समाजकानून और नीति पुलिस बल में महिलाओं के आरक्षण का लक्ष्य अब भी अधूरा: इंडिया जस्टिस रिपोर्ट

पुलिस बल में महिलाओं के आरक्षण का लक्ष्य अब भी अधूरा: इंडिया जस्टिस रिपोर्ट

आईजेआर 2022 रिपोर्ट की तुलना में, आईजेआर 2025 में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने पुलिस बल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में मामूली सुधार किया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यदि वर्तमान दरें स्थिर रहीं, तो आंध्र प्रदेश और बिहार को लगभग तीन वर्ष, झारखंड, त्रिपुरा और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को 33 प्रतिशत के समग्र मानक को प्राप्त करने में लगभग 200 वर्ष भी लग सकते हैं।

हाल ही में जारी हुए इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 के अनुसार, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका और पुलिस में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन, इसके बावजूद वे संस्थाओं के निचले स्तरों पर ही केंद्रित हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत के 2.43 लाख पुलिस बल में वरिष्ठ अधिकारी पदों पर 1,000 से भी कम महिलाएं हैं। इसी तरह जिला न्यायपालिका में 38 फीसद न्यायाधीश महिलाएं हैं। पिछले कई वर्षों में देश में कानून प्रवर्तन में लैंगिक विविधता की आवश्यकता के बारे में बढ़ती जागरूकता के बावजूद, एक भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश पुलिस बल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाया है। रिपोर्ट पुलिस पदानुक्रम में लैंगिक असमानताओं को भी बताती है। रिपोर्ट अनुसार पुलिस में अधिकारी स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व और भी कम है। 

रिपोर्ट बताती है कि देश में कुल 2.4 लाख महिला पुलिसकर्मियों में से केवल 960 भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) रैंक में हैं, जबकि 24,322 गैर-आईपीएस अधिकारी जैसे पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी), इंस्पेक्टर या सब-इंस्पेक्टर के पद पर हैं। आईपीएस की अधिकृत ताकत 5,047 अधिकारी हैं। इनमें से 52 प्रतिशत सब-इंस्पेक्टर के पद पर हैं और 25 प्रतिशत एएसआई के पद पर हैं। चौंका देने वाली बात यह है कि 2.17 लाख महिलाएं कांस्टेबल के पद पर हैं। वहीं, सबसे ज़्यादा 133 महिला डीएसपी के साथ मध्य प्रदेश शीर्ष पर है। इसके अलावा, रिपोर्ट खुलासा करती है कि देश के लगभग 78 प्रतिशत पुलिस स्टेशनों में अब महिला सहायता डेस्क हैं, 86 प्रतिशत जेल वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं से सुसज्जित हैं और कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति व्यय 2019 और 2023 के बीच लगभग दोगुना होकर 6.46 रुपये तक पहुंच गया है।

रिपोर्ट बताती है कि देश में कुल 2.4 लाख महिला पुलिसकर्मियों में से केवल 960 भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) रैंक में हैं, जबकि 24,322 गैर-आईपीएस अधिकारी जैसे पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी), इंस्पेक्टर या सब-इंस्पेक्टर के पद पर हैं। आईपीएस की अधिकृत ताकत 5,047 अधिकारी हैं। इनमें से 52 प्रतिशत सब-इंस्पेक्टर के पद पर हैं और 25 प्रतिशत एएसआई के पद पर हैं।

कर्नाटक शीर्ष स्थान पर

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 18 बड़े और मध्यम राज्यों में (प्रत्येक की आबादी एक करोड़ से अधिक) में कर्नाटक को समग्र रूप से प्रथम स्थान पर रखती है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और केरल हैं। अन्य राज्यों की तुलना में पांच दक्षिणी राज्यों ने रैंकिंग पर अपना दबदबा बनाया। कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने पुलिस (कांस्टेबुलरी और अधिकारी स्तर पर) के साथ-साथ जिला न्यायपालिका दोनों में अपने जातिगत कोटा (एससी, एसटी और ओबीसी) को पूरा किया है। केरल में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बीच सबसे कम रिक्तियां हैं। तमिलनाडु को सर्वोत्तम जेल प्रबंधन के लिए मान्यता दी गई, जहां कैदियों की अधिभोग दर (ऑक्यूपेंसी) 77 फीसद थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 131 फीसद से अधिक है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश पुलिस श्रेणी में भी पहले और दूसरे स्थान पर रहे।

