महिला कौन है? किसे महिला माना जाएगा? ये सवाल सिर्फ परिभाषाओं तक सीमित नहीं हैं, ये सवाल पहचान, अधिकार और अस्तित्व से जुड़े हैं। 16 अप्रैल को यूनाइटेड किंगडम की सुप्रीम कोर्ट के विवादित फैसले ने इन सवालों को एक बार फिर वैश्विक विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है, जहां हाशिए के दो समुदाय एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। कोर्ट ने कहा कि केवल वे लोग जो जन्म से महिला हैं, उन्हें ही ‘महिला’ की कानूनी श्रेणी में रखा जाएगा। इस फैसले ने ट्रांस महिलाओं को महिला की कानूनी परिभाषा से बाहर कर दिया, जिससे ट्रांसजेंडर अधिकारों, लैंगिक न्याय और समावेशिता को लेकर एक नई और जरूरी बहस खड़ी हो गई। यह फैसला न केवल ट्रांस अधिकारों को चुनौती देता है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि हम एक समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं या उससे और दूर जा रहे हैं।
क्या है पूरा मामला
ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट ने 16 अप्रैल को ‘फॉर वुमन स्कॉटलैंड लिमिटेड बनाम स्कॉटिश मिन्सटर्स‘ के मामले में दिए गए फैसले में कहा कि जब ‘महिला’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है, तो 2010 का इक्वैलिटी एक्ट इसका मतलब बायोलॉजिकल सेक्स से लेता है, न कि लैंगिक पहचान से। इसके कारण ट्रांसजेंडर महिलाएं अब इस कानून के दायरे में नहीं आएंगी, जो भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय से बचाने के लिए बनाया गया था। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि अगर किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के पास आधिकारिक सर्टिफिकेट है, जिसमें उन्हें ‘महिला’ के रूप में मान्यता दी गई है, तो भी इस कानून के तहत उन्हें अब ‘महिला’ नहीं माना जाएगा। हालांकि कोर्ट ने ये भी साफ किया कि इसका मतलब ये नहीं है कि ट्रांसजेंडर लोगों को किसी भी कानून के तहत सुरक्षा नहीं मिलेगी। उन्हें दूसरे कानूनी प्रावधानों के तहत सुरक्षा मिल सकती है।
ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट ने 16 अप्रैल को ‘फॉर वुमन स्कॉटलैंड लिमिटेड बनाम स्कॉटिश मिन्सटर्स’ के मामले में दिए गए फैसले में कहा कि जब ‘महिला’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है, तो 2010 का इक्वैलिटी एक्ट इसका मतलब बायोलॉजिकल सेक्स से लेता है, न कि लैंगिक पहचान से।
यह मामला स्कॉटलैंड के साल 2018 के जेंडर प्रतिनिधित्व सार्वजनिक बोर्ड अधिनियम में ‘महिला’ की परिभाषा से जुड़ा था। इस कानून का उद्देश्य स्कॉटलैंड के सार्वजनिक बोर्डों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए जेंडर प्रतिनिधित्व के लक्ष्य तय करना था। बाद में स्कॉटिश मंत्रियों ने एक नया कानूनी दिशा-निर्देश जारी किया, जिसमें लिखा था कि साल 2018 के कानून में ‘महिला’ की परिभाषा वही है जो 2010 के इक्वैलिटी एक्ट में दी गई है। दिशा-निर्देश में ये भी था कि यदि किसी व्यक्ति के पास जेंडर रिकग्निशन सर्टिफिकेट (GRC) है जो उन्हें महिला के रूप में मान्यता देता है, तो उन्हें 2018 के कानून के तहत ‘महिला’ माना जाएगा। ब्रिटेन में GRC ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कानूनी रूप से अपना जेंडर बदलने की अनुमति देता है। कोई व्यक्ति GRC तब प्राप्त कर सकता है जब वह यह साबित करे कि उसे जन्म के समय मिले जेंडर से परेशानी या असहमति (जेंडर डिस्फोरिया) रही है। वह पिछले दो साल से अपने चुने गए जेंडर पहचान के साथ जी रहा है, और भविष्य में भी उसी पहचान के साथ जीने का इरादा रखता है।
