भारत में जब भी हम सामाजिक योजनाओं या राजनीतिक वादों की बात करते हैं, तो पाते हैं कि ये मूल रूप से सिर्फ दो जेंडर के लोगों के लिए बनाए गए हैं। आम तौर पर ट्रांस या क्वीयर समुदाय के लोगों को इनमें जगह नहीं मिलती या उनके अनोखे अनुभवों को महत्व नहीं दिया जाता। ऐसे समय में उन चुनिंदा संस्थानों की भूमिका और भी अहम हो जाती है, जो इन समुदायों के लिए न सिर्फ खड़े होते हैं, बल्कि उनके हित में काम करते हैं। बीते दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक एग्ज़ेक्यूटिव ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए, जिसमें सभी अमेरिकी विदेशी सहायता कार्यक्रमों को 90 दिनों के लिए अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे उनके नीतिगत लक्ष्यों के अनुरूप हैं या नहीं। इस आदेश के बाद एक स्टॉप-वर्क निर्देश जारी किया गया, जिसने दुनिया भर में अधिकांश अमेरिकी सहायता-समर्थित परियोजनाओं को रोक दिया। यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) के फंड को रोकने से दुनिया भर में खासकर कम आय वाले देशों में अनेक विकास कार्यक्रम प्रभावित हुए हैं।
इस नीतिगत बदलाव का प्रभाव गहरा रहा और इसने देश के हाशिये पर रह रहे समुदायों में से एक ट्रांसजेंडर लोगों के लिए महत्वपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को गंभीर रूप से बाधित किया है। बीबीसी की मार्च 2025 की रिपोर्ट के अनुसार ट्रम्प के विदेशी सहायता रोक दिए जाने के बाद, देश के ट्रांसजेंडर लोगों के लिए तीन शहरों में पहले मेडिकल क्लिनिक का परिचालन बंद हो गया था। वहीं, मेडिकल पत्रिका लैन्सेट के अनुसार फंड फ्रीज का एक बड़ा असर ट्रांसजेंडर लोगों के लिए ‘मित्र क्लीनिकों’ पर पड़ा, जहां इन क्लिनिक्स को बंद करना पड़ा। मित्र क्लीनिक देश के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण मौजूदगी थी, क्योंकि ये 2021 से लगभग 6000 लोगों को सेवा दी है। यूएसएआईडी से 2,50,000 रुपये के मासिक अनुदान के साथ, इन क्लीनिकों को डॉक्टरों, परामर्शदाताओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा चलाया जाता था, जो ट्रांसजेंडर समुदाय से भी थे।
बीबीसी की मार्च 2025 की रिपोर्ट के अनुसार ट्रम्प के विदेशी सहायता रोक दिए जाने के बाद, देश के ट्रांसजेंडर लोगों के लिए तीन शहरों में पहले मेडिकल क्लिनिक का परिचालन बंद हो गया था। यूएसएआईडी से 2,50,000 रुपये के मासिक अनुदान के साथ, इन क्लीनिकों को डॉक्टरों, परामर्शदाताओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा चलाया जाता था, जो ट्रांसजेंडर समुदाय से भी थे।
क्या है मित्र क्लिनिक
अमेरिका की राष्ट्रपति की आपातकालीन योजना (पीईपीएफएआर) और यूएसएआईडी के एक्सेलेरेट कार्यक्रम के तहत जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी ने हैदराबाद में जनवरी 2021 में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए भारत का पहला समर्पित क्लिनिक शुरू किया था। यह क्लिनिक ‘मित्र क्लीनिक’ के नाम से जाना गया। यहां ट्रांसजेंडर समुदाय को एक ही जगह पर कई तरह की स्वास्थ्य सेवाएं मिलती हैं। इसमें सामान्य स्वास्थ्य जांच, हार्मोन थेरेपी, जेंडर पहचान से जुड़ी प्रक्रिया और दवाओं पर सलाह शामिल थीं। यहां मानसिक स्वास्थ्य परामर्श, एचआईवी और यौन संक्रमित रोगों (एसटीआई) की जांच, रोकथाम और इलाज की सुविधाएं दी जाती थीं। साथ ही ट्रांस समुदाय के साथ होते भेदभाव को मद्देनजर रखते हुए यह ध्यान दिया जाता था कि यह सब बिना किसी भेदभाव और डर के माहौल में हो।

यह क्लिनिक कानूनी सलाह और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी सेवाएं भी देती थी, ताकि ट्रांसजेंडर व्यक्ति अपने अधिकारों को बेहतर ढंग से समझ और इस्तेमाल कर सकें। यहां काम करने वाले डॉक्टर, काउंसलर और अन्य कर्मचारी खुद ट्रांसजेंडर समुदाय से होते थे। जुलाई 2021 में, महाराष्ट्र में दो और स्वास्थ्य क्लीनिक शुरू किए गए। वहीं, नवंबर 2021 में अमेरिकी सरकार ने, यूएसएआईडी और एड्स राहत के लिए पीईपीएफएआर के माध्यम से, जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी में, ‘मित्र क्लिनिक – प्राइड एंड बियॉन्ड’ डाक्यूमेंट्री का प्रीमियर आयोजित किया, जिसमें हैदराबाद में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए भारत के पहले व्यापक स्वास्थ्य क्लिनिक को दिखाया गया।
