इतिहास बानू मुश्ताक: अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली कन्नड़ भाषा की पहली लेखिका| #IndianWomenInHistory

बानू मुश्ताक: अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली कन्नड़ भाषा की पहली लेखिका| #IndianWomenInHistory

76 वर्षीय बानू एक प्रसिद्ध कन्नड़ लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील हैं। वे कन्नड़ भाषा में लिखने वाली पहली लेखिका, हैं जिन्होंने अपनी लघु कहानी संकलन, 'हार्ट लैंप' के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता है। 

जब हम भारत में महिलाओं के लेखन, उनके संघर्ष और आज़ादी की बात करते हैं, तो अक्सर कुछ महत्वपूर्ण नाम हमारे ज़ेहन से छूट जाते हैं। ये वे नाम हैं जो सिर्फ़ अपनी कलम से नहीं, बल्कि अपने पूरे अस्तित्व से समाज की पुरानी व्यवस्थाओं को चुनौती देते हैं। कर्नाटक की कार्यकर्ता, वकील और राइटर बानू मुश्ताक ऐसा ही एक नाम हैं। वे सिर्फ एक लेखिका नहीं हैं, बल्कि एक जीती-जागती सोच हैं। एक ऐसी सोच जो उस हर चुप्पी से टकराती है जिसे समाज ने मुसलमानों, महिलाओं और आज़ाद विचार रखने वालों पर थोप रखा है। उनका होना ही एक प्रतिरोध है, और उनका लिखना उस प्रतिरोध की एक सशक्त पहचान है। 76 वर्षीय बानू एक प्रसिद्ध कन्नड़ लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील हैं। वे कन्नड़ भाषा में लिखने वाली पहली लेखिका, हैं जिन्होंने अपनी लघु कहानी संकलन, ‘हार्ट लैंप’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता है। 

इनका जन्म साल 1948 में कर्नाटक के हासन जिले में एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू माध्यम से हुई, लेकिन आठ वर्ष की आयु में उन्होंने कन्नड़ भाषा में पढ़ाई शुरू की और छह महीने में उन्होंने कन्नड़ पढ़ना और लिखना सीख लिया। बानू ने गांव के मुस्लिम समाज में लिखने और पढ़ने का रास्ता चुना, जब उनके ज़्यादातर साथियों की शादी किशोरावस्था में हो रही थी। उन्होंने कॉलेज में दाखिला लिया और 26 साल की उम्र में अपनी पसंद से शादी की। शादी से पहले उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘नानू अपराधिये’ (क्या मैं दोषी हूं?) लिखी। लेकिन, फिर से लिखना शुरू करने से पहले उन्हें एक लंबा ब्रेक लेना पड़ा। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह पढ़ना-लिखना और रिसर्च करना चाहती थीं।

वोग इंडिया पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वह हमेशा से लिखना चाहती थी, लेकिन उनके पास लिखने के लिए कुछ भी नहीं था, क्योंकि अपनी मर्जी से शादी करने के बाद अचानक उन्हें बुर्का पहनने और घरेलू कामों में खुद को समर्पित करने के लिए कहा गया।

लेकिन शादी ने उनके इन सपनों और आज़ादी को जैसे एक भारी बोझ से दबा दिया था। उनको बचपन से ही लेखन में रुचि थी। वोग इंडिया पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वह हमेशा से लिखना चाहती थी, लेकिन उनके पास लिखने के लिए कुछ भी नहीं था, क्योंकि अपनी मर्जी से शादी करने के बाद अचानक उन्हें बुर्का पहनने और घरेलू कामों में खुद को समर्पित करने के लिए कहा गया। वह कहती हैं कि वह 29 साल की उम्र में प्रसवोत्तर अवसाद का सामना कर रही एक माँ बन गई थीं। लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी। 1980 के दशक में कर्नाटक के प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन ‘बांदाया साहित्य’ से जुड़कर उन्होंने लेखन की शुरुआत की, जो जाति और वर्ग असमानताओं के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला आंदोलन था।

सामाजिक अन्याय और महिलाओं के मुद्दों पर लेखन

तस्वीर साभार: BBC

उनका लेखन पितृसत्ता, धार्मिक भेदभाव, महिलाओं से जुड़े मुद्दों  और सामाजिक अन्याय जैसे मुद्दों पर केंद्रित है। वे उन चुनिंदा महिलाओं में से हैं, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय की आंतरिक चुनौतियों और महिलाओं के अधिकारों को बड़े साहस के साथ सार्वजनिक विमर्श में लाया। बानू ने साहित्य के माध्यम से न सिर्फ़ सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा, बल्कि मुस्लिम महिला होने के नाते जो दोहरा दमन झेलना पड़ता है, उसे भी बेबाक़ी से सामने रखा। वह पहले लंकेश पत्रिका नाम के एक अखबार में पत्रकार थीं। एक मुस्लिम महिला के रूप में उन्हें दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। एक तरफ धर्म से जुड़ी परंपराएं थीं जो औरत को पर्दे में बांध रही थी, तो दूसरी तरफ एक पुरुष-प्रधान समाज था, जो महिलाओं की आजादी के खिलाफ़ था। लेकिन उन्होंने इन दोनों व्यवस्थाओं से तर्क और हिम्मत से टकराया और उचित जवाब दिया।

