एक कामकाजी महिला आम तौर पर अपने परिवार और करियर के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में लगी रहती है। फिर अपने जीवन के 50वें दशक में जब घर-परिवार और नौकरी के बीच कुछ हद तक संतुलन बनने लगता है, वह कॅरियर में उस मुकाम तक पहुंच जाती है कि वहां की परिस्थितियों को संभालना आसान हो जाता है, ऐसे में महिलाएं मेनोपॉज़से गुजरती हैं और चीजें अचानक से दोबारा बदलने लगती हैं। शरीर थकने लगता है, नींद कम आती है और चिड़चिड़ापन स्वभाव का हिस्सा बनने लगता है। कई महिलाओं को इस दौरान हॉट फ्लैशेस, मूड स्विंग या अन्य शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्या का सामना भी करना पड़ सकता है। आमतौर पर इस बदलाव को न तो महिला ख़ुद समझ पाती है न ही उसे ऐसा माहौल मिल पाता है कि वह इसके बारे में किसी से खुलकर बात कर सके। ज़्यादातर महिलाओं को इस बदलाव से अकेले ही सामना करना पड़ता है।
यही वह समय होता है जब एक महिला करिअर के ऊंचाइयों पर पहुंचने के करीब होती है, लेकिन अचानक से ख़ुद को एक कोने में सिमटा हुआ पाती है। ऐसी तनावपूर्ण शारीरिक और मानसिक स्थिति में वह ठीक से काम नहीं कर पाती जिससे उसकी योग्यता और प्रोडक्टिविटी पर भी सवाल उठने लगते हैं। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास कम होने लगता है और वह ख़ुद को कम आंकना करना शुरू कर देती है। भारत जैसे देशों में जहां पहले से ही वैतनिक श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कम है, वहां मेनोपॉज़ पे गैप जैसे मुद्दों पर चुप्पी गहरा असर डालती है। प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो की रिपोर्ट अनुसार, साल 2022-23 के दौरान महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी दर (एलएफपीआर) 37 फीसद हो गई है। इसके बावजूद ‘मेनोपॉज़ पे गैप’ जैसे ज़रूरी मुद्दे को नज़रअंदाज करना लैंगिक भेदभाव को और बढ़ाने का काम करता है। मेनोपॉज़ महिलाओं में होने वाली एक सहज जैविक प्रक्रिया है, जिससे सभी महिलाओं को जीवन में एक बार गुज़रना पड़ता है।
इंस्टीट्यूट फॉर फिस्कल स्टडीज की 2024 की एक रिपोर्ट में भी पाए गए जिसके अनुसार, मेनोपॉज़ के दौरान महिलाओं की औसत आमदनी उनके समकक्ष पुरुषों की तुलना में 20 फीसद कम हो जाती है। इसके पीछे की वजह मेनोपॉज से जुड़ी चुनौतियां तो होती ही हैं, साथ ही इसके लिए कार्यस्थल पर कोई अलग से इंतजाम न होना और अनदेखा किया जाना भी शामिल है।
मेनोपॉज़ पे गैप क्या है?
आमतौर पर मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच होता है लेकिन कुछ मामलों में यह थोड़ा आगे-पीछे भी हो सकता है। मेनोपॉज़ में महिलाओं के शरीर में प्रोजेस्ट्रॉन और एस्ट्रोजन जैसे हार्मोन्स का स्तर कम हो जाता है, जिस वजह से बहुत सारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याएं हो सकती हैं। मेनोपॉज़ एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया है। इस दौरान स्वास्थ्य से जुड़ी कई शारीरिक और मानसिक समस्याएं सामने आती हैं। कार्यस्थलों पर इस दौर को लेकर संवेदनशीलता और समर्थन की कमी के कारण महिलाएं अक्सर काम छोड़ने या कम घंटों में काम करने के लिए मजबूर होती हैं। इससे उनकी आमदनी में भारी गिरावट आती है, जिसे ‘मेनोपॉज़ पे गैप’ कहा जाता है। यह अंतर महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को प्रभावित करता है और उनके करियर विकास को भी बाधित या प्रभावित करता है।

इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित खबर में छपी के हालिया शोध में पाया गया कि मेनोपॉज़ के दौरान महिलाओं की आमदनी में गिरावट 4.3 फीसद से बढ़ते-बढ़ते इसके चौथे वर्ष तक 10 फीसद तक पहुंच जाती है। यह गिरावट काम के घंटों और कार्यबल में भागीदारी की कमी की वजह से होती है, जिसके पीछे मेनोपॉज़ के दौरान होने वाली शारीरिक और मानसिक समस्याएं होती हैं। कुछ इसी तरह के आंकड़े इंस्टीट्यूट फॉर फिस्कल स्टडीज की 2024 की एक रिपोर्ट में भी पाए गए जिसके अनुसार, मेनोपॉज़ के दौरान महिलाओं की औसत आमदनी उनके समकक्ष पुरुषों की तुलना में 20 फीसद कम हो जाती है। इसके पीछे की वजह मेनोपॉज से जुड़ी चुनौतियां तो होती ही हैं, साथ ही इसके लिए कार्यस्थल पर कोई अलग से इंतजाम न होना और अनदेखा किया जाना भी शामिल है।
अनलीश फॉरवर्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ पे गैप की वजह से एक महिला को उसके पूरे कॅरियर में 1 मिलियन डॉलर से ज़्यादा का नुकसान होता है। इसी तरह मेनोपॉज़ के दौरान होने वाली समस्याओं की वजह से कनाडा की अर्थव्यवस्था को सालाना लगभग 3.5 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है।
कार्यस्थल पर चुनौतियां
हमारे समाज में पीरियड, प्रेग्नेंसी, यौनिकता और मेनोपॉज़ जैसे विषयों पर खुलकर बात नहीं होती है और इन्हें टैबू के तौर पर देखा जाता है। इस वजह से महिलाएं अक्सर इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाती हैं। मेनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं के लिए छुट्टी या समर्थन मांगने पर महिलाओं को या तो मिलता नहीं या उन्हें ये डर लगा रहता है कि कहीं उन्हें इस आधार पर कमज़ोर, अयोग्य या कम योग्य न समझा जाए। मेनोपॉज़ से जुड़ी शर्म और झिझक के कारण भी महिलाएं चुप रहती हैं। न तो कार्यस्थल पर न ही घर-परिवार में इस बारे में किसी से खुलकर बात करना मुमकिन हो पता है जिस वजह से चुनौती और बढ़ जाती है। कंपनियां भी उम्मीद करते हैं कि यह एक सामान्य बात है और महिलाओं को इससे ख़ुद ही निपटना चाहिए। असंगठित क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाली महिलाओं के लिए ये और भी चुनौतीपूर्ण समय होता है जब वे चाहकर भी छुट्टी या समर्थन की मांग नहीं कर सकती। हालांकि कुछ सरकारी और निजी क्षेत्रों में मातृत्व अवकाश और पीरियड लीव्स भी मिलती है।
लेकिन मेनोपॉज़ अबतक मुख्यधारा की चर्चा से दूर है। इस वजह से कॅरियर के अच्छे मुकाम पर पहुंच चुकी महिलाओं के लिए आगे बढ़ाने के मौके सीमित हो जाते हैं और इसका असर उनके आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में एक निजी क्षेत्र में काम करने वाली 47 वर्षीय सुजाता (बदला हुआ नाम) अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “प्राइवेट सेक्टर में इस उम्र तक आते-आते कर्मचारियों की सैलरी और न बढ़ानी पड़े, इस वजह से कंपनी अक्सर छोटे-मोटे बहानों से छंटनी करती रहती है। ऐसे में एक महिला होने से चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। हमें अपनी उपयोगिता को हर दिन साबित करते रहना पड़ता है। मेनोपॉज़ और उससे जुड़ी समस्याओं से पहले तो हमें किसी तरह अपनी नौकरी बचाए रखने की चिंता होती है। इसका असर सेहत पर पड़ता है और चिड़चिड़ापन, नींद न आना जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं जिसका असर पारिवारिक रिश्तों पर भी पड़ता है।”
प्राइवेट सेक्टर में इस उम्र तक आते-आते कर्मचारियों की सैलरी और न बढ़ानी पड़े, इस वजह से कंपनी अक्सर छोटे-मोटे बहानों से छंटनी करती रहती है। ऐसे में एक महिला होने से चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। हमें अपनी उपयोगिता को हर दिन साबित करते रहना पड़ता है। मेनोपॉज़ और उससे जुड़ी समस्याओं से पहले तो हमें किसी तरह अपनी नौकरी बचाए रखने की चिंता होती है।
मेनोपॉज़ पे गैप का असर

मेनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं की वजह से महिलाएं नियमित तौर पर नौकरी नहीं कर पाती हैं। ख़ासतौर पर निजी और असंगठित क्षेत्रों की महिलाओं पर इसका ज़्यादा असर देखा जा सकता है। अक्सर इस दौरान महिलाएं पार्ट टाइम नौकरी करने, नौकरी से छुट्टी लेने या पूरी तरह से काम छोड़ देने के लिए मजबूर हो जाती हैं, जिससे उनकी आमदनी, बचत, पेंशन और आर्थिक सुरक्षा पर असर पड़ता है। इसी तरह रेहड़ी लगाने वाली या अपना ख़ुद का छोटा-मोटा बिजनेस करने वाली महिलाएं मेनोपॉज़ के दौरान अपनी पूरी क्षमता का उपयोग अपने काम में नहीं कर पाती हैं। इस वजह से या तो उनकी आमदनी कम हो जाती है या पूरी तरह से बंद हो जाती है, जिसका असर आर्थिक के साथ-साथ उनकी मानसिक सेहत पर भी पड़ता है। इस दौरान सेहत संबंधी जटिलताओं की वजह से जब उन्हें इलाज, काउंसलिंग और देखभाल के लिए और अधिक पैसों की ज़रूरत होती है, ऐसे में आमदनी का कम होना या बंद होना इनकी चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देता है।
मेनोपॉज़ एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया है। इस दौरान स्वास्थ्य से जुड़ी कई शारीरिक और मानसिक समस्याएं सामने आती हैं। कार्यस्थलों पर इस दौर को लेकर संवेदनशीलता और समर्थन की कमी के कारण महिलाएं अक्सर काम छोड़ने या कम घंटों में काम करने के लिए मजबूर होती हैं। इससे उनकी आमदनी में भारी गिरावट आती है, जिसे ‘मेनोपॉज़ पे गैप’ कहा जाता है।
अनलीश फॉरवर्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ पे गैप की वजह से एक महिला को उसके पूरे कॅरियर में 1 मिलियन डॉलर से ज़्यादा का नुकसान होता है। इसी तरह मेनोपॉज़ के दौरान होने वाली समस्याओं की वजह से कनाडा की अर्थव्यवस्था को सालाना लगभग 3.5 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है। इसके अलावा महिलाओं को अपनी कमाई के अहम सालों में मेनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं की वजह से 2.3 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। इससे उनके कॅरियर का विकास रुक जाता है, साथ ही इनकी सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है। भारत में मेनोपॉज़ को लेकर पहले ही जागरूकता बहुत कम है, यहां परिवार और समाज में इस मुद्दे पर चर्चा करना अब आज भी चुनौती बना हुआ है। किसी भी समस्या के बारे में जबतक खुलकर बात नहीं होगी तबतक उसका समाधान कर पाना मुश्किल है। गांवों और शहरों दोनों में महिलाओं को इसे छुपाना पड़ता है। शहरी कामकाजी महिलाएं इसलिए भी इस विषय पर बात नहीं कर पाती हैं कि इस आधार पर उन्हें कमज़ोर या कम योग्य न समझा जाए।
क्या हो सकता है समाधान
मेनोपॉज़ पे गैप केवल महिलाओं का मसला नहीं है बल्कि यह संस्थान की समग्र उत्पादकता, कार्यस्थल की समावेशी विविधता और देश के आर्थिक विकास से जुड़ा मामला भी है। इसके लिए सरकार, सरकारी और निजी संस्थान, परिवार और समाज सबको एक साथ मिलकर काम करना होगा और ठोस कदम उठाने होंगे। सरकार और संस्थानों को मेनोपॉज़ पे गैप ख़त्म करने के लिए ख़ासतौर पर नीतियां बनाने ऐर उसलपर अमल करने की ज़रूरत है। इसके लिए काम के लचीले घंटे कार्यस्थल पर आरामदायक और सुविधाजनक माहौल, काउंसलिंग और मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध कराना ज़रूरी है। इसके साथ ही ज़रूरत पड़ने पर पेड लीव देने पर भी विचार करना चाहिए। संस्थानों में इसके लिए अलग से ट्रेनिंग, सेमिनार और वर्कशॉप भी आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे सहकर्मी इसके प्रति संवेदनशील बन सकें। इसके साथ ही समाज में मेनोपॉज़ जैसे विषयों पर खुलकर बातचीत करने को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे महिलाएं अपनी क्षमता और प्रतिभा का इस्तेमाल कर न सिर्फ़ अपने बल्कि समाज और देश के विकास में भी योगदान दे सकें।