समाजकार्यस्थल प्रतिभाशाली महिलाओं का पलायन: अवसरों की तलाश या सिस्टम की विफलता?

प्रतिभाशाली महिलाओं का पलायन: अवसरों की तलाश या सिस्टम की विफलता?

साल 2023 की हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू  की रिपोर्ट यह बताती है कि अश्वेत महिलाएं विशेष रूप से दक्षिण एशियाई महिलाओं को, अक्सर योग्य होने के बावजूद कार्यकारी पर्दों पर कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

भारत दुनिया में सबसे बड़ा प्रवासी देश है। कई लोग बेहतर अवसर या प्रेरणाहीन माहौल से निराश होकर विदेश की ओर रुख़ करते है। ब्रेन ड्रेन (प्रतिभाओं के प्रवास) को अक्सर आर्थिक और करियर के लिए किया गया एक रणनीति के रूप में देखा जाता है।  लेकिन, इसका असर भारतीय महिलाओं पर क्या होता है, उसके हमें इसे जेंडर के नज़रिए से भी देखने की जरूरत है। ब्रेन ड्रेन को आमतौर पर जेंडर न्यूट्रल कहा जाता है यानी मौकों की तलाश में महिलाएं और पुरुष दोनों बाहर जाते हैं। लेकिन, सच यह है कि अमूमन माइग्रेशन का प्रकार और कई बार समय भी लैंगिक मानदंडों से प्रभावित होते है। माइग्रेशन पैटर्न जेंडर के आधार पर काफ़ी अलग-अलग होते हैं। साल 2024 में, भारत से आने वाले तीन प्रवासियों में से एक से अधिक महिलाएं थीं।

उनकी संख्या साल 1990 के 2.6 मिलियन से बढ़कर साल 2024 में 6.6 मिलियन हो गई। हालांकि पुरुष मुख्य रूप से जीसीसी देशों में प्रवास करते हैं, महिलाओं के संयुक्त राज्य अमेरिका में जाने की अधिक संभावना होती है। 2024 में, लगभग एक-चौथाई भारतीय प्रवासी महिलाएं संयुक्त राज्य अमेरिका में रहती थीं। विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत से बाहर 13.6 मिलियन अनिवासी भारतीय (एनआरआई), 18.68 मिलियन भारतीय मूल के व्यक्ति (पीआईओ) और लगभग 32.3 मिलियन भारत के विदेशी नागरिक (ओसीआई) रहते हैं, और प्रवासी भारतीय दुनिया के सबसे बड़े प्रवासी समुदाय का हिस्सा हैं। हर साल 2.5 मिलियन भारतीय विदेश जाते हैं, जो दुनिया में प्रवासियों की सबसे अधिक वार्षिक संख्या है।

कई पश्चिमी देशों में मातृत्व अवकाश, बेहतर वर्क-लाइफ बैलेंस और कार्यस्थल में समानता जैसे लाभ और कारक मिलते हैं, जिसके कारण अनेक भारतीय महिलाएं अन्य देशों जैसे फ़्रांस, अमेरिका, जर्मनी के कार्यस्थल को बेहतर मानती हैं।

क्या हैं भारतीय महिलाओं के प्रवास के कारण 

भारतीय महिलाओं के पलायन के कई कारण हैं। इनमें देश में सीमित करियर ग्रोथ, जेन्डर पे गैप, उच्च शिक्षा के अवसरों में कमी, पारिवारिक अपेक्षाएं, कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव, अनुपयुक्त कामकाजी वातावरण और अवैतनिक काम का बोझ शामिल हैं। इसके साथ ही, कई पश्चिमी देशों में मातृत्व अवकाश, बेहतर वर्क-लाइफ बैलेंस और कार्यस्थल में समानता जैसे लाभ और कारक मिलते हैं, जिसके कारण अनेक भारतीय महिलाएं अन्य देशों जैसे फ़्रांस, अमेरिका, जर्मनी के कार्यस्थल को बेहतर मानती हैं। इस विषय पर हमने डॉ वर्षा जैन (नाम बदला हुआ) जो एक विज्ञान के क्षेत्र में शोधकर्ता हैं, से बातचीत की।

