आज का समय ऐसा है जहां पर्यावरण की बात करना ट्रेंड बन चुका है। हर ब्रांड और संस्था सस्टेनेबिलिटी और हरियाली की बातें कर रही है। सोशल मीडिया पर हरे पत्तों, पेड़ों, पृथ्वी की तस्वीरों और गो-ग्रीन स्लोगन की भरमार है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह चिंता क्या असली है या सिर्फ दिखावा? आम तौर पर कंपनियां सिर्फ प्रचार के लिए खुद को पर्यावरण अनुकूल बताती हैं, जबकि असल में वे पर्यावरण, श्रमिकों और हाशिए के समुदायों का शोषण कर रही होती हैं। वे भारी मात्रा में अपने प्रोडक्ट मार्केटिंग कर रहे होते हैं। इस प्रवृत्ति को ग्रीन वॉशिंग कहते हैं। कॉर्पोरेट संरचना में पितृसत्ता इतनी गहराई से जमी हुई है कि महिलाओं का श्रम, निर्णयों में भागीदारी और पारंपरिक ज्ञान लगातार अनदेखा किया जा रहा है। जब ग्रीन वॉशिंग और कॉर्पोरेट पितृसत्ता एक साथ मिलते हैं, तो सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ता है। खासतौर पर उन महिलाओं पर जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक या जतीया तौर पर हाशिए पर हैं।
कंपनियां महिलाओं को एक विशेष टारगेट ऑडियंस के रूप में देखती हैं क्योंकि बाज़ार में महिलाएं खरीदार भी हैं और उपभोक्ता भी जो अक्सर घरेलू कामों में इस्तेमाल की जाने वाली चीजें खरीदती हैं और इस्तेमाल करती हैं। महिलाओं पर अक्सर यह दबाव देखा जाता है कि वे ऑर्गेनिक चीजों का ज्यादा इस्तेमाल करना है। उदाहरण के लिए, पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर डालते हुए, ऑर्गेनिक उत्पादों को खरीदने या इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है या सामान्य सा कचड़े का प्रबंधन भी महिलाओं को करने को कहा जाता है। कंपनियां मार्केटिंग तौर पर, विज्ञापन हर उस महिला के दिमाग में घर कर जाते हैं जिन पर पर्यावरण और परिवार दोनों को संभालने का बोझ होता है, उन्हें लगने लगता है कि विज्ञापन वाला प्रोडक्ट अच्छा है इससे हमारे शरीर और पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होगा ।
पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर डालते हुए, ऑर्गेनिक उत्पादों को खरीदने या इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है या सामान्य सा कचड़े का प्रबंधन भी महिलाओं को करने को कहा जाता है।
पर्यावरण की चिंता या रणनीति ?

ग्रीन वॉशिंग एक ऐसी रणनीति है जिसमें कंपनियां या संस्थाएं अपने उत्पादों और सेवाओं को पर्यावरण के अनुकूल दिखाने की कोशिश करती हैं, जबकि जमीनी स्तर पर वे पर्यावरण को बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही होतीं। कंपनियां अपने प्रोडक्ट को दूसरी कंपनियों से बेहतर बताने के लिए इको-फ्रेंडली, सस्टेनेबल, बायोडिग्रेडेबल जैसे शब्दों का इस्तेमाल करती हैं, भले ही उसका वास्तविक आधार हो या न हो। लेकिन इससे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर मुनाफा कमाना आसान हो गया है क्योंकि जैसे ही उपभोक्ताओं में पर्यावरण को लेकर जागरूकता बढ़ती है, कंपनियां उस भावना का फायदा उठाकर ग्रीन प्रोडक्ट्स के नाम पर महंगे सामान बेचती हैं और इससे उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाती हैं कि वे एक बेहतर चीज का चुनाव कर रहे हैं। आम जनता इसकी शिकार हो रही है।आजकल जलवायु संकट के नाम पर लगभग हर बड़ी कंपनी अपने आप को एक जिम्मेदार और हरित ब्रांड के रूप में पेश करना चाहती है ।
