ग्रेव्स रोग एक प्रकार की ऑटोइम्यून बीमारी है, जिसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से थायरॉयड ग्रंथि पर हमला करने लगती है। इससे थायरॉयड ग्रंथि बहुत ज्यादा थायरॉयड हार्मोन बनाने लगती है, जिसे हाइपरथायरायडिज्म कहते हैं। ग्रेव्स रोग इसके सबसे आम कारणों में से एक है। यह रोग आमतौर पर 30 से 60 वर्ष की आयु के लोगों में पाया जाता है। हालांकि इससे कम उम्र के लोग भी प्रभावित हो सकते हैं। यह एक अनुवांशिक प्रवृत्ति बाली बीमारी है। इसके अलावा यह बीमारी हमारे आस-पास के वातावरण, शरीर में होने वाले हार्मोन के बदलाव और हमारी जीवनशैली से भी जुड़ी होती है।
मानसिक तनाव, धूम्रपान, संक्रमण और शरीर में हार्मोन का संतुलन बिगड़ना ये सभी इस बीमारी को बढ़ावा देने वाले मुख्य कारण माने जाते हैं। वैश्विक स्तर पर, ग्रेव्स रोग हाइपरथायरायडिज्म का सबसे आम कारण है। यह दुनिया के आयोडीन-समृद्ध भागों में हर साल 100,000 लोगों में से 20-30 लोगों में देखा जाता है। यह दुनिया भर में 3 फीसद महिलाओं और 0.5 फीसद पुरुषों को प्रभावित करता है। ग्रेव्स रोग किसी भी उम्र, लिंग या जातीयता के व्यक्ति को हो सकता है। इसके अलावा, गर्भावस्था और प्रसव के बाद की स्थिति भी इस रोग को बढ़ावा दे सकती है, खासकर उन महिलाओं में जिनके परिवार में पहले से यह बीमारी रही हो।
महिलाएं और मजबूत प्रतिरक्षा प्रणाली

ग्रेव्स रोग के लक्षण बहुत तरह के होते हैं और यह शरीर के कई हिस्सों को प्रभावित कर सकता है। इसके कुछ आम लक्षणों में अचानक वजन का कम होना, दिल की धड़कन तेज़ होना, घबराहट, चिड़चिड़ापन, थकान महसूस होना, नींद ठीक से न आना, और गर्मी बर्दाश्त न कर पाना शामिल हैं। इस बीमारी का एक खास लक्षण आंखों में बदलाव होता है, जिसे ग्रेव्स ऑप्थाल्मोपैथी कहा जाता है। इसमें आंखें थोड़ी बाहर की तरफ निकल आती हैं और जलन, सूजन, या डबल दिखाई देने जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ऐसा लगभग हर चार में से एक व्यक्ति में होता है, क्योंकि यह आंखों के आसपास की मांसपेशियों को प्रभावित करता है। ग्रेव्स से लगभग 25 फीसद लोगों में यह लक्षण दिखाई देते हैं, जो आंखों के आस-पास की मांसपेशियों को प्रभावित करता है। इस बीमारी से परेशान कुछ लोगों में त्वचा का रंग काला और मोटा हो सकता है, जो आमतौर पर पिंडलियों या पैरों के ऊपरी हिस्से पर दिखाई देता है।
यह दुनिया भर में 3 फीसद महिलाओं और 0.5 फीसद पुरुषों को प्रभावित करता है। ग्रेव्स रोग किसी भी उम्र, लिंग या जातीयता के व्यक्ति को हो सकता है। इसके अलावा, गर्भावस्था और प्रसव के बाद की स्थिति भी इस रोग को बढ़ावा दे सकती है, खासकर उन महिलाओं में जिनके परिवार में पहले से यह बीमारी रही हो।
त्वचा की बनावट संतरे के छिलके जैसी हो जाती है, जिसे ग्रेव्स डर्मोपैथी कहा जाता है। यह स्थिति त्वचा प्रोटीन के जमाव के कारण उत्पन्न होती है और हमेशा हल्की और पीड़ा दायक होती है। महिलाओं की प्रतिरक्षा प्रणाली प्राकृतिक रूप से अधिक सक्रिय होती है। इसमें एस्ट्रोजेन नाम का हार्मोन अहम भूमिका निभाता है। यह हार्मोन शरीर की प्रतिरक्षा को तेज करता है, जिससे महिलाओं में कुछ स्व-प्रतिरक्षित बीमारियां जैसे कि लुपस या थायरॉइड की समस्याएं ज्यादा देखने को मिलती हैं। इसके अलावा, महिलाओं के जीवन में गर्भावस्था, बच्चे का जन्म और रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज) जैसी अवस्थाएं आती हैं, जो हार्मोन में बदलाव लाती हैं। इन बदलावों की वजह से महिलाओं की प्रतिरक्षा प्रणाली कभी-कभी कमजोर या असंतुलित हो सकती है।