तस्वीर साभार: Canva

सात छोटे राज्यों (एक करोड़ से कम आबादी वाले) में सिक्किम ने 2022 से अपना शीर्ष स्थान बरकरार रखा। उसके बाद हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश का स्थान रहा। रैंकिंग पांच साल की अवधि में संसाधन आवंटन, मानव विविधता, बुनियादी ढांचे और संस्थागत रुझानों सहित प्रदर्शन संकेतकों पर आधारित थी। रिपोर्ट में साल 2022 और 2025 के बीच बदलाव का आकलन करने वाला एक ‘सुधार स्कोरकार्ड’ भी पेश किया गया। बिहार में सबसे ज़्यादा सुधार हुआ। इसके बाद छत्तीसगढ़ और ओडिशा का स्थान रहा। आश्चर्यजनक रूप से, प्रगति के मामले में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ने हरियाणा, तेलंगाना और गुजरात जैसे राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है। सामाजिक रूप से, यह धारणा गहराई से जमी हुई है कि पुलिसिंग एक मर्दाना पेशा है, जो शारीरिक ताकत और लंबे, अप्रत्याशित घंटों से जुड़ा है।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 18 बड़े और मध्यम राज्यों में (प्रत्येक की आबादी एक करोड़ से अधिक) में कर्नाटक को समग्र रूप से प्रथम स्थान पर रखती है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, और केरल हैं। अन्य राज्यों की तुलना में पांच दक्षिणी राज्यों ने रैंकिंग पर अपना दबदबा बनाया।

ये मांगे समाज को महिलाओं के लिए अनुपयुक्त या असुरक्षित लगता है। द प्रिन्ट को दिए गए किरण बेदी के बयान अनुसार परिवार और सामाजिक अपेक्षाएं भी अक्सर महिलाओं को ऐसे करियर अपनाने से हताश करती हैं। यह छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में और भी ज्यादा लागू होती हैं। बेदी ने अपने साक्षात्कार में व्यवस्थागत बाधाओं की ओर भी इशारा किया है। वे कहती हैं कि यहां लैंगिक रूप से संवेदनशील बुनियादी ढाँचे की कमी है, जिसमें सुरक्षित आवास, उचित स्वच्छता, बाल देखभाल सुविधाएं और सुरक्षित कामकाजी परिस्थितियां शामिल हैं। इससे महिलाओं के लिए पुलिस सेवा में प्रवेश करना और अपना करियर बनाए रखना और भी मुश्किल हो जाता है। वह आगे बताती हैं कि महिलाओं को लक्षित करने वाली अपर्याप्त भर्ती अभियान, सीमित मार्गदर्शन और धीमी कैरियर प्रगति जैसे अन्य मुद्दे इस मुद्दे को और बढ़ा देते हैं। जबतक इन बुनियादी मुद्दों का समाधान नहीं किया जाता, पुलिस में महिलाओं का प्रवेश सीमित बना रहेगा।

पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी 33 प्रतिशत क्यों नहीं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

आईजेआर 2022 रिपोर्ट की तुलना में, आईजेआर 2025 में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने पुलिस बल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में मामूली सुधार किया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यदि वर्तमान दरें स्थिर रहीं, तो आंध्र प्रदेश और बिहार को लगभग तीन वर्ष, झारखंड, त्रिपुरा और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को 33 प्रतिशत के समग्र मानक को प्राप्त करने में लगभग 200 वर्ष भी लग सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि जनवरी 2023 तक पुलिस में महिलाओं का कुल प्रतिनिधित्व – सिविल पुलिस, जिला सशस्त्र रिजर्व (डीएआर), विशेष सशस्त्र पुलिस बटालियन और भारतीय रिजर्व बटालियन (आईआरबी) में 12.3 प्रतिशत था, जो जनवरी 2022 में 11.7 प्रतिशत पाया गया था। 18 बड़े और मध्यम राज्यों में, बिहार, 24 प्रतिशत के साथ पुलिस में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सबसे आगे है। बिहार ने 2022 में 21 प्रतिशत से 2024 में 24 प्रतिशत की सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की है। वहीं, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित नौ अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गिरावट देखी गई।

आईजेआर 2022 रिपोर्ट की तुलना में, आईजेआर 2025 में 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने पुलिस बल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में मामूली सुधार किया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यदि वर्तमान दरें स्थिर रहीं, तो आंध्र प्रदेश और बिहार को लगभग तीन वर्ष, झारखंड, त्रिपुरा और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को 33 प्रतिशत के समग्र मानक को प्राप्त करने में लगभग 200 वर्ष भी लग सकते हैं।