कंपनियां अपने विज्ञापनों में पेड़-पौधे, पहाड़, साफ हवा दिखाकर एक आदर्श छवि बनाती हैं और यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि हमारे प्रोडक्ट 100 फीसद ऑर्गेनिक हैं इससे पर्यावरण को कोई भी नुकसान नहीं होगा असल में ऐसा नहीं है सच्चाई इसके विपरीत है। भारत की बहुत सी कंपनियां प्लास्टिक इस्तेमाल न करने का दावा करती हैं, नेस्ले भी इन कंपनियों में से एक है। नेस्ले ने 2018 में यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि वह 2025 तक अपनी सभी पैकेजिंग को पूरी तरह से रिसाइक्लेबल या रियूजेबल बनाएगी। लेकिन, ब्रेक फ्री फ्रॉम प्लास्टिक की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, कोका-कोला, पेप्सीको और नेस्ले लगातार तीसरे साल में दुनिया की सबसे बड़ी प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों में शामिल रहीं। इस रिपोर्ट में 55 देशों से 346,494 प्लास्टिक कचरे के टुकड़े इकट्ठे किये गए हैं। इसके अलावा भारत के कपड़ा बाजार में करीब 60 फीसद हिस्सा पॉलिएस्टर जैसे सिंथेटिक फाइबर का है। ये फाइबर प्लास्टिक से बनाए जाते हैं और पानी में जाकर माइक्रोप्लास्टिक बन जाते हैं जो पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी नुकसान पहुंचा रहे हैं यहां तक कि यह अब इंसान के शरीर में भी पाया जा रहा है।
नेस्ले ने 2018 में यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि वह 2025 तक अपनी सभी पैकेजिंग को पूरी तरह से रिसाइक्लेबल या रियूजेबल बनाएगी। ब्रेक फ्री फ्रॉम प्लास्टिक की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, कोका-कोला, पेप्सीको और नेस्ले लगातार तीसरे साल में दुनिया की सबसे बड़ी प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों में शामिल रहीं।
ऑर्गेनिक सुंदरता का झांसा

समाज में उस महिला को ज्यादा तवज्जो दी जाती है जो दिखने में सुंदर होती है।अक्सर हम अपने आस-पास यह देख सकते हैं कि जो महिला समाज के सुंदरता वाले ढांचे में फिट नहीं बैठती उनका बहुत ज्यादा मज़ाक बनाया जाता है, चाहे फिर वो रंग के आधार पर हो या शरीर के आधार पर हो। इस भेदभाव में यह ऑर्गेनिक प्रोडक्ट वाले विज्ञापन या प्रचार बहुत अहम भूमिका निभा रहे हैं। जिसमे महिलाओं को सुंदर और पतला बनाने के सस्टेनेबल प्रोडक्ट शामिल हैं जो आए दिन भारी मात्रा में खरीदे और बेचे जा रहे हैं। जैसे स्किन लाइटनिंग क्रीम, फैट बर्निंग टी, डिटॉक्स ड्रिंक्स, और नेचुरल स्लिमिंग सप्लीमेंट्स जैसे प्रोडक्ट्स को ऑर्गेनिक, इको-फ्रेंडली टैग के साथ प्रमोट किया जाता है। इनका असली मकसद महिलाओं के शरीर को एक खास सुंदरता के पैमाने में ढालना है जो सुंदरता, पितृसत्ता और उपभोक्तावाद का मेल है। जिस तरह से समाज की सुंदरता वाली सोच महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल रही है उसी तरह ऑर्गेनिक प्रोडक्ट, जो सिर्फ नाम के लिए ऑर्गेनिक हैं महिलाओं के शरीर पर गहरा प्रभाव डाल रहे हैं ।
फाइनेंशियल एक्सप्रेस में प्रकाशित एक हालिया शोध में वैज्ञानिकों ने साल 2022 में बने भारत में बिकने वाले 45 फेस वॉश, फेस स्क्रब, शॉवर जेल और बॉडी स्क्रब जैसे व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों की जांच की। इन सभी उत्पादों को प्राकृतिक या पर्यावरण के अनुकूल कहकर बेचा जा रहा था। लेकिन जब इनका गहराई से विश्लेषण किया गया, तो पता चला कि इनमें से करीब 23 फीसद उत्पादों में सेल्यूलोज माइक्रोबीड्स मौजूद थे। ये माइक्रोबीड्स पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं, क्योंकि यह साफ नहीं था कि ये पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं या नहीं।
साल 2022 में बने भारत में बिकने वाले 45 फेस वॉश, फेस स्क्रब, शॉवर जेल और बॉडी स्क्रब जैसे व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों की जांच की। इन सभी उत्पादों को प्राकृतिक या पर्यावरण के अनुकूल कहकर बेचा जा रहा था। लेकिन जब इनका गहराई से विश्लेषण किया गया, तो पता चला कि इनमें से करीब 23 फीसद उत्पादों में सेल्यूलोज माइक्रोबीड्स मौजूद थे।
लैंगिक असमानता