बानू ने साहित्य के माध्यम से न सिर्फ़ सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा, बल्कि मुस्लिम महिला होने के नाते जो दोहरा दमन झेलना पड़ता है, उसे भी बेबाक़ी से सामने रखा।

वोग पत्रिका के अनुसार उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी उन लोगों से लड़ाई लड़ी जो उन्हें दबाना चाहते थे। लेखिका कहती हैं कि उनके आस-पास के मुस्लिम समुदाय के लोग उन्हें छोड़ना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि वह उनकी बुराइयां बता-बताकर तारीफ ले रही हैं। एक बार उनके दफ्तर में एक आदमी ने उनपर चाकू से हमला कर दिया था। यह एक एकल घटना नहीं है। उन्हें कई बार लोगों की नफरत और धमकियों का सामना करना पड़ा। हिन्दू में छपी एक रिपोर्ट अनुसार वह कहती हैं कि उनकी पहचान उनके हर उस शब्द के लिए जवाबदेह बनाती है, जिसका वे इस्तेमाल करती हैं। उन्हें अक्सर खुद को सेंसर करना पड़ता है। वह कहती हैं कि उन्हें हमेशा यह डर रहता है कि कोई कहानी गलत तरीके से समझी जा सकती है या विवाद पैदा कर सकती है, भले ही वह सिर्फ़ महिलाओं के अनुभवों के बारे में हो।

सरकार के अन्यायपूर्ण नीतियों पर सवाल

वह बताती है कि साल 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, उनके लिखने का तरीका बदल गया। उन्होंने महसूस किया कि सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय के अंदर की समस्याओं पर सवाल उठाना काफी नहीं है। उन्हें सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों को भी सामने लाना था क्योंकि इन समस्याओं से सबसे ज़्यादा महिलाएं ही परेशान होती हैं। इसके बाद साल 2000 में, उन्होंने और उनके परिवार के खिलाफ़ तीन महीने के ‘सामाजिक बहिष्कार’ की घोषणा की गई थी, क्योंकि उन्होंने मस्जिदों में मुस्लिम महिलाओं के प्रवेश के अधिकार का समर्थन किया था। इस वजह से उन्हें फोन पर धमकियां भी मिलने लगीं। इन चुनौतियों के बावजूद भी उन्होंने अपने लेखन को जारी रखा।  

वह बताती है कि साल 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, उनके लिखने का तरीका बदल गया। उन्होंने महसूस किया कि सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय के अंदर की समस्याओं पर सवाल उठाना काफी नहीं है। उन्हें सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों को भी सामने लाना था।

उनका लेखन और उनकी विरासत

पिछले कुछ वर्षों में बानू ने अपने लेखन के कारण कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार और दाना चिंतामणि अत्तिमाबे पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित स्थानीय और राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। साल 2024, साल 1990 और 2012 के बीच प्रकाशित उनके पांच लघु कहानी संग्रहों के अनुवादित अंग्रेजी संकलन- हसीना और अन्य कहानियों ने पेन इंग्लिश ट्रांसलेट अनुवाद पुरस्कार जीता है। उन्होंने साल 1990 से 2023 के बीच लघु कहानी संकलन ‘हार्ट लैंप’ जो 12 कहानियों का संग्रह लिखी, जिसे अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद दीपा भस्थी ने किया है। यह कहानियां दक्षिण भारत के पुरुषप्रधान समाज में रहने वाली महिलाओं के संघर्ष और कहानियों को दिखाता है और इनमें लोकभाषा की झलक साफ दिखाई देती है।

बानू मुश्ताक सिर्फ़ एक लेखिका नहीं, बल्कि एक आवाज़ हैं, जिन्होंने अपने जीवन के संघर्षों और लेखन के ज़रिए समाज की चुप्पियों को तोड़ा है। उन्होंने पितृसत्ता, धर्म, समाज की रूढ़ियों और दोहरे मानदंडों को खुलकर चुनौती दी। एक मुस्लिम महिला होने के नाते उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी और अपने शब्दों को हथियार बनाया। उनकी कहानियां उन लोगों के लिए उम्मीद की किरण हैं जो सत्ता से सवाल करते हैं और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं। उनके लिखे शब्द आज एक प्रेरणा हैं, खासकर उन महिलाओं के लिए जो अपने अस्तित्व और हक़ के लिए लड़ रही हैं।

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