी में तब्दील कर देता है। स्त्री की सारी आज़ादियों को खंडों में बांट देता है और दौहिक-यौनिक आज़ादी को शर्म और अपमान का विषय बनाकर स्त्री को उससे दूर रहने की सलाह देता है। बस यही भेद खोलने की कोशिश की है मैंने। ग्रामीण स्त्रियों की यौन उन्मुक्तता एक अफ़वाह है। गांव और शहर की औरतों की सेक्सुअलिटी की तुलना करना भी यहां बेईमानी है। स्त्री की कोख और योनि पर सत्ता का पहरा हर समाज में होता है उसके औज़ार भले ही अलग हों। 

इसलिए बवाल ए जान ब्रा, बस्टी ब्यूटियों का तिलिस्म, बीवी हूँ जी हॉर्नी हसीना नहीं, खाप सीढी और सेक्स जैसे शीर्षकों के ज़रिए मैं यही कहना चाहती हूं कि स्त्रियों को अपनी सेक्सुअलिटी पर समाज के पहरे को अस्वीकृत कर देना चाहिए। दैहिक आज़ादी से जुड़े सामाजिक सांस्कृतिक टैबू के जंजाल को समझना शुरू करना चाहिए। सेक्सुएलिटी को सेलिब्रेट करने की शुरुआत करनी चाहिए। यह समझना चाहिए कि पितृसत्ता द्वारा स्त्री की सेक्सुएलिटी का दमन एक पावर पॉलिटिक्स है। मैं बस यह कहना चाहती हूं कि हम स्त्रियां अपनी देह पर खेली जाती राजनीति में अपने पक्ष में खड़ी हों और इस दबिश से अपने मन को मुक्त करने की चाहत पालना शुरू करें।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपने अपनी एक कविता में कहा है, ‘आज रात औरतें काम पर हैं, पुरुष आराम पर हैं तो आज कोई अपराध नहीं होगा।’ ये तो वो आम धारणा है कि महिला अपराधी नहीं हो सकती क्योंकि उसे तो “अच्छा” बनना है। ये कुछ विरोधाभासी नहीं हो गया?

नीलिमा चौहानः इस कविता में रात एक स्पेस है जिसपर पुरुषों का क़ब्ज़ा है ठीक वैसे ही जैसे रसोई एक स्पेस है जिसका आधिपत्य स्त्रियों को देकर स्त्रियों की सामाजिक भूमिकाओं को सिकोड़ा गया है। जबतक स्त्री पुरुष के क़ब्ज़े वाले स्पेस पर अपना अधिकार नहीं जतायेगी तबतक जेंद्रीकृत (जेंडर्ड) सामाजिक संरचना के कुचक्र को तोड़ा नहीं जा सकेगा। ऐसे ही पुरुषों को रसोई, संतान के पालन जैसे स्पेस में दाख़िल होना होगा। इस कविता में स्त्रियों से कहना चाहा है कि जिन इलाक़ों को पुरुषप्रधान बनाया गया और जहां से हमें खदेड़ा जाता रहा है उनमें सामूहिक दख़ल देना होगा फ़्लैश मॉबिंग के अन्दाज़ में।

भारतीय या पाश्चात्य स्त्रीवाद के ख़ाके के ठप्पे स्त्रीवाद के पक्ष को मज़बूत नहीं करते। हर किताब की तरह-तरह से व्याख्याएं होती हैं और होनी भी चाहिए। ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ में विवाह को एक वेंटेज बिंदु की तरह इस्तेमाल कर उसे डिकंस्ट्रक्ट करने की कोशिश की है।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप कहती हैं कि हमें पितृसत्ता का प्रतिरोध करते हुए कड़वाहट, व्यग्रता, दलबंदी, भाषाई झुंझलाहट को परे रख पाने का हुनर सीखना ही होगा! कैसे?