ऑर्गेनिक और इकोफ्रेंडली संगठन और कंपनियां अक्सर पर्यावरण के साथ-साथ न्याय, सस्टेनेबिलिटी और समानता की बात करती हैं। बहुत सी कंपनियां ऐसी हैं जो सिर्फ ग्रीनवॉशिंग करती हैं यानी पर्यावरण या सामाजिक जिम्मेदारी की बातें तो करती हैं, लेकिन अंदर ही अंदर पितृसत्तात्मक भेदभाव बनाए रखती हैं। काम की जगहों में जहां महिलाएं काम करती हैं आज भी बराबरी के लिए संघर्ष कर रही हैं। इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू के एक रिसर्च पेपर के अनुसार भारतीय कपड़ा उद्योग में 45 मिलियन लोग काम करते हैं जिनमें से 60 प्रतिशत महिलाएं हैं।सस्टेनेबल फैशन उद्योग को बढ़ाने में भी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कार्यरत है। यह उद्योग सस्टेनेबल फैशन को हमेशा से ही बढ़ावा देते आए हैं। इन उद्योगों में पर्यावरण के अनुकूल और रिसाइकल होने वाली चीजें बनती है। इसके निर्माण का मुख्य लक्ष्य पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करते हुए बाजार बनाना है।
महिलाएं शुरू से लेकर अबतक सबसे ज्यादा इससे जुड़ी हुई हैं। इन कामों में कॉन्ट्रैक्ट वर्क, पीस रेट या (एक जोड़ी के हिसाब से भुगतान) होता है, जो बहुत ज्यादा शोषणकारी होता है। भले ही महिलाएं उत्पाद बनाती हैं, पर मुनाफा, मार्केटिंग और ब्रांडिंग का कंट्रोल किसी संगठन या कंपनी के पुरुष संचालक या संस्था प्रमुख के पास होता है। कंपनियां और संगठन अक्सर दावा करते हैं कि हम महिलाओं को रोजगार दे रहे हैं लेकिन जब वेतन शोषणकारी होता है, तो यह रोजगार नहीं, शोषण बन जाता है। उनके बनाए गए समान को बाजार में दोगुने रेट में बेचा जाता है। उदाहरण के लिए जब गांव में महिलाएं आचार, पापड़ या हाथ से बने हुए कोई समान बनाती हैं तो उन्हें पारंपरिक रूप से घर का काम माना जाता है। इसलिए बाजार या संगठनों में भी इनका मूल्य कम आंका जाता है। महिला श्रमिकों की मेहनत को अनदेखा कर दिया जाता है। जब ग्रामीण इलाकों या कस्बों में पीने के पानी की कमी होती है तब सिर्फ महिलाएं ही घर से बाहर पानी भरने जाती हैं ।
इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू के एक रिसर्च पेपर के अनुसार भारतीय कपड़ा उद्योग में 45 मिलियन लोग काम करते हैं जिनमें से 60 प्रतिशत महिलाएं हैं।सस्टेनेबल फैशन उद्योग को बढ़ाने में भी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कार्यरत है।
भारत एक एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है, 2011 की जनगणना के अनुसार कुल कार्यबल का लगभग 54.6 फीसद कृषि क्षेत्र की गतिविधियों में लगा हुआ है राष्ट्रीय औद्योगिक वर्गीकरण 2008 के अनुसार अखिल भारतीय स्तर पर श्रमिकों का अनुमानित प्रतिशत वितरण दिखाता है कि 38.1 फीसद पुरुष और 62.9 फीसद महिलाएं कृषि में लगी हुई हैं। नीति आयोग की जानकारी से यह भी पता चलता है कि भारत में लगभग 80 फीसद ग्रामीण महिलाएं काम करती हैं। इससे यह साफ दिखाई देता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा इस काम में शामिल हैं लेकिन जब बात बाजार और अर्थव्यवस्था की आती है तब उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है बिना यह सोचे कि महिलाओं ने भी इसमें उतनी ही मेहनत की है।

जब कंपनियां या संगठन ग्रीन कैंपेन या पर्यावरण जागरूकता के लिए काम करती हैं तब इसमें ज्यादातर महिलाओं को ही शामिल किया जाता है गांवों, पंचायतों में जब स्वच्छता, पानी बचाने और पेड़ लगाने की मुहिम चलती है तो महिलाओं को पर्यावरण संरक्षक की तरह पेश किया जाता है। अभियान में महिलाएं झाड़ू लेकर, पौधे लगाकर, नारे लगाते हुए दिखती हैं जबकि नीतियां और बजट अक्सर पुरुषों द्वारा तय किए जाते हैं। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अक्सर यह सिखाया जाता है कि घर कैसे साफ रखना है, सूखा और गीला कचरा अलग-अलग रखना है। कचरा यहां – वहां नहीं फेंकना है। यह सारा काम का भार हमेशा महिलाओं के ऊपर आ जाता है। अक्सर यह देखने को मिलता है जब गांव में हर सुबह कचरा उठाने वाली गाड़ी आती है तब सिर्फ महिलाएं ही घर का कचरा फेंकेने जाती हैं।
