कुछ साल पहले एक टीवी सीरियल आता था — ‘ना आना इस देस लाडो’। यह सीरियल हरियाणा की पृष्ठभूमि पर आधारित था और जन्म ले चुकी लड़कियों की हत्या जैसे गंभीर मुद्दे को सामने लाता था। कहानी में दिखाया गया था कि कैसे समाज की बुज़ुर्ग औरतें खुद अपने घर की बेटियों को मरवा देती हैं। यह चित्रण महज एक कहानी नहीं, बल्कि पितृसत्ता की सच्चाई है। पितृसत्ता अक्सर औरतों को ही अपना हथियार बनाती है। वो लाठी महिलाओं के हाथ में देती है, लेकिन वार फिर किसी और औरत पर ही होता है। सीरियल में वह बुज़ुर्ग स्त्री, जो वर्षों तक पितृसत्ता की संरक्षक रही, अंत में अपनी अस्मिता और किए गए अन्याय को समझने लगती है। यह बदलाव उस सवाल की ओर इशारा करता है जिसे हमें बार-बार पूछना चाहिए — क्या हम सच में अपनी ज़िंदगी और पहचान के मालिक हैं?
हाल ही में राजस्थान में एक घटना घटी, जिसमें एक पिता ने महज बेटे की चाह में अपनी पांच महीने की जुड़वाँ बेटियों की बेरहमी से हत्या कर दी। यह हमारे समाज में गहराई तक फैले पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव की क्रूर सच्चाई को उजागर करती है। जब बेटियां पैदा हुईं, तो पिता ने पहले पत्नी को पीटा और फिर मासूम बच्चियों को ज़मीन पर पटक कर उनकी जान ले ली। हालांकि माँ की हिम्मत और शिकायत के बाद पुलिस ने लाशें बरामद कर आरोपी को गिरफ़्तार किया। यह घटना केवल एक आपराधिक मामला नहीं, बल्कि उस मानसिकता को दिखाता है जो बेटियों को बोझ और बेटों को वारिस मानती है। वर्षों तक चली कन्या भ्रूण हत्या और स्त्रियों की उपेक्षा ने भारत, विशेषकर राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में लिंगानुपात को गहरे संकट में डाल दिया है। ऐसे में जब हम विज्ञान, तकनीक और विकास की ऊँचाइयों की बात करते हैं, तो ऐसी घटनाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि जबतक सामाजिक सोच नहीं बदलेगी, तबतक कोई भी प्रगति अधूरी और खोखली है।
हाल ही में राजस्थान में एक घटना घटी, जिसमें एक पिता ने महज बेटे की चाह में अपनी पांच महीने की जुड़वाँ बेटियों की बेरहमी से हत्या कर दी। यह हमारे समाज में गहराई तक फैले पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव की क्रूर सच्चाई को उजागर करती है।
भारत में क्या है लिंगानुपात
साल 2024 में भारत का लिंगानुपात 100 महिलाओं पर 106.443 पुरुष है, यानी, हर 1,000 पुरुषों पर 1,020 महिलाएं हैं। साल 2024 में भारत की कुल आबादी में पुरुषों की संख्या 51.56 फीसद और महिलाओं की संख्या 48.44 फीसद है। हालांकि भारत के ग्रामीण इलाकों ज्यादा अशिक्षा और अंधविश्वास होता है, लेकिन स्थिति पहले से कुछ बेहतर हुई है। यहां 1,000 पुरुषों पर 949 महिलाएं हैं, जबकि शहरी इलाकों में 1,000 पुरुषों पर 929 महिलाएं हैं। साल 2011 में भारत का लिंगानुपात 943 था। साल 2036 तक भारत में लिंगानुपात 952 होने की उम्मीद है। केरल राज्य शिक्षा में बेहतर होने के साथ लिंगानुपात में सबसे ज़्यादा है, वहीं हरियाणा में आज भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं हुई। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, साल 2022 में भारत का लिंगानुपात 1,020 महिलाएं प्रति 1,000 पुरुष था।