नीलिमा चौहानः जर्मेन ग्रियर का भी कहना है कि स्त्रीवाद का रास्ता बहुत लंबा है। एक जीवन क्या, आने वाली कई पुश्तों का संघर्ष लील लेने वाला। कुढ़न, हताशा या व्यग्रता का होना पैरों में बेड़ियां बांधे चलने के समान है। स्त्रीवाद क्या! दुनिया का कोई भी संघर्ष सदयता और उल्लास से किया जाना चाहिए। मंज़िल से सुंदर रास्ता लगेगा तभी चलना मुमकिन हो सकेगा। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपने अपनी लेखनी के लिए कोई पारंपरिक विधा या भाषा नहीं अपनाई। इसके पीछे तर्क था कि अपनी बात अपनी तरह से हो, लेकिन हमें लगता है कि भाषा और तेवर कुछ-कुछ इस्मत चुग़ताई और मंटो जैसे लेखकों से मिलते-जुलते हैं। इस पर आप क्या कहेंगी? हालांकि भाषा में कई प्रयोग आपने किए हैं, हिन्दी-उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों के साथ ख़ूब मनमाना प्रयोग किया है।

नीलिमा चौहानः मेरा मानना है उत्पीड़ित उत्पीड़क की भाषा में अपना पक्ष कभी नहीं रख सकता। इसलिए जो वंचित वर्ग है उसे अपनी भाषा, अपना तेवर, अपना मुहावरा गढ़ना होगा। यह विधा जो इस किताब में आकार लेती दिखाई दे रही है जो भाषा के प्रयोगों का मनमानापन है वह अपने आप में उत्पीड़िक का प्रतिरोध का तरीक़ा है। और यह तरह-तरह के भाषिक प्रयोग कोड मिक्सिंग किए बिना कहना मुझे आता भी नहीं। इस कहने को मैंने “थिंकिंग एलाउड” कहा है। “सस्वर सोचना” इस कहने पर भाषा और कहने के बंधन भी अस्वीकृत किए गए हैं।

तस्वीर साभारः वाणी प्रकाशन

फेमिनिज़म इन इंडियाः ‘नवभारत टाइम्स’ अख़बार में गीताश्री‘ किताब के अपने रिव्यू में आपकी किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ को भारतीय स्त्रीवाद की दिशा में पहली किताब बताती हैं क्योंकि उनका मानना है कि “वैवाहिक संस्था के भीतर रहकर मुक्ति की तलाश” पूरी तरह से भारतीय फ़ेमिनिज़्म है। आप इस बारे में क्या सोचती हैं?

नीलिमा चौहानः भारतीय या पाश्चात्य स्त्रीवाद के ख़ाके के ठप्पे स्त्रीवाद के पक्ष को मज़बूत नहीं करते। हर किताब की तरह-तरह से व्याख्याएं होती हैं और होनी भी चाहिए। ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ में विवाह को एक वेंटेज बिंदु की तरह इस्तेमाल कर उसे डिकंस्ट्रक्ट करने की कोशिश की है। विवाह की संस्था की पवित्रता पर सवाल उठाए हैं। पत्नी की भूमिका में बद्ध स्त्री को सबह्यूमन कर दिये जाने की साज़िश की घेराबंदी करने की कोशिश की है। विवाह की संस्था तो पूरी दुनिया में स्त्री के श्रम और उसकी देह पर टिकी हुई है यों क्या भारतीय और क्या पाश्चात्य के खांचे बनाए जाएं। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप वर्तमान में हिंदी साहित्य में ऊपजी बहसों को किस तरह से देखती हैं और वर्तमान के स्त्री-विमर्श को लेकर आपका क्या कहना है?

नीलिमा चौहानः हिंदी साहित्य की फ़ेसबुकीय बहसें इतिवृत्तात्मक मालूम होती हैं मुझे। उद्गम, कारक, प्रतिभागी, भाषा, कंटेंट, प्रतिक्रिया और बहसों का शमन तक एकदम तयशुदा है। अगर आप स्त्री विमर्श से जुड़ी बहसों के बारे में बात कर रही हैं तो मेरा यह कहना है कि हिंदी साहित्य एक पितृसत्तात्मक स्पेस है, यहां स्त्री लेखन स्त्री लेखन चलता है पर स्त्रीवादी लेखन पर बात करने भर से हिंदी साहित्य के परिवेश का पारा और संतुलन बिगड़ जाता है। स्त्रीवाद का ठप्पा लग जाने से वरिष्ठ स्त्री लेखिकाएं तक भी बचती हैं। स्त्रियों द्वारा लेखन को करियर मानकर लिखना अपने किये कराये पर ख़ुद पानी फेर देना है। हो सकता है आप बेहतरीन करियर बना ले जाएं, नाम-ईनाम कमा ले जाएं, पर स्वजाति के साथ कहलाएगा यह विश्वासघात ही। ऐसे लिखने को ऐसे नाम-ईनाम को मैं दूर से ही प्रणाम करती हूं। 


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