तस्वीर साभार: Business Standard

उन्होंने भारत में पीएचडी की, लेकिन इसके बावजूद उन्हें शोध प्रोजेक्ट्स के लिए फंडिंग नहीं मिली। उन्हें लीडरशिप पदों की भूमिका को पाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इन सब से निराश होकर उन्होंने फ्रांस जाने का फ़ैसला किया। आज वे अपने इच्छानुसार प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं और एक शोध टीम का नेतृत्व भी कर रही हैं। लेकिन, यह सिर्फ़ एक वर्षा की कहानी नहीं है। यह उन हज़ारों भारतीय महिलाओं की कहानी है, जो विदेशों में उन अवसरों को ढूंढ रही हैं, जो उन्हें अपने देश में मिलनी चाहिए थी।

हालांकि पुरुष मुख्य रूप से जीसीसी देशों में प्रवास करते हैं, महिलाओं के संयुक्त राज्य अमेरिका में जाने की अधिक संभावना होती है। 2024 में, लगभग एक-चौथाई भारतीय प्रवासी महिलाएं संयुक्त राज्य अमेरिका में रहती थीं।

प्रतिभा के दम पर पलायन की दोहरी कीमत

पहली नज़र में यह प्रवास महिलाओं के लिए स्वतंत्रता का प्रतीक है। लेकिन इसका प्रभाव प्रवासी महिलाओं और देश में रह रही महिलाओं दोनों पर होते हैं। देश के वैतनिक कार्यबल में कामकाजी महिलाओं फीमेल टैलेंट को न रख पाना हमारी सामाजिक और राजनीतिक कमी को दिखाता है। महिलाओं को बेहतर अवसरों और बेहतर कामकाजी जीवन के लिए देश छोड़ना पड़ता है। इस प्रतिभा को न रोक पाने में भारतीय संस्थानों की असफलता और महिलाओं के कार्यस्थल अनुभवों की वास्तविकता को उजागर होती है। विदेश जाने पर भले ही महिलाओं को बेहतर शिक्षा और करिअर में बढ़ावा मिलता है, पर उनकी चुनौतियां ख़त्म नहीं होतीं।

महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद कम प्रतिनिधित्व रखती है। साल 2023 की हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू  की रिपोर्ट यह बताती है कि अश्वेत महिलाएं विशेष रूप से दक्षिण एशियाई महिलाओं को, अक्सर योग्य होने के बावजूद कार्यकारी पर्दों पर कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है। इसके कारण उच्च कुशल महिलाओं का करियर में आगे बढ़ना रुक जाता है। वहीं, भारत में रह जाने वाली महिलाओं को काफी संघर्षों का सामना करना पड़ता है। वहीं, देखा जाए तो प्रतिभाशाली युवाओं के लिए महिला रोल मॉडल्स की कमी भी है। इससे अनुसंधान एवं विकास और कॉर्पोरेट नेतृत्व में लैंगिक भेदभाव बढ़ता है और महिलाओं की भागीदारी और भी सीमित हो जाती है। 

महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद कम प्रतिनिधित्व रखती है। साल 2023 की हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू  की रिपोर्ट यह बताती है कि अश्वेत महिलाएं विशेष रूप से दक्षिण एशियाई महिलाओं को, अक्सर योग्य होने के बावजूद कार्यकारी पर्दों पर कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

वैतनिक कार्यबल में प्रतिभाशाली महिलाओं को नहीं मिल रहे मौके  

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2024 रिपोर्ट में  भारत को 146 देशों में  से 129th स्थान मिला है। आर्थिक भागीदारी में लैंगिक असमानता के कारण यह स्पष्ट होता है कि कैसे महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व और कम रोल मॉडल्स होने के कारण युवा महिलाओं को कई क्षेत्रों में करियर बनाने से हतोत्साहित करता है। यह भी समझ आता है कि देश में महिलाओं के लिए बराबरी के मौके अभी भी दूर हैं। इस विषय पर हमने देवांगी गुप्ता से बातचीत की। देवांगी गुप्ता की कहानी इस असमानता को जाहिर करती है। उन्होंने एक पब्लिक पॉलिसी कंसलटेंट के रूप में काम करते हुए भारत में अपना करियर बनाने की ठानी थी।