नाको के साल 2021 के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर, साल 2000 में 15-49 साल के बीच अनुमानित वयस्क एचआईवी प्रसार 0.55 फीसद और साल 2021 में 0.21 फीसद होने का अनुमान था। वहीं, लैन्सेट के अनुसार, देश में ट्रांसजेंडर लोगों में एचआईवी का प्रसार 14·5 फीसद होने का अनुमान है।
ट्रांस समुदाय का सार्वजनिक स्वास्थ्य तक पहुंच
साल 2011 की जनगणना के अनुसार, 4,88,000 भारतीय ट्रांसजेंडर हैं। ट्रांसजेंडर लोगों की संख्या वैश्विक आबादी का लगभग 0.3-0.5 फीसद (25 मिलियन) है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अक्सर जटिल स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं और इसके लिए लगातार स्वास्थ्य देखभाल की ज़रूरत होती है। वे कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्वास्थ्य असमानताओं से जूझते हैं। कई शोध बताते हैं कि ट्रांस समुदाय में एचआईवी से लेकर अवसाद सहित अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम ज्यादा है। अमूमन ट्रांसजेंडर व्यक्ति जेंडर डिस्फोरिया से जूझते हैं और उन्हें सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी, इमप्लान्ट, हार्मोनल थेरेपी जैसी विशेष चिकित्सकीय जरूरतें होती हैं।

लेकिन, कई बार आर्थिक या सामाजिक तौर पर हाशिये पर रहने के कारण, वे इन सेवाओं तक पहुंचने में असमर्थ होते हैं। बीएमसी स्वास्थ्य सेवा अनुसंधान ने पश्चिमी राजस्थान में ट्रांसजेंडर आबादी के बीच स्वास्थ्य देखभाल की ज़रूरतें और देखभाल में बाधाओं पर एक शोध किया। शोध में लक्षित नीतियों की गैर मौजूदगी से लेकर व्यक्तिगत व्यवहार तक विभिन्न स्तरों पर बाधाओं की पहचान की गई। शोध के अनुसार ट्रांसजेंडर लोगों ने मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं, पोषण सुधार को लक्षित करने वाले कार्यक्रमों, जेंडर कन्फर्मिंग प्रक्रियाओं के अलावा पुरुषों और महिलाओं के लिए गैर-संचारी रोगों की नियमित जांच की आवश्यकता बताई।
आज भी कानूनी मान्यता के बावजूद, ट्रांस समुदाय के लोगों का अच्छे स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच; सिसजेंडर समकक्षों की तुलना में कम है। वहीं, कई मामलों में वे एक ही रोग का ज्यादा सामना करते हैं। जैसे, नाको के साल 2021 के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर, साल 2000 में 15-49 साल के बीच अनुमानित वयस्क एचआईवी प्रसार 0.55 फीसद और साल 2021 में 0.21 फीसद होने का अनुमान था। वहीं, लैन्सेट के अनुसार, देश में ट्रांसजेंडर लोगों में एचआईवी का प्रसार 14·5 फीसद होने का अनुमान है।
कोविड-19 महामारी के समय लॉकडाउन लागू होने के बाद, सरकार ने घोषणा की थी कि हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और राशन आपूर्ति के रूप में 1,500 रुपये मिलेंगे। लेकिन, मीडिया रिपोर्ट बताती है कि 4,88,000 की अनुमानित आबादी के बावजूद, महज 5,711 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बैंक ट्रैन्स्फर और 1,229 को राशन आपूर्ति मिली।
दस्तावेजीकरण और पहचान पत्र में समस्याएं
बात ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 की करें, तो ये अपनेआप में समस्याजनक है। हालांकि यह अधिनियम शिक्षा, रोजगार और संपत्ति लेने या खरीदने की क्षमता के संबंध में ट्रांसजेंडर लोगों के साथ भेदभाव को खत्म करने का एक महत्वपूर्ण रास्ता है। लेकिन, उन्हें आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त करने के लिए सरकार के साथ रेजिस्ट्रैशन कराना जरूरी है। यदि कोई ट्रांसजेंडर व्यक्ति खुद को ‘ट्रांस पुरुष’ या ‘ट्रांस महिला’ के रूप में पहचानता है और कानूनी रूप से इस रूप में मान्यता प्राप्त करना चाहता है, तो उसे सरकार को सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) का प्रमाण देना होगा। कई जेंडर और सेक्शूएलिटी अधिकार शोधकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के अनुसार, यह अधिनियम गरिमा और शारीरिक एजेंसी के अधिकार के खिलाफ है।

