इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ वो भारतीय शॉर्ट फ़िल्में, जो बदल रही हैं क्वीयर कहानियों का इतिहास

वो भारतीय शॉर्ट फ़िल्में, जो बदल रही हैं क्वीयर कहानियों का इतिहास

क्वीयर समुदाय का सही से चित्रण होने में काफ़ी लंबा वक़्त बीता। समय के साथ समाज में थोड़ी जागरूकता बढ़ी, जिसका असर मुख्यधारा की फ़िल्मों और शॉर्ट फ़िल्मों में देखा जाने लगा। अब ये समुदाय सिर्फ साइड रोल में ही नहीं बल्कि फ़िल्मों के मुख्य पात्र के तौर पर भी उभरने लगा है।

मनोरंजन की दुनिया में एक अरसे तक क्वीयर समुदाय को या तो अनदेखा किया गया या फिर उन्हें ग़लत तरीके से दिखाया गया। ख़ासकर शुरुआती दौर की फ़िल्मों में ऐसे किरदार लोगों को हंसाने के लिए रखा जाता था या फिर उनका मज़ाक बनाया जाता था। क्वीयर समुदाय का सही से चित्रण होने में काफ़ी लंबा वक़्त बीता। समय के साथ समाज में थोड़ी जागरूकता बढ़ी, जिसका असर मुख्यधारा की फ़िल्मों और शॉर्ट फ़िल्मों में देखा जाने लगा। अब ये समुदाय सिर्फ साइड रोल में ही नहीं बल्कि फ़िल्मों के मुख्य पात्र के तौर पर भी उभरने लगा है। लेकिन, इसके बावजूद बहुत सी चुनौतियां अभी भी बरक़रार हैं, जिनपर काम किया जाना ज़रूरी है। किसी भी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय की बात सबसे ज़्यादा भरोसेमंद तभी मानी जाती है जब वह उसी की जुबानी कही जाए जिसने उसका अनुभव किया हो।

फ़िल्म, टीवी यहां तक कि ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर अभी भी कथित उच्च जातियों, पढ़े-लिखे और शहरी बैकग्राउंड से आने वाले लोगों ख़ासकर सिस हेट्रो पुरुषों की संख्या ज़्यादा है। हालांकि यूट्यूब और छोटे ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर धीरे-धीरे सभी वर्गों और समुदायों की भागीदारी बढ़ रही है इसके बावजूद अभी हाशिए के समुदायों की संख्या कम है, जिसका असर हमें फिल्मों, शॉर्ट फ़िल्मों और वेब सीरीज के कथानकों में साफ नज़र आता है। अगर एलजीबीटीक्यू+ कम्युनिटी की बात की जाए तो इसमें भी अक्सर कथित उच्च जाति, समुदाय और बैकग्राउंड का दबदबा देखने को मिलता है। इन फ़िल्मों के मुख्य क़िरदार आमतौर पर इन्हीं विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से आते हैं जो कि अक्सर शहरी, उच्च शिक्षित, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सशक्त होते हैं। 

यूट्यूब और छोटे ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर धीरे-धीरे सभी वर्गों और समुदायों की भागीदारी बढ़ रही है इसके बावजूद अभी हाशिए के समुदायों की संख्या कम है, जिसका असर हमें फिल्मों, शॉर्ट फ़िल्मों और वेब सीरीज के कथानकों में साफ नज़र आता है।

द बूथ

तस्वीर साभार : TMDV

2019 में आई द बूथ शॉर्ट फ़िल्म के निर्देशक रोहिन रवींद्रन हैं, जिन्होंने 15 मिनट की इस छोटी सी फ़िल्म में क्वीयर समुदाय के वर्गीय विशेषाधिकार को तोड़ने की कोशिश की है। फ़िल्म एक शॉपिंग मॉल में सिक्योरिटी गार्ड रेखा (अमृता सुभाष) और सरगम (पर्णा पेठे) के एक-दूसरे के साथ बिताए गए एक दिन में होने वाली घटनाओं पर आधारित है। इसमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे सिक्योरिटी बूथ जैसी जगह क्वीयर जोड़े के रोमांस के लिए असुरक्षित है।

इसमें रेखा और सरगम के बनाए गए गाने पर बॉलीवुड के हेट्रोसेक्सुअल रोमांटिक गानों का असर भी आसानी से देखा जा सकता है। यह फ़िल्म दो अलग आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि की महिलाओं के बीच के रिश्ते और रोमांस को दिखाते हुए सामाजिक नियमों को तोड़ने का भी काम करती है। द बूथ एक ऐसी फिल्म है जो साधारण दिखने वाली कहानी के ज़रिए क्वीयर रिश्तों को गहराई से दिखाती है। इस फिल्म में हमें यह देखने को मिला कि क्वीयरनेस सामाजिक-आर्थिक विशेषाधिकार के परे है यानी यह कोई एलीट कॉन्सेप्ट नहीं है।