सौंदर्य का दबाव और महिलाओं की दोहरी चुनौती

साइंस डायरेक्ट के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 16.7 फीसद वयस्क आबादी ग्रेव्स रोग का सामना करते हैं। पूर्वी भारत में किए गए एक हालिया अध्ययन में, यह देखा गया है कि 43.2 फीसद लोग मेटाबोलिक सिंड्रोम से जूझ रहे हैं। यह देखा गया कि 52.2 फीसद महिलाओं और 34.2 फीसद पुरुषों में यह विकार था। ग्रेव्स रोग के मुख्य लक्षण सभी लिंगों में समान हो सकते हैं, लेकिन उनके प्रभाव और अनुभवों में साफ अंतर देखा जाता है। महिलाओं में अक्सर पीरियड्स का अनियमित होना, प्रेग्नेंसी से जुड़ी समस्याएं और सुंदरता को लेकर चिंता ज्यादा देखी जाती है।
वहीं, पुरुषों में यौनिक रूप से कमजोरी, मांसपेशियों का कमजोर होना और हड्डियों का घनत्व कम होना जैसे लक्षण ज़्यादा दिखाई देते हैं। महिलाएं अक्सर आंखों की सूजन, बाल झड़ने और वजन कम होने जैसी समस्याओं को लेकर मानसिक तनाव में रहती हैं। इसकी एक बड़ी वजह समाज में सौंदर्य से जुड़ी उम्मीदें होती हैं या पुरुष प्रधान समाज में हर एक महिला को शारीरिक रूप से सुंदर होने वाले ढांचे में फिट किया गया है जिसमे हर एक महिला पर सुंदर दिखने का दबाव साफ दिखाई देता है । दूसरी तरफ, पुरुषों में ऐसे मानसिक लक्षण कम देखे जाते हैं, लेकिन उन्हें भी मानसिक स्वास्थ्य समस्या और काम करने की ताकत में कमी जैसी दिक्कतें हो सकती हैं।
साइंस डायरेक्ट के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 16.7 फीसद वयस्क आबादी ग्रेव्स रोग का सामना करते हैं। पूर्वी भारत में किए गए एक हालिया अध्ययन में, यह देखा गया है कि 43.2 फीसद लोग मेटाबोलिक सिंड्रोम से जूझ रहे हैं। यह देखा गया कि 52.2 फीसद महिलाओं और 34.2 फीसद पुरुषों में यह विकार था।
गर्भावस्था के दौरान अगर ग्रेव्स रोग रहे, तो मां और बच्चे दोनों की सेहत को खतरा हो सकता है। इससे समय से पहले डिलीवरी, गर्भपात या बच्चे में थायरॉयड की समस्या हो सकती है। मां के शरीर में थायरॉक्सिन का ज्यादा स्तर प्लेसेंटा के जरिए बच्चे तक पहुंचता है, जिससे उसके विकास पर असर पड़ता है। यह स्थिति गर्भवती महिला में दिल की धड़कन रुकने और प्रीक्लेम्पसिया जैसी गंभीर समस्या का कारण बन सकती है। इसलिए प्रेग्नेंसी के दौरान थायरॉयड की नियमित जांच बहुत जरूरी होती है। अगर समय पर इलाज न हो, तो परेशानी बढ़ सकती है।
महिला-केंद्रित स्वास्थ्य नीति की जरूरत

ग्रामीण और कम आय वर्ग की महिलाएं इस रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, लेकिन उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करने में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इनमें आर्थिक निर्भरता, सामाजिक संरचना, निर्णय लेने की स्वतंत्रता की कमी और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता का अभाव प्रमुख हैं। चिकित्सा सेवाओं तक सीमित पहुंच के कारण अक्सर ग्रेव्स रोग का निदान तब होता है जब लक्षण गंभीर रूप ले चुके होते हैं। महिलाओं की पारंपरिक सामाजिक भूमिकाएं, जैसे घरेलू जिम्मेदारियां, उन्हें स्वयं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने से रोकती हैं।
गर्भावस्था के दौरान अगर ग्रेव्स रोग एक्टिव रहे, तो मां और बच्चे दोनों की सेहत को खतरा हो सकता है। इससे समय से पहले डिलीवरी, गर्भपात या बच्चे में थायरॉयड की समस्या हो सकती है। मां के शरीर में थायरॉक्सिन का ज्यादा स्तर प्लेसेंटा के जरिए बच्चे तक पहुंचता है, जिससे उसके विकास पर असर पड़ता है।
