शौचालय एक अच्छे और स्वच्छ समाज की बुनयादी ज़रूरत है। यह ज़रूरत और भी आवश्यक हो जाता है, जब बात महिलाओं पर आती है। जिस जगह शौचालय नहीं होते, वहां महिलाओं के साथ होने वाले अपराध बढ़ जाते हैं, जिससे बचने के लिए महिलाएं शौच के लिए भोर में सबसे पहले जाना या अकेले शौच के लिए नहीं जाने जैसे उपाए अपनाती हैं। इतनी सतर्कता बरतने के बाद भी वो अक्सर यौन हिंसा का सामना करती हैं। यदि वह इससे बच भी जाएं, फिर भी खुले में शौच करने से और गन्दगी से होनी वाली बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं। इसी समस्या पर उत्तर प्रदेश की कलावती देवी ने न सिर्फ ध्यान दिया, बल्कि इस समस्या से बाहर याने के पुरजोर कोशिश की। कलावती देवी ने स्वच्छता जागरूकता और शौचालय निर्माण के लिए लड़ाई लड़ी और स्वच्छता योद्धा बनीं। जब शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरत न मिले तब एक जंग की शुरुआत होती है। फिर यह जंग शौचालय तक सीमित नहीं रहती। यह जंग होती है महिलाओं के न्याय, उनके बुनियादी अधिकार, सुरक्षा और स्वच्छता की।
कौन हैं कलावती देवी?
कलावती देवी का जन्म साल 1965 में एक राजमिस्त्री के घर हुआ था। उनकी शादी 13 साल की उम्र में उनसे पांच साल बड़े युवक से हुई थी। शादी के बाद वह पति के साथ कानपुर में राजा का पुरवा में आकर बस गईं। कलावती कभी स्कूल भी नहीं गईं। लेकिन उनके भीतर समाज के लिए कुछ करने की ललक बचपन से थी। राजा का पुरवा गंदगी के ढेर पर बसा था। करीब 700 लोगों की आबादी वाले इस मोहल्ले में एक भी शौचालय नहीं था। सभी लोग खुले में शौच के लिए जाते थे। वह इस विषय पर कुछ करना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने एक स्थानीय संघठन ‘श्रमिक भारती’ से मुलाकात की, जो शौचालय और स्वछता के लिए काम कर रहा था। इस संघठन की सहायता से उन्होंने शौचालय निर्माण का काम भी सीखा। सामुदायिक शौचालय बनवाने के लिए उन्होंने घर-घर जाकर कुछ रक़म जुटाई और श्रमिक भारती संघठन की सहायता से मोहल्ले का पहला सामुदायिक शौचालय बनवाया। वह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहा। इसके बाद उन्होंने कानपूर और आस-पास के गांवों में 4000 से अधिक शौचालय का निर्माण किया।
कलावती ने लोगों के घर-घर जा कर पैसे इकट्ठा करना शुरू कर दिया। राजा पुरवा में रहने वाले लोग रिक्शा चालक, घरेलू कामगार और दिहाड़ी करने वाले मजदुर थे, जिनसे ज्यादा पैसे दान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
संघर्ष में मिला जीवनसाथी का साथ
कलावती देवी हमेशा से ही आत्मविश्वासी नहीं थी। उनके हालात हमेशा कठिन रहे, लेकिन उन्हें अपने पति का समर्थन हमेशा मिला। कलावती अपने इलाके के लिए कुछ करना चाहती थीं, जिसमें उनके पति ने उनका साथ दिया। उन्होंने कलावती को श्रमिक भारती गैर-लाभकारी संघठन से परिचित कराया और अपनी योजनाओं के बारे में बात की। श्रमिक भारती कलावती जैसे प्रतिबद्ध लोगों की तलाश कर रहा था, जो समाज में बदलाव लाना चाहते थे। कलावती ने श्रमिक भारती संघठन से अपनी झुग्गी में 10-20 सीटों वाली सार्वजनिक शौचालय सुविधा बनवाने का विचार रखा। यह एक व्यवहार्य परियोजना थी और श्रमिक भारती ने उसे आगे बढ़ने की अनुमति दे दी।
चुनौतियां और शहरी विकास कार्यक्रम