2019 में आई द बूथ शॉर्ट फ़िल्म के निर्देशक रोहिन रवींद्रन हैं, जिन्होंने 15 मिनट की इस छोटी सी फ़िल्म में क्वीयर समुदाय के वर्गीय विशेषाधिकार को तोड़ने की कोशिश की है।

गीली पुच्ची

तस्वीर साभार : Scoop Whoop

नेटफलिक्स एंथॉलजी (संकलन) अजीब दास्तान की साल 2021 की शॉर्ट फ़िल्म गीली पुच्ची का निर्देशन नीरज घेवान ने किया है। इस फ़िल्म में भारती (कोंकणा सेन शर्मा) और प्रिया (अदिति राव हैदरी) मुख्य भूमिकाओं में हैं। भारती दलित समुदाय की क्वीयर महिला हैं और प्रिया एक उच्च जाति की क्वीयर महिला है। दोनों एक ही फैक्ट्री में काम करती हैं लेकिन इनकी सेक्सुअलिटी और रोमांटिक रिश्ते पर उनके जाति का काफ़ी असर पड़ता है। प्रिया को फैक्ट्री में काम करने के दौरान जातिगत विशेषाधिकार का लाभ मिलता है। वहीं भारती मुख्यधारा में शामिल होने के लिए अपनी दलित पहचान छुपा कर रखती है, जिसके उजागर होने के बाद  इनका रिश्ता और भी मुश्किल या उलझनों से भरा हो गया।

क्वीयर और दलित होने के दोहरे भेदभाव से से जूझती भारती का संघर्ष जाति की वजह से और बढ़ जाता है। इस फ़िल्म में दलित जातिगत पहचान और क्वीयर समुदाय के बीच के जुड़ाव को काफ़ी बारीकी से दिखाया गया है। हालांकि इसमें इस धारणा को बल मिला है कि वंचित समुदाय से होने पर बराबरी हासिल करने के लिए आपको असाधारण रूप से प्रतिभासंपन्न होना पड़ता है जो कि सही नहीं है। फिर भी इस फ़िल्म ने यह दिखाया कि देश में सेक्शूएलिटी को जाति और वर्ग जैसे सामाजिक ढांचे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है, जोकि काबिलेतारीफ़ है।

भारती दलित समुदाय की क्वीयर महिला हैं और प्रिया एक उच्च जाति की क्वीयर महिला है। दोनों एक ही फैक्ट्री में काम करती हैं लेकिन इनकी सेक्सुअलिटी और रोमांटिक रिश्ते पर उनके जाति का काफ़ी असर पड़ता है।

माय मदर्स गर्लफ्रेंड

तस्वीर साभार : The Indian Express

पारंपरिक भारतीय समाज में हमेशा से ही माँ को ममता और त्याग की मूर्ति कहकर पुकारे जाने का चलन रहा है और उनसे इसी तरह की भूमिका निभाने का दबाव डाला जाता है। ऐसे में अरुण फुलारा की साल 2019 में आई शॉर्ट फ़िल्म माय मदर्स गर्लफ्रेंड क्रांति का काम करती है न सिर्फ़ इसका शीर्षक बल्कि कथानक भी पूरी तरह से समाज के नियमों को चुनौती देता है। इसकी कहानी रेणुका (सुषमा देशपांडे) और सादिया (अंजू अलावा नाईक) नामक दो कामकाजी महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है जो एक दूसरे से प्रेम करती हैं। ग़ौरतलब है कि यह महिलाएं बेहद साधारण सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले परिवार से ताल्लुक रखती हैं और ख़ुद भी मेहनत-मजदूरी करती हैं।

रेणुका का बेटा मंगेश जो कि टैक्सी ड्राइवर है उसे अपनी मां पर शक होता है तो उनका पीछा करता है और अचानक से उसे सच्चाई का पता चलता है। यह इस फ़िल्म का सबसे भावुक पल होता है। जहां बेटे को माँ से ज़्यादा परिवार और समाज ख़ासतौर से लोग क्या कहेंगे की चिंता है। यह फ़िल्म एक पुरुष के नज़रिए से उसकी मां के क्वीयर संबंधों के बारे में है जो कि वर्जित माना जाने वाला विषय है। यह ऐसे क्वीयर प्रेम संबंध के बारे में है जिस पर मुख्यधारा की फ़िल्मों में बात न के बराबर होती है। यह फ़िल्म इस धारणा को भी चुनौती देती है कि क्वीयर प्रेम संबंध केवल एलीट क्लास के लिए शौक और मनोरंजन है।