यह ट्रांस समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य लागतों पर अतिरिक्त बोझ डालता है। कोविड-19 महामारी के समय लॉकडाउन लागू होने के बाद, सरकार ने घोषणा की थी कि हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर और राशन आपूर्ति के रूप में 1,500 रुपये मिलेंगे। लेकिन, मीडिया रिपोर्ट बताती है कि 4,88,000 की अनुमानित आबादी के बावजूद, महज 5,711 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बैंक ट्रैन्स्फर और 1,229 को राशन आपूर्ति मिली। इंडियास्पेन्ड की एक रिपोर्ट अनुसार एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के लिए स्वास्थ्य, क्षमता निर्माण और अनुसंधान पर काम करने वाली संस्था हमसफ़र ट्रस्ट के एडवोकेसी मैनेजर बताते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं है।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक समीक्षा के अनुसार, भारत में ट्रांसजेंडर स्वास्थ्य पर मौजूदा लिटरेचर मुख्य रूप से यौन स्वास्थ्य पर केंद्रित है, जबकि उनके समग्र स्वास्थ्य स्थिति को नजरंदाज किया जाता है।
ट्रांस समुदाय के समग्र स्वास्थ्य पर बात है जरूरी
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के नियमित स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच पर, उनके अनुभव पर एक शोध जारी की। इसके अनुसार स्वास्थ्य सेवा में ट्रांस समुदाय पर बातचीत को एचआईवी और जेंडर अफर्मटिव सेवाओं से हटाकर; नियमित व्यापक स्वास्थ्य सेवा की ओर ले जाने की जरूरत है। समुदाय के लोगों पर स्वास्थ्य समस्याओं का बोझ ज्यादा है और रोजाना के स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच न होने से उनके जीवन पर खराब प्रभाव पड़ता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक समीक्षा के अनुसार, भारत में ट्रांसजेंडर स्वास्थ्य पर मौजूदा लिटरेचर मुख्य रूप से यौन स्वास्थ्य पर केंद्रित है, जबकि उनके समग्र स्वास्थ्य स्थिति को नजरंदाज किया जाता है।

अमूमन ट्रांसजेंडर व्यक्ति हाशिये पर रहने को मजबूर हैं। समाज में आज भी उन्हें कलंक, भेदभाव, सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक हाशियाकरण, हिंसा, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच न होने का सामना करना पड़ता है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में विभिन्न चुनौतियां और मुश्किलें होती हैं। जर्नल ऑफ़ गे एंड लेस्बियन मेंटल हेल्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में मुख्य बाधाओं में स्वास्थ्य सुविधाओं में भेदभाव, उपचार प्रोटोकॉल की कमी, स्वास्थ्य के विषय पर कम साक्षरता और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं की मांग न होने जैसे कारक शामिल हैं। वहीं अन्य बाधाओं में उनकी शिक्षा, लैंगिक हिंसा, सामाजिक-आर्थिक बाधाएं, स्वास्थ्य बीमा की कमी, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से बहिष्कार और स्वास्थ्य प्रणाली बाधाएं शामिल हैं।
भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच आज भी सीमित और असमान बनी हुई है। ‘मित्र क्लिनिक’ जैसी पहलों ने यह दिखाया कि जब ट्रांस समुदाय की ज़रूरतों को केंद्र में रखकर सेवाएं दी जाती हैं, तो सकारात्मक बदलाव संभव हैं। लेकिन, विदेशी सहायता पर निर्भर ऐसे कार्यक्रम जब राजनीतिक फैसलों के कारण बंद हो जाते हैं, तो सबसे ज्यादा नुकसान उन समुदायों को होता है जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अधिकार देने की बात तभी पूरी मानी जा सकती है, जब उन्हें समान, सुलभ और गरिमापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं भी मिलें। इसके लिए जरूरी है कि नीति-निर्माण से लेकर जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र तक, हर जगह ट्रांसजेंडर समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। आज सिर्फ एचआईवी या जेंडर अफर्मेशन तक सीमित स्वास्थ्य दृष्टिकोण के बजाय, उनके संपूर्ण स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए व्यापक और समावेशी ढांचा तैयार करना सबसे बड़ी जरूरत है।