भारत में लगभग 80 फीसद ग्रामीण महिलाएं खेती का काम करती हैं। इससे यह साफ दिखाई देता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा इस काम में शामिल हैं लेकिन जब बात बाजार और अर्थव्यवस्था की आती है तब उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है बिना यह सोचे कि महिलाओं ने भी इसमें उतनी ही मेहनत की है।
सस्टेनेबल सुंदरता का दबाव

उच्च वर्ग या क्लास के व्यक्ति जिनके पास पैसों की कमी नहीं होती उन पर सस्टेनेबल प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने का दबाव ज्यादा होता है और ग्रीन मार्केटिंग का ज्यादा दबाव यहां भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर ही अधिक होता है, कि वह किस तरह के कपड़े पहनेगी, किस तरह के जूते पहनेगी। उच्च वर्ग की महिलाओं पर सस्टेनेबल यानी टिकाऊ उत्पादों के चयन का जो दबाव होता है, वह केवल पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा नहीं होता, बल्कि इसमें सुंदरता और ज़िम्मेदार उपभोक्ता होने की सामाजिक अपेक्षाएं भी शामिल होती हैं। फैशन, ब्यूटी, और लाइफस्टाइल की दुनिया में महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे न केवल ट्रेंड में रहें, बल्कि अपनी पसंद को सस्टेनेबिलिटी जैसे नैतिक मानकों से भी जोड़ें।
ग्रीन मार्केटिंग के ज़रिए ब्रांड्स अक्सर महिलाओं को लक्ष्य बनाते हैं और यह दिखाया जाता है कि अगर महिलाएं ये प्रोडक्ट इस्तेमाल करेंगी तब ही जिम्मेदार नागरिक मानी जाएंगी। उदाहरण के लिए जब कोई महिला अभिनेत्री या सेलेब्रिटी ट्रेंड के हिसाब से कपड़े, जूते और बेग इस्तेमाल नहीं करती तब उन्हे सोशल मीडिया में बहुत ज्यादा ट्रोल किया जाता है और मज़ाक उड़ाया जाता है। लेकिन पुरुषों के साथ ऐसा कम देखने को मिलता है । इससे साफ दिखाई देता है कि उच्च वर्ग की महिलाएं दोहरे दबाव में जीती हैं एक तरफ सुंदर, ट्रेंडी और सामाजिक रूप से स्वीकृत दिखने की मांग और दूसरी तरफ नैतिक रूप से सही विकल्प चुनने का बोझ। यह बोझ उनके उपभोग की स्वतंत्रता को सीमित करता है और पितृसत्तात्मक बाजार-व्यवस्था के भीतर उन्हें एक अलग या पुरुष वादी ढांचे में बांधने की कोशिश करता है।
ग्रीन वॉशिंग और कॉर्पोरेट पितृसत्ता का समाधान
हम सिर्फ उपभोक्ता या जो लोग ये प्रोडक्ट खरीद रहे हैं सिर्फ उन्हें ही दोषी नहीं ठहरा सकते इसे दोनों पक्षों से देखने की जरूरत है। जाती, वर्ग और जेन्डर के आधार पर पर्यावरण आधारित नीतियां बनाई जानी चाहिए । क्योंकि पर्यावरण का प्रभाव सभी के लिए एक जैसा नहीं होता। जब बाढ़ आती है, तो झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाएं सबसे पहले प्रभावित होती हैं। जब पानी का संकट होता है, तो वही महिलाएं जो हर दिन 5-10 लीटर पानी ढोती हैं, सबसे ज़्यादा बोझ उठाती हैं। इसलिए ऐसी नीतियां चाहिए जो जाति, वर्ग, और जेंडर को ध्यान में रखें । प्रभावित समुदायों को फैसले लेने की ताक़त दें और सिर्फ कॉर्पोरेट मुनाफे नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय को प्राथमिकता दें।कंपनियों को ये बताना कानूनी रूप से अनिवार्य किया जाए कि उनका उत्पादन पर्यावरण और श्रमिकों को कैसे प्रभावित करता है।कॉर्पोरेट के मुकाबले लोकल और सामुदायिक उत्पादन को नीति और बाजार में प्राथमिकता मिले। ग्रीन वॉशिंग और कॉर्पोरेट पितृसत्ता के मेल से एक ऐसी व्यवस्था बनती है जो पर्यावरण की चिंता का दिखावा तो करती है, लेकिन असल में मुनाफे, सुंदरता और सत्ता की पितृसत्तात्मक परिभाषाओं को बनाए रखती है। इसका सबसे बड़ा बोझ हाशिए पर जी रही महिलाओं पर पड़ता है। इसलिए जरूरत है ऐसी नीतियों की जो जाति, वर्ग और जेंडर के आधार पर न्यायसंगत हों और पर्यावरण को लेकर की जा रही मार्केटिंग नहीं, बल्कि असल बदलाव को जगह दें।