कलावती के काम में की चुनौतियां रहीं। वह बताती हैं कि इस काम में कोई भी व्यक्ति अपनी ज़मीन जन-सुविधा निर्माण के लिए दान नहीं करना चाहता था और न ही कोई निर्माण के लिए पैसे या श्रमदान करना चाहता था। लोगों को शौचालय की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी जिसके कारण उन्होंने शौचालय की ज़रूरत, धन की व्यवस्था और संघठन के असली इरादों पर भी कई सवाल उठाए गए। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। वह शहरी विकास कार्यक्रम के अंदर आने वाली योजनाओं के बारे में पता करने के लिए कानपुर नगर निगम गईं। वहां एक अधिकारी ने उन्हें एक योजना बताई जिस योजना के तहत उन्हें लोगों से 1,00,000 रूपये इकट्ठा करने थे। इसके बाद नगर निगम उन पैसे में 2,00,000 रूपये जोड़ देने की बात थी। सामुदायिक शौचालय बनवाने में लगभग 3,00,000 रूपये की ज़रूरत थी।
कलावती के काम में की चुनौतियां रहीं। वह बताती हैं कि इस काम में कोई भी व्यक्ति अपनी ज़मीन जन-सुविधा निर्माण के लिए दान नहीं करना चाहता था और न ही कोई निर्माण के लिए पैसे या श्रमदान करना चाहता था। लोगों को शौचालय की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी जिसके कारण उन्होंने शौचालय की ज़रूरत, धन की व्यवस्था और संघठन के असली इरादों पर भी कई सवाल उठाए गए।
कलावती ने लोगों के घर-घर जा कर पैसे इकट्ठा करना शुरू कर दिया। राजा पुरवा में रहने वाले लोग रिक्शा चालक, घरेलू कामगार और दिहाड़ी करने वाले मजदुर थे, जिनसे ज्यादा पैसे दान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। किसी ने 10 रुपए तो किसी ने 100 दान किए, और इस तरह कलवती 50,000 रुपए जुटाने में कामयाब रहीं। इस बीच श्रमिक भारती ने राज्य सरकार की गैर-पारंपरिक ऊर्जा विकास एजेंसी (NEDA) से 700,000 रुपये की सहायता की व्यवस्था की। 10-20 सीटों की जगह 50 सीटों वाली सुविधा का निर्माण हुआ। सुविधा के निर्माण में नगर निगम ने सार्वजानिक रूप से परियोजना में कलावती देती के योजदान को स्वीकार किया। कलावती आगे बताती हैं कि सामग्री की खरीद, मजदूरों का निरीक्षण और अपना निर्माण कार्य में इनपुट देते हुए उन्हें एहसास हुआ कि वह भी राजमिस्त्री बनना चाहती थीं। इसके बाद श्रमिक भारती ने उन्हें शौचालय निर्माण में उचित प्रशिक्षण के लिए भेजा।
बुरे वक़्त में हार न मानना
पति को खोने के बाद कलावती अकेले पड़ गई। आज वह कंस्ट्रक्शन का काम कर के अपना घर चला रही हैं। उनकी बड़ी बेटी लक्ष्मी और दो पोते-पोती उनके साथ ही रहते हैं। उनके दामाद की असामयिक मृत्यु के बाद कलावती ही बेटी लक्ष्मी और दो पोते-पोतियों की देखभाल कर रही हैं। कलावती एक लंबे समय से राजमिस्त्री का काम कर रही हैं। वह कहती हैं कि जेंडर के आधार पर काम को अलग-अलग नहीं बांटा जा सकता है। काम तो काम है और हर काम की अपनी गरिमा होती है। वह कहती हैं कि उनके काम करने की कोई समय-सीमा तय नहीं है। वह बततै हैं कि वह कितने देर काम करेंगी वो प्रोजेस्ट पर निर्भर करता है। बहुत बार उन्हें देर रात तक काम करना पड़ता है। उन्होंने खुदा की एक सीवर डिजाइन और निर्माण तकनीक विकसित की है, जिसे वे एक अच्छा कदम मानती हैं।
कलावती अपने काम से कभी थकती नहीं हैं। उन्हें अपने काम से ख़ुशी मिली मिलती है, और वह लोगों को शौचालय का उपयोग करने के लिए प्रेरित करने को भी अपने काम ही हिस्सा मानती हैं। साल 2019 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कलावती देवी को नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित भी किया। कलावती देवी समाज के लिए एक एक प्रेरणादायक उदाहरण हैं, यह बताने के लिए कि किस तरह महिलाएं अपने मान-सम्मान, सुरक्षा और समाज के हित के लिए सभी कठिनाइयों से लड़ने को तैयार रहती हैं। इतिहास में अनेकों महिलाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने अपने हक और सम्मान के लिए आवाज़ उठाई है, और आज भी ये लड़ाई जारी है।