क्या है बहस

साल 2022 में, फॉर वुमेन स्कॉटलैंड (एफडब्ल्यूएस) नामक समूह ने साल 2010 के एक्ट में ‘महिला’ की परिभाषा को चुनौती दी, यह कहते हुए कि केवल बायोलॉजिकल जेंडर पर आधारित होनी चाहिए। निचली अदालतों से खारिज होने के बाद, मामला अंत में यूके सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। एफडब्ल्यूएस ने कोर्ट में दलील दी कि यह मामला केवल स्कॉटलैंड ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड और वेल्स में भी लिंग आधारित अधिकार और जेंडर के हिसाब से तय की जाने वाली जगहों, जैसे टॉयलेट, अस्पताल के वार्ड और जेलों पर असर डालेगा। एफडब्ल्यूएस ने कहा था कि अगर जेंडर की परिभाषा को उसके सामान्य (बायोलॉजिकल) मतलब से न जोड़ा जाए, तो हो सकता है कि किसी पब्लिक बोर्ड में 50 फीसद पुरुष हों और बाकी 50 फीसद ऐसे पुरुष, जिनके पास महिला होने का सर्टिफिकेट हो, फिर भी वो महिला प्रतिनिधित्व का लक्ष्य ‘कानूनी रूप से’ पूरा मान लिया जाएगा।
साल 2022 में, फॉर वुमेन स्कॉटलैंड (एफडब्ल्यूएस) नामक समूह ने साल 2010 के एक्ट में ‘महिला’ की परिभाषा को चुनौती दी, यह कहते हुए कि केवल बायोलॉजिकल जेंडर पर आधारित होनी चाहिए। निचली अदालतों से खारिज होने के बाद, मामला अंत में यूके सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था।
एफडब्ल्यूएस अपनी वेबसाइट पर साफ तौर पर कहता है कि हम मानते हैं कि सिर्फ दो ही सेक्स होते हैं और किसी व्यक्ति का सेक्स न तो उसकी पसंद होती है, और न ही उसे बदला जा सकता है। हालांकि लैंगिक समानता की दिशा में काम करने वाले कार्यकर्ताओं और संस्थाओं का मानना है कि जेंडर कोई बाइनरी नहीं है, बल्कि ये एक स्पेक्ट्रम है। जब समावेशन की बात होती है, तो कहा जाता है कि ट्रांसजेंडर लोगों को भी वही कानूनी मान्यता और भेदभाव से सुरक्षा मिलनी चाहिए जैसी महिलाओं को मिलती है। इसका कारण यह है कि समाज में ट्रांसजेंडर लोगों के साथ भी लंबे समय से भेदभाव और हाशियाकरण होता रहा है।
दुनिया भर में अलग-अलग प्रतिक्रिया
इस फैसले के विरोध में ट्रांस समुदायों ने विश्व की कई अलग-अलग जगहों पर विरोध किया। इस फैसले ने कार्यकर्ताओं को दो खेमों में बांट दिया है। एक वो जो शुरू से यह मानते हैं कि ट्रांस महिलाओं को महिला अधिकारों में जगह नहीं मिलनी चाहिए। उनके अलग प्रवधान होने चाहिए।
वहीं दूसरी ओर अनेक कार्यकर्ता मानते हैं कि ट्रांस महिलाएं भी महिलाएं ही हैं। उन्हें महिलाओं से अलग नहीं किया जा सकता है। हैरी पॉटर की मशहूर लेखिका जेके रोलिंग ने ट्वीट कर इस फैसले पर समर्थन जताया।
