इंटरसेक्शनलजेंडर महिला स्वास्थ्य पर सिर्फ 7 फीसद रिसर्च फंडिंग: वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम

महिला स्वास्थ्य पर सिर्फ 7 फीसद रिसर्च फंडिंग: वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े शोध पर कुल रिसर्च फंडिंग का केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है।

सदियों से संस्थागत और सामाजिक स्तर पर मौजूद लैंगिक असमानता, भेदभाव और रूढ़िवादिता का गहरा असर महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े रिसर्च पर दिखाई दिया है। हाल ही में जारी वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) और मैकिन्से हेल्थ इंस्टीट्यूट (MHI) की रिपोर्ट ब्लूप्रिंट टू क्लोज द वुमनस् हेल्थ गैप ने फिर से इस अंतर को स्पष्ट किया है। रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े शोध पर कुल रिसर्च फंडिंग का केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। यह आंकड़ा यह दिखाने के लिए काफी है कि महिलाओं के स्वास्थ्य को वैज्ञानिक और नीति-निर्माण के स्तर पर कितना कम महत्व दिया गया है। डब्ल्यूईएफ की साल 2024 की वार्षिक रिपोर्ट में यह जानकारी भी सामने आई है कि महिलाएं औसतन पुरुषों की तुलना में पांच साल अधिक जीवित रहती हैं। इसके बावजूद वे अपने जीवन का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा खराब स्वास्थ्य या किसी न किसी महिलाओं के जुड़े स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं।

विश्व स्तर पर महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल में गहरी लैंगिक असमानता मौजूद है। इस असमानता के पीछे कई कारण जैसेकि पूर्वाग्रह, स्वास्थ्य अनुसंधान में महिलाओं को प्राथमिकता न देना, जेंडर रिसर्च गैप, और महिला स्वास्थ्य पर होने वाले शोध में कम वित्तीय निवेश शामिल हैं। ये सभी कारण मिलकर एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं, जहां महिलाओं की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतें अक्सर अनदेखी रह जाती हैं। इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम ने 2025 में एक नीतिगत सुधार रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट का उद्देश्य महिला स्वास्थ्य अनुसंधान में व्याप्त जेंडर रिसर्च गैप और असमानताओं को खत्म करना है। रिपोर्ट में यह साफ तौर पर बताया गया है कि यदि स्वास्थ्य नीतियों में जरूरी और ठोस बदलाव किए जाएं, तो महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता और आयु दोनों में सुधार लाया जा सकता है। यह न केवल स्वास्थ्य के स्तर पर बल्कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी सकारात्मक प्रभाव डालेगा।

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) और मैकिन्से हेल्थ इंस्टीट्यूट (MHI) की रिपोर्ट ‘ब्लूप्रिंट टू क्लोज द वुमनस् हेल्थ गैप’ ने फिर से इस अंतर को स्पष्ट किया है। रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े शोध पर कुल रिसर्च फंडिंग का केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है।

महिलाओं के स्वास्थ्य का मतलब क्या है?

रिपोर्ट के अनुसार, यदि महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित शोध में जेंडर हेल्थ गैप को समाप्त किया जाए, तो साल 2040 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर सालाना की वृद्धि संभव है। रिपोर्ट बताती है कि महिला स्वास्थ्य अनुसंधान में मौजूद असमानताओं को उजागर करना केवल एक नैतिक जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह सभी के लिए बेहतर स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करने की दिशा में एक आवश्यक और व्यावहारिक कदम है। महिलाओं के स्वास्थ्य से मतलब उन विशेष स्वास्थ्य स्थितियों से है जो केवल महिलाओं को प्रभावित करती हैं, या फिर जो स्थितियां महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अलग और असमान तरीके से प्रभावित करती हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

आमतौर पर महिलाओं के स्वास्थ्य को केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य तक सीमित कर दिया जाता है। लेकिन यह रिपोर्ट इस नजरिए को चुनौती देती है और महिलाओं के स्वास्थ्य को एक व्यापक दृष्टिकोण से परिभाषित करती है। इसमें एंडोमेट्रियोसिस और मेनोपॉज़ जैसी स्वास्थ्य स्थितियों को शामिल किया गया है जो विशेष रूप से महिलाओं को ही प्रभावित करती हैं। इसमें वे स्थितियां भी शामिल हैं जो महिलाओं को अलग ढंग से प्रभावित करती हैं, जैसे कार्डियोमेटाबोलिक स्थितियां। इसके अलावा, इनमें उन बीमारियां को शामिल किया गया है जो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में असमान रूप से प्रभावित करती हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, यदि महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित शोध में जेंडर हेल्थ गैप को समाप्त किया जाए, तो साल 2040 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर सालाना की वृद्धि संभव है।