लेकिन, उन्होंने यह महसूस किया कि इस क्षेत्र में मेंटरिंग, सहयोग और अवसरों की बेहद कमी है। इस कारण उन्होंने विदेश में अपना करिअर आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। वह कहती हैं, “मुझे वहां अधिक उत्साहजनक और सहायक कामकाजी वातावरण मिला जहां मेरे योगदान को मान्यता मिली और मुझे आगे बढ़ने का मौका मिला।”  उनकी कहानी बताती है कि भारत भले ही प्रतिभाशाली महिलाओं को जन्म देता है, या उनके जीवन के शुरुआती दौर को तैयार करता है, लेकिन नीतिगत और प्रणालीगत बदलाव के बिना, देश अभी भी उन प्रतिभाओं को रोकने में और वैतनिक कार्यबल में शामिल करने में नाकामयाब हो रहा है।

देश के वैतनिक कार्यबल में कामकाजी महिलाओं फीमेल टैलेंट को न रख पाना हमारी सामाजिक और राजनीतिक कमी को दिखाता है। महिलाओं को बेहतर अवसरों और बेहतर कामकाजी जीवन के लिए देश छोड़ना पड़ता है।

कैसे प्रतिभाशाली महिलाओं को रोका जा सकता है

विकास और स्वतंत्रता के लिए ‘ब्रेन ड्रेन’ की ट्रेंड ने भारतीय महिलाओं को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरीकों से प्रभावित किया है। विदेश पलायन से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिए, हमें कई सुधार लाने की आवश्यकता है, जिनका उद्देश्य न सिर्फ इस प्रवृत्ति को बदलना हो, बल्कि स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाना भी हो। कार्यस्थल में नीतिगत बदलाव बहुत ज़रूरी है। ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है, जहां भेदभाव न हो। महिलाओं और पुरुषों को एक काम के लिए समान वेतन मिले और पदोन्नति उनके काम के आधार पर हो। साल 2015 की McKinsey की रिपोर्ट मुताबिक, अगर भारत में काम करने वाली महिलाओं और पुरुषों के बीच का फर्क खत्म हो जाए, तो साल 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था में 700 अरब डॉलर यानी बहुत बड़ी रकम जुड़ सकती थी। मैटरनिटी लीव और बेहतर कामकाजी माहौल, कामकाजी माँओं के साथ होने वाले भेदभाव को कम कर सकता है। अनुसंधान और नए विचारों पर काम करने के लिए निवेश करना भी जरूरी है। अगर देश लौटने वाली महिला शोधकर्ताओं के लिए अच्छी स्कॉलरशिप और रिसर्च के प्रावधान हों, तो वे भारत में अपना काम जारी रख सकती हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

भारत से बाहर रहने वाली महिलाओं को देश के मौकों से जोड़ने के लिए ऐसा नेटवर्क बनाया जा सकता है, जो उन्हें जानकारी दे और कार्यबल से जुड़ाव बनाए रखे। भारत की कई होनहार महिलाएं आज बेहतर काम के मौकों और सहयोगी माहौल की तलाश में विदेश जा रही हैं। यह प्रवास सिर्फ सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह देश में महिलाओं को मिलने वाले सीमित अवसरों की हकीकत भी दिखाता है। अगर हम इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे, तो भारत काबिल महिला पेशेवरों को हमें खोना पड़ेगा। महिला प्रतिभा को बनाए रखने के लिए सिर्फ वेतन बढ़ाना या सिर्फ आर्थिक लाभ देना ही काफ़ी नहीं है। इसके लिए समाज में बदलाव की जरूरत है जो महिलाओं के काम और योगदान को हर क्षेत्र में सम्मान दे। हमें ऐसी नीतियों की जरूरत है जो महिलाओं को समान वेतन, लीडरशिप के अवसर और सुरक्षित और सहयोगी कार्यस्थल जैसे बुनियादी अधिकार दे, जिससे उन्हें बराबरी का मौका मिले और वे आगे बढ़ सकें। जबतक ऐसे बदलाव नहीं होते, तबतक प्रतिभाशाली महिलाओं का पलायन सिर्फ ‘ब्रेन ड्रेन’ नहीं रहेगा।

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