ग्रेव्स रोग के संदर्भ में एक समावेशी और लैंगिक दृष्टिकोण वाली स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है, जो विशेष रूप से महिलाओं की जैविक, सामाजिक और मानसिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखे। यह रोग महिलाओं में पुरुषों की तुलना में अधिक पाया जाता है, फिर भी इससे संबंधित जागरूकता और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सीमित है, विशेषकर ग्रामीण और शहरी गरीब क्षेत्रों में। इसलिए इन क्षेत्रों में महिलाओं के लिए लक्षित स्वास्थ्य शिविरों का नियमित आयोजन आवश्यक है, जहां निशुल्क थायरॉयड जांच, उपचार परामर्श और अनुवर्ती सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकें साथ ही मानसिक प्रभाव, जैसे चिंता, अवसाद और आत्म-छवि से जुड़ी समस्याओं को भी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। इसके लिए समर्पित परामर्श केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए, जो महिलाओं को एक सुरक्षित और सहानुभूतिपूर्ण वातावरण में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करें। इसके साथ ही, महिलाओं को इस रोग के लक्षणों, दीर्घकालिक प्रभावों और उपचार के विभिन्न विकल्पों के बारे में जागरूक करना आवश्यक है, ताकि वे समय रहते उचित कदम उठा सकें।
लैंगिक समझ के साथ ग्रेव्स रोग का इलाज

हाल के वर्षों में ग्रेव्स रोग पर अनुसंधानों ने आनुवंशिक और इम्यूनोलॉजिकल पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया है। विशेष रूप से, लैंगिक रूप से विशिष्ट चिकित्सा की दिशा में शोध हो रहे हैं, जिससे महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित और प्रभावी उपचार सुनिश्चित किए जा सकें। इसके अलावा, हार्मोनल परिवर्तनों के दौरान रोग के व्यवहार और प्रतिक्रिया की गहराई से समझ विकसित करने के प्रयास भी चल रहे हैं। आशा है कि निकट भविष्य में ऐसी चिकित्सा प्रणाली विकसित की जा सकेगी, जो लिंग, उम्र और सामाजिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को उपचार प्रदान करे। यह एक जटिल जैविक, सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्या है, जिसकी अभिव्यक्ति और प्रभाव लैंगिक दृष्टिकोण से भिन्न होते हैं। इसका प्रभाव केवल शारीरिक नहीं, बल्कि प्रजनन स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति और सामाजिक भूमिकाओं पर भी गहरा पड़ता है। महिलाओं की जीवनशैली, हार्मोनल संरचना और स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सीमित पहुंच इस बीमारी को एक गंभीर लैंगिक स्वास्थ्य चुनौती बना देती है।
इसलिए आवश्यकता है कि स्वास्थ्य नीति, चिकित्सा प्रणाली और समाज मिलकर इस रोग को लिंग-संवेदनशील दृष्टिकोण से समझें और इसके निदान एवं उपचार की रणनीतियों को दोबारा परिभाषित करें। यदि ग्रामीण और शहरी गरीब क्षेत्रों में महिलाओं के लिए विशेष स्वास्थ्य शिविर लगाए जाएं, मानसिक परामर्श सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं, और स्वास्थ्यकर्मियों को लैंगिक समझ के साथ प्रशिक्षित किया जाए, तो यह एक महत्वपूर्ण सकारात्मक शुरुआत हो सकती है। हमें स्वास्थ्य को केवल बीमारी के इलाज तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे सामाजिक, मानसिक और लैंगिक नजरिए से समझना जरूरी है। ऐसा समग्र दृष्टिकोण ही हमें असली समानता और सबके लिए स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित करने में मदद करेगा, और खासकर महिलाओं के संपूर्ण स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभाएगा ।