न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 

रिपोर्ट में न्यायपालिका के मामले में भी निष्कर्षों में इसी तरह की प्रवृत्ति देखने को मिली। रिपोर्ट में पाया गया कि निचले न्यायपालिका में 38 प्रतिशत न्यायाधीश महिलाएं हैं जबकि उच्च न्यायालयों में यह संख्या गिरकर महज 14 प्रतिशत रह गई है। हालांकि रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि सभी राज्यों में अधीनस्थ न्यायपालिका में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। लेकिन, इस तरह का उच्च न्यायालयों में वृद्धि उसी रास्ते का अनुसरण नहीं कर रही है। उदाहरण के लिए, इसमें कहा गया है कि फरवरी 2025 तक 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने जिला न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या 33 प्रतिशत या उससे अधिक है, और सात राज्यों में निचली अदालतों में 50 प्रतिशत या उससे अधिक महिलाएं हैं।

लेकिन इसमें उल्लेख किया गया है कि तेलंगाना और सिक्किम को छोड़कर किसी भी राज्य के उच्च न्यायालयों में 30 प्रतिशत से अधिक महिला न्यायाधीश नहीं हैं, और उत्तराखंड के उच्च न्यायालय में तो एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है। जिला न्यायपालिका में केवल पांच प्रतिशत न्यायाधीश अनुसूचित जनजाति से हैं और 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति से हैं। साल 2018 से नियुक्त 698 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 37 न्यायाधीश एससी और एसटी श्रेणियों से हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायपालिका में ओबीसी का कुल प्रतिनिधित्व 25.6 प्रतिशत है। कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च 6.46 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति खर्च 182 रुपये है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता है।

रिपोर्ट में पाया गया कि निचले न्यायपालिका में 38 प्रतिशत न्यायाधीश महिलाएं हैं जबकि उच्च न्यायालयों में यह संख्या गिरकर महज 14 प्रतिशत रह गई है। हालांकि रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि सभी राज्यों में अधीनस्थ न्यायपालिका में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। लेकिन, इस तरह का उच्च न्यायालयों में वृद्धि उसी रास्ते का अनुसरण नहीं कर रही है।

अदालत में लंबित मामले और समय पर न्याय की जरूरत

लंबित मामलों पर ज़ोर देते हुए कहा गया है कि कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोड़कर, सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अंडमान और निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में 40 प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं। दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है, जबकि दो प्रतिशत मामले 10 साल से अधिक समय से लंबित हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

आईजेआर ने तत्काल और आधारभूत सुधारों की मांग की है, और यह माना है कि न्याय प्रदान करने के लिए एक आवश्यक सेवा के रूप में माना जाना चाहिए। रिपोर्ट न्याय व्यवस्था पर खतरे की घंटी बजाता है जो सुरक्षा से ज़्यादा सज़ा देती है, जिसमें भीड़भाड़ वाली जेलें, कम कर्मचारी वाली अदालतें और रुके हुए सुधार शामिल हैं। रिपोर्ट में 25 राज्य मानवाधिकार आयोगों के कामकाज का भी मूल्यांकन किया गया है और विकलांग व्यक्तियों के लिए न्याय तक पहुंच और वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धति के रूप में मध्यस्थता पर भी आंकलन प्रस्तुत किए गए हैं।

भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या 2030 तक 6.8 लाख तक पहुंचने का अनुमान है। आईजेआर ने चेतावनी दी है कि जब तक प्रणालीगत सुधारों को प्राथमिकता नहीं दी जाती, न्याय प्रणाली कमजोर और हाशिए पर पड़े लोगों पर असंगत रूप से बोझ डालती रहेगी। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 यह साफ़ करती है कि भारत की न्यायिक और पुलिस व्यवस्था में लैंगिक और सामाजिक प्रतिनिधित्व की कमी अभी भी एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं और हाशिए पर मौजूद समुदायों की भागीदारी बढ़ाने के लिए सिर्फ नीतियां नहीं, बल्कि ज़मीन पर ठोस बदलाव ज़रूरी हैं। जब तक संस्थागत सुधारों को प्राथमिकता नहीं दी जाती, न्याय प्रणाली सभी के लिए समान और सुलभ नहीं बन पाएगी।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content