अरुण फुलारा की साल 2019 में आई शॉर्ट फ़िल्म माय मदर्स गर्लफ्रेंड क्रांति का काम करती है न सिर्फ़ इसका शीर्षक बल्कि कथानक भी पूरी तरह से समाज के नियमों को चुनौती देता है।

यू फॉर उषा

तस्वीर साभार : Rotten Tomatoes

ग्रामीण पृष्ठभूमि की यह फ़िल्म उषा (किरण खोजे) और मनीषा (अर्पिता घोगरदारे) के बीच के संबंधों पर आधारित है। उषा एक सिंगल मदर है जो अपने बेटे की स्कूल टीचर मनीषा के प्रति आकर्षित होती है और फिर दोनों एक साथ रिश्ते में आ जाती हैं। मनीषा की मदद से उषा कुछ पढ़ना-लिखना भी सीख जाती है। इसमें दोनों के बीच की दोस्ती को भी जगह दी गई है। रोहित कनावड़े के निर्देशन में बनी यू फॉर उषा फ़िल्म में गांव में रहने वाली एक दलित महिला की सेक्शुअलिटी और इच्छा को दिखाया गया है। ख़ामोशी से भरी यह फ़िल्म अपने बैकग्राउंड और सिनेमैटोग्राफी की वजह से भावनाओं को बयां करने में जबरदस्त सफलता हासिल करती है। ग्रामीण परिवेश के क्वीयर संबंधों को सामने लाने में इस फ़िल्म ने अहम भूमिका निभाई है। जाति, लिंग और सेक्शुअलिटी के अंतर्संबंध को उजागर करती इस फ़िल्म को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी तारीफ़ें मिली और इसने 2019 में सत्यजीत रे लघु फिल्म पुरस्कार भी जीता।

क्यों जरूरी है सिनेमा के मुख्यधारा में क्वीयर प्रतिनिधत्व

मुख्यधारा की ज़्यादातर फ़िल्में और वेब सीरीज लोगों के उन पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देती हैं जिनके हिसाब से क्वीयर होना शहरी और एलीट कॉन्सेप्ट है और यह वेस्टर्न कल्चर की देन है। जैसाकि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह एक फ़ेज या एक्सपेरिमेंट है ये फ़िल्में उनकी इन रूढ़िवादी धारणाओं को भी मजबूत करती हैं। हमें कथित निम्न मानी जाने वाली जातियों, आर्थिक रूप से कमज़ोर, मजदूर, कम शिक्षित और ग्रामीण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले क्वीयर लोगों की कहानियां मुश्किल से ही देखने को मिलती हैं। ऐसे में ये शॉर्ट फ़िल्में उम्मीद जगाती हैं जिसमें क्वीयर समुदाय की विविधता और समावेशिता को जगह मिली है। पिछले कुछ सालों में भारतीय शॉर्ट फ़िल्मों का एक नया दौर चल रहा है जिसमें पारंपरिक मानकों से अलग हटकर बदलाव देखने को मिल रहा है। 

ये शॉर्ट फ़िल्में भारतीय सिनेमा में क्वीयर समुदाय की भागीदारी बढ़ाने के साथ ही जागरूकता लाने का भी काम कर रही हैं क्योंकि यह उन कहानियों को सामने लाती हैं जो अक्सर हाशिए पर रहती हैं। बधाई दो, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, चंडीगढ़ करे आशिकी जैसी मुख्यधारा की फ़िल्में एलजीबीटी+ कम्युनिटी के प्रति जागरूकता तो बढ़ा रही हैं लेकिन उनमें अक्सर कथित उच्च जातियों और वर्ग के किरदारों को ही केंद्र में रखा जाता है। जबकि गीली पुच्ची, माय मदर्स गर्लफ्रेंड, यू फॉर उषा और द बूथ में क्वीयरनेस को दलित, मजदूर और ग्रामीण जैसे हाशिए की कहानियों को जगह मिली है। इन फ़िल्मों का महत्त्व इनके इंटरसेक्शनैलिटी में है, जो न सिर्फ़ इन हाशिए के समुदायों को समावेशिता और अपनापन महसूस कराता है बल्कि भारत में क्वीयरनेस को लेकर ज़्यादा समावेशी समझ को बढ़ावा देती हैं। ये शॉर्ट फ़िल्में न सिर्फ़ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को चुनौती देती हैं बल्कि क्वीयर समुदाय के इंद्रधनुषी स्वरूप को भी समाज के सामने लाकर पूर्वाग्रहों को तोड़ने का भी काम करती हैं।

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