साल 2023 में भारत का लिंगानुपात 1,000 पुरुषों पर 943 महिलाओं का था, और अनुमान है कि 2036 तक महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो सकती है। यह लैंगिक समानता की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है। लेकिन भारतीय पारंपरिक समाज में बेटे के जन्म को लेकर गहरी रूढ़ियां और धार्मिक मान्यताएं आज भी व्यापक हैं। ऐसी धारणा है कि बिना बेटे के माता-पिता को मोक्ष नहीं मिलता, क्योंकि मृत्यु के बाद सारे कर्मकांड बेटे द्वारा किए जाने चाहिए। यह शास्त्रों में लिखा गया है। इसी सोच के चलते समाज में बेटे की चाह बनी रहती है। दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथाओं ने बेटियों के जन्म को एक बोझ बना दिया है। धार्मिक ग्रंथों, लोककथाओं, पूजा-व्रतों में बेटे के जन्म को महिमामंडित किया गया है, और उन कथाओं में बिना बेटे वाली महिलाओं को अभागिन बताया है और अपमानित किया गया है। वे कथाएं बताती हैं कि ऐसे घरों में पति दुखी रहते हैं और स्त्रियां जीवनभर पछताती हैं। यह धार्मिक आख्यान महिला को केवल पुत्रजननी के रूप में परिभाषित करते हैं। भारत में लैंगिक भेदभाव की जड़ें मूल रूप से धर्म, अंधविश्वास और अशिक्षा में छिपी हैं।
साल 2024 में भारत का लिंगानुपात 100 महिलाओं पर 106.443 पुरुष है, यानी, हर 1,000 पुरुषों पर 1,020 महिलाएं हैं। साल 2024 में भारत की कुल आबादी में पुरुषों की संख्या 51.56 फीसद और महिलाओं की संख्या 48.44 फीसद है।
परिवार और समाज में बेटे की चाहत और भेदभाव
भारतीय समाज में ‘परिवार’ नामक संस्था अक्सर सामाजिक अन्याय और अपराधों को ढकने और उन्हें सामान्य बनाने का माध्यम बन जाती है। राजस्थान के नीमकाथाना में घटी हालिया घटना इस बात का ताज़ा उदाहरण है। हत्या के बाद आरोपी अपने परिजनों के साथ मिलकर बेटियों के शवों को जोहड़ में छुपाने गया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पूरा परिवार इस अपराध में शामिल था या कम से कम इसके प्रति उदासीन था। यह सोच कि बेटा ही वंश को आगे बढ़ाता है, जबकि बेटियां परिवार पर बोझ हैं, हमारे समाज में इतनी गहराई से बैठ चुकी है कि लोग बेटियों के अस्तित्व को ही नकारने लगे हैं। इसी सोच के चलते पिता ने अपनी पाँच महीने की बेटियों को मार डाला। यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि उस स्त्री-विरोधी मानसिकता की प्रतीक है, जो महिलाओं के शरीर, उनके स्वास्थ्य और अस्तित्व के साथ लगातार खिलवाड़ कर रही है। भ्रूण-लिंग जांच, चयनात्मक गर्भपात और गर्भ में बेटियों की हत्या जैसे अमानवीय चीज़ें इसी मानसिकता की उपज हैं। ये प्रथाएं महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालती हैं और पितृसत्ता की क्रूरता को बनाये रखने की एक साज़िश बन जाती हैं।
बेटे की चाहत और धार्मिक मान्यताएं