महिलाओं के स्वास्थ्य अनुसंधान में अंतर और असमानता

महिलाओं का शरीर पुरुषों से कई स्तरों पर जैसे शारीरिक अंगों, जीन, हार्मोन और जैविक प्रक्रियाओं में अलग होता है। इन सभी अंतर के कारण महिलाएं कई चिकित्सा स्थितियों का अनुभव पुरुषों की तुलना में अलग और अधिक जटिल रूप में करती हैं। इसके बावजूद चिकित्सा और स्वास्थ्य अनुसंधान में लिंग-विशिष्ट दृष्टिकोण की गंभीर कमी है। डब्ल्यूईएफ की 2025 की रिपोर्ट बताती है कि महिलाएं विश्व की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसके बावजूद, स्वास्थ्य अनुसंधान के लिए मिलने वाली कुल फंडिंग में से केवल 7 प्रतिशत फंडिंग ही ऐसी स्वास्थ्य स्थितियों पर खर्च की जाती है जो विशेष रूप से महिलाओं को प्रभावित करती हैं। यह असमानता सिर्फ फंडिंग तक सीमित नहीं है। जैसे, गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान उपयोग की जाने वाली दवाओं में से केवल 5 प्रतिशत दवाओं का ही इस विशेष स्थिति में सुरक्षित उपयोग के लिए समुचित परीक्षण, निगरानी और लेबलिंग की गई है। इसका मतलब है कि स्वास्थ्य प्रणाली और दवाइयों के उद्योग दोनों ही महिलाओं की जैविक और सामाजिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करते आए हैं।

पुरुष केंद्रित शोध का महिलाओं के स्वास्थ्य पर प्रभाव


कियर्नी की एक रिपोर्ट के अनुसार माइग्रेन जैसी स्वास्थ्य स्थितियां पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करती हैं। इसके बावजूद, इन स्थितियों के अधिकतर उपचार पुरुषों पर आधारित शोध और डेटा से तय किए जाते हैं। महिला शरीर की विशिष्ट जैविक प्रक्रियाओं को नजरअंदाज़ किया जाता है। 2025 की रिपोर्ट में बताया गया कि 52 माइग्रेन परीक्षणों में से केवल दो ने लिंग विभाजित परिणाम प्रकाशित किए हैं। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों में 95 फीसद हिस्सा उन बीमारियों का होता है, जो पुरुषों और महिलाओं दोनों को होती हैं। इसके उलट, महिलाओं के लिए विशिष्ट मानी जाने वाली स्थितियां—जैसे प्रजनन स्वास्थ्य, मातृत्व और एंडोमेट्रियोसिस पर महज 5 फीसद असर के लिए जिम्मेदार होती हैं।

गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान उपयोग की जाने वाली दवाओं में से केवल 5 प्रतिशत दवाओं का ही इस विशेष स्थिति में सुरक्षित उपयोग के लिए समुचित परीक्षण, निगरानी और लेबलिंग की गई है। इसका मतलब है कि स्वास्थ्य प्रणाली और दवाइयों के उद्योग दोनों ही महिलाओं की जैविक और सामाजिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करते आए हैं।

लैंगिक भेदभाव और देर से इलाज का संकट

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी


स्वास्थ्य अनुसंधान में इस तरह की लैंगिक असमानता के कारण महिलाओं को अक्सर गलत इलाज, देरी से उपचार और असहनीय दर्द का सामना करना पड़ता है। डब्ल्यूईएफ की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, महिला और पुरुष दोनों को प्रभावित करने वाली बीमारियों के अधिकतर शोधों में लिंग विभाजित डेटा नहीं दिया जाता। जैसे, माइग्रेन के केवल 7 फीसद और इस्केमिक हृदय रोग परीक्षणों के केवल 17 फीसद मामलों में ही जेंडर आधारित विश्लेषण प्रकाशित किया गया है। लिंग आधारित डेटा की यह कमी वैज्ञानिक शोध की क्षमता को कमज़ोर और कम प्रभावी बनाती है। इससे यह समझना मुश्किल होता है कि महिलाएं किसी विशेष बीमारी को कैसे अनुभव करती हैं।