ट्वीट में वो लिखती हैं कि ट्रांस एक्टिविस्ट जो इस फैसले को अन्याय के रूप में देख रहे हैं, सच्चाई ये है कि उन्होंने वे अधिकार खोए हैं जो उनके कभी थे ही नहीं। दूसरी तरफ ब्रिटेन की सांसद नदिया व्हिटोम इस फैसले के विरोध में ट्वीट पर लिखती हैं कि एक शोषित समूह के अधिकारों पर हमला करना नारीवाद की जीत नहीं है।
लैंगिक समानता की दिशा में काम करने वाले कार्यकर्ताओं और संस्थाओं का मानना है कि जेंडर कोई बाइनरी नहीं है, बल्कि ये एक स्पेक्ट्रम है। जब समावेशन की बात होती है, तो कहा जाता है कि ट्रांसजेंडर लोगों को भी वही कानूनी मान्यता और भेदभाव से सुरक्षा मिलनी चाहिए जैसी महिलाओं को मिलती है।
भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकार

वैश्विक स्तर पर विवाद का कारण बनी यह घटना भारत में भी एक अहम मुद्दा है। भारत में लैंगिक पहचान को लेकर कानूनी और सामाजिक परिदृश्य में पिछले एक दशक में बड़े बदलाव आए हैं। साल 2014 के ऐतिहासिक नलसा NALSA बनाम भारत सरकार के फैसले ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपनी लैंगिक पहचान स्वयं तय करने के अधिकार को मान्यता दी थी। हालांकि 2019 में ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम’ पारित किया गया, जो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा और निवास जैसे क्षेत्रों में अधिकार प्रदान करता है। लेकिन, इसे व्यापक रूप से इसलिए आलोचना मिली क्योंकि वह पूरी तरह से आत्म-पहचान पर आधारित नहीं था।
ब्रिटेन के तरह भारत के कानूनों में ‘महिला’ की कोई स्पष्ट परिभाषा मौजूद नहीं है, खासकर सार्वजनिक नियुक्तियों या समानता से जुड़े संरक्षणों में, जहां जेंडर और लैंगिक पहचान (जेंडर आइडेंटिटी) के बीच स्पष्ट अंतर हो।
ब्रिटेन के तरह भारत के कानूनों में ‘महिला’ की कोई स्पष्ट परिभाषा मौजूद नहीं है, खासकर सार्वजनिक नियुक्तियों या समानता से जुड़े संरक्षणों में, जहां जेंडर और लैंगिक पहचान (जेंडर आइडेंटिटी) के बीच स्पष्ट अंतर हो। ब्रिटेन का यह फैसला भारत में भी रूढ़िवादी कानूनी व्याख्याओं को बल दे सकता है। इस बात की संभावना है कि इसी तर्क का उपयोग कर भारत में ट्रांस महिलाओं को उन आरक्षणों या सुरक्षा उपायों से बाहर रखा जा सकता है जो महिलाओं के लिए बनाए गए हैं। भारत में ट्रांस समुदाय के अधिकार केवल कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक मान्यता और गरिमा का प्रश्न भी है। कुछ कानूनी प्रगति के बावजूद, ट्रांस व्यक्ति (विशेष रूप से ट्रांस महिलाएं) हिंसा, बेरोजगारी और सामाजिक बहिष्कार का सामना करती हैं।
यदि भारत ‘महिला’ की एक कठोर जैविक परिभाषा अपनाता है, तो यह सालों की प्रगति को पीछे खींचने और पहले से ही हाशिए पर मौजूद समुदाय को और अधिक हाशिए पर धकेलने जैसा होगा। यह निर्णय देश में मुख्यधारा की नारीवादी आंदोलनों को भी प्रभावित कर सकता है, जहां पहले से ही हाशिये के समुदाय के आवाजों को शामिल करना एक चुनौती है। यह फैसला उन आवाज़ों को बल दे सकता है जो ट्रांस पहचान को बाहर करना चाहते हैं। यह बहस केवल परिभाषाओं की नहीं, बल्कि इस बात की है कि कौन देखा, सुना जाएगा और किसे संरक्षण मिलेगा। किसी ‘महिला’ को केवल जैविक दृष्टि से परिभाषित करना उन तमाम अनुभवों को मिटा देता है जो जेंडर बाइनरी व्यवस्था में फिट नहीं बैठते।