धार्मिक मान्यताओं ने भी इस सोच को मज़बूती दी है। बेटा ही परिवार का ‘उत्तराधिकारी’ होता है—यह विचार भारतीय चेतना में इतने गहरे पैठा हुआ है कि लोग कानून की परवाह किए बिना भ्रूण परीक्षण करवाते हैं। हालांकि भारत सरकार ने यह स्पष्ट रूप से गैरकानूनी और दंडनीय अपराध घोषित किया है, फिर भी प्रभावशाली लोग अवैध तरीकों से लिंग परीक्षण करवा लेते हैं। कुछ समय पहले एक चौंकाने वाला इंटरव्यू सामने आया था जिसमें एक पत्रकार ने बिहार में 30 साल पहले गांवों में काम करने वाली कुछ दाइयों से बात की थी। उन्होंने कैमरे पर स्वीकार किया कि परिवारों के कहने पर वे नवजात बच्चियों को मार देती थीं। हालांकि कभी-कभी वे उन्हें बचाने की कोशिश भी करती थीं। दशकों बाद बीबीसी की एक इंवेस्टिगेटिव टीम ने उन दाइयों की बचाई गई एक लड़की को खोज निकाला। यह इस बात का प्रमाण है कि अगर समाज की ओर से थोड़ी भी संवेदना और साहस दिखाया जाए, तो जीवन बचाया जा सकता है। यह पूरी व्यवस्था इस बात की मांग करती है कि हम पारिवारिक ढांचे, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक सोच की गहराई से समीक्षा करें और तय करें कि हम एक मानवतावादी समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं या नहीं।
ऐसी धारणा है कि बिना बेटे के माता-पिता को मोक्ष नहीं मिलता, क्योंकि मृत्यु के बाद सारे कर्मकांड बेटे द्वारा किए जाने चाहिए। यह शास्त्रों में लिखा गया है। इसी सोच के चलते समाज में बेटे की चाह बनी रहती है। दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथाओं ने बेटियों के जन्म को एक बोझ बना दिया है।
आज एक तरफ महिलाएं अंतरिक्ष तक पहुंचकर राष्ट्रीय गौरव का परचम लहरा रही हैं, वहीं आज भी देश बेटियों को जन्म लेने से पहले या जन्म के बाद मार डालने जैसी शर्मनाक हकीकत से जूझ रहा है। विज्ञान, शिक्षा और तकनीक में प्रगति के बावजूद हम आज भी एक ऐसी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो बेटे को वरदान और बेटी को बोझ मानती है। हमारे आस-पास के पढ़े-लिखे और तथाकथित प्रगतिशील परिवार भी इस रूढ़िवादी सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं। अब भी कई घरों में बेटी के जन्म को दुर्भाग्य माना जाता है, और उनके पैदा होते ही ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो ज़मीन दो गज नीचे धँस गई हो। अक्सर देखा जाता है कि एक बेटी होने के बाद माता-पिता पर बेटे की चाह इस कदर हावी हो जाती है कि वे दूसरे बच्चे को हर हाल में लड़का ही चाहते हैं। हर साल न जाने कितनी महिलाएं सिर्फ बेटे को जन्म देने के दबाव में अपनी जान तक गंवा बैठती हैं। यह न सिर्फ क्रूरता है बल्कि एक संरचनात्मक हिंसा है, जो महिलाओं को बार-बार उनके अस्तित्व के लिए लड़ने पर मजबूर करती है।

भारतीय संविधान की रचना हर प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने और समानता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से की गई थी। पूंजीवादी हितों, जातिवादी मानसिकता और पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने मिलकर महिलाओं को अब तक दोयम दर्जे की नागरिकता में बनाए रखा है। अगर हमें सच में एक बराबरी और इंसाफ़ पर टिका समाज बनाना है, तो इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। बेटा-बेटी में फर्क करने वाली सोच को जड़ से मिटाना होगा। जब तक बेटियों को बोझ समझा जाएगा और पितृसत्ता का पोषण होता रहेगा, तब तक कोई भी प्रगति अधूरी है। हमें पारिवारिक, धार्मिक और सामाजिक ढांचे की गहरी समीक्षा करनी होगी और महिलाओं को उनके हक़, सम्मान और अस्तित्व के साथ जीने का अधिकार देना होगा। तभी हम एक सच में सभ्य और मानवीय समाज की ओर बढ़ सकेंगे।