नतीजन, महिलाओं को मिलने वाला इलाज अक्सर उनकी वास्तविक ज़रूरतों के अनुरूप नहीं होता। महिलाओं को होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं जैसे—एंडोमेट्रियोसिस, मेनोपॉज़, हृदय रोग, ऑटोइम्यून डिसऑर्डर और डिमेंशिया, क्लीनिकल रिसर्च में मान ली गई चुनौतियों की तुलना में कहीं अधिक जटिल हैं। जब इन बीमारियों को जेंडर के को ताक पर रखकर समझा जाता है, तो यह इलाज की गुणवत्ता और पहुंच दोनों को प्रभावित करता है। महिलाओं के लिए सुरक्षा जोखिम अधिक होने के कारण वे किसी दवा को बंद करने की संभावना में पुरुषों की तुलना में 3.5 गुना अधिक होती हैं। यह अंतर बताता है कि दवाओं के परीक्षणों और प्रभावों में महिलाओं की सहभागिता और आवश्यकताओं की उपेक्षा की गई है।

महिलाओं के लिए सुरक्षा जोखिम अधिक होने के कारण वे किसी दवा को बंद करने की संभावना में पुरुषों की तुलना में 3.5 गुना अधिक होती हैं। यह अंतर बताता है कि दवाओं के परीक्षणों और प्रभावों में महिलाओं की सहभागिता और आवश्यकताओं की उपेक्षा की गई है।

महिलाओं के स्वास्थ्य अनुसंधान में असमानता का असर

महिलाएं अपने जीवन का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा खराब स्वास्थ्य या किसी न किसी प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्या के साथ बिताती हैं। इसका एक बड़ा कारण स्वास्थ्य अनुसंधान में मौजूद संस्थागत लैंगिक असमानता है। इस लैंगिक असमानता को खत्म करने और महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के उद्देश्य से वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने एक नीतिगत सुधार रिपोर्ट जारी की है। मई 2025 में डब्ल्यूईएफ की इस रिपोर्ट के अनुसार, स्वास्थ्य अनुसंधान में महिलाओं की हिस्सेदारी को सुधारने के लिए महिला-केंद्रित स्वास्थ्य अनुसंधान को टैक्स छूट, सार्वजनिक-निजी निवेश और रिसर्च फंडिंग के माध्यम से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य शोधों, विशेष रूप से दिल और कैंसर से जुड़ी रिसर्च में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को क्लिनिकल ट्रायल में शामिल करना जरूरी है ताकि उनकी स्वास्थ्य जरूरतों को समझा जा सके और उन्हें उचित इलाज मिल सके।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

रिपोर्ट बताती है कि स्वास्थ्य डेटा को जेंडर के अनुसार वर्गीकृत करना एक अहम कदम है। महिलाओं की जैविक संरचना और सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए शोध की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। विशेष रूप से वंचित, ग्रामीण और गरीब समुदायों की महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि शोध अधिक समावेशी और उपयोगी बन सके। लैंगिक दृष्टिकोण को दवा के लेबल, पैकेजिंग और क्लिनिकल गाइडलाइंस में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही वैज्ञानिक प्रकाशनों में SAGER (Sex and Gender Equity in Research) दिशानिर्देशों को अपनाकर लैंगिक समानता सुनिश्चित की जा सकती है। डब्ल्यूईएफ की रिपोर्ट बताती है कि अगर महिला स्वास्थ्य अनुसंधान में मौजूद असमानता को खत्म किया जाए, तो साल 2040 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में हर वर्ष कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर का इज़ाफा हो सकता है। स्वस्थ महिलाएं न केवल अपने परिवारों को सशक्त बनाती हैं, बल्कि कार्यस्थलों और अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी होती हैं।

क्या है भारत का परिदृश्य

इस संदर्भ में भारत में भी स्थिति चिंताजनक है। जनवरी 2024 की एक्स्प्रेस हेल्थकेयर रिपोर्ट अनुसार, अगर भारत महिला स्वास्थ्य अनुसंधान में मौजूद लैंगिक असमानता को दूर करता है, तो देश की जीडीपी में $22 बिलियन का इज़ाफा हो सकता है। इसका सीधा असर न केवल स्वास्थ्य प्रणाली पर, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास पर भी पड़ेगा। स्वास्थ्य अनुसंधान में महिलाओं की उपेक्षा केवल एक वैज्ञानिक चूक नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक असमानता है, जिसे नीतिगत स्तर पर बदलने की ज़रूरत है। डब्ल्यूईएफ की रिपोर्ट इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो यह दिखाती है कि महिला स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना न केवल एक नैतिक ज़रूरत है, बल्कि आर्थिक रूप से भी लाभकारी है।

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