इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत साइकिल से शिक्षित और आत्मनिर्भर बनने का सफर तय करती ग्रामीण महिलाएं

साइकिल से शिक्षित और आत्मनिर्भर बनने का सफर तय करती ग्रामीण महिलाएं

ग्रामीण भारत में साइकिल महिलाओं के जीवन में केवल एक साधारण परिवहन का माध्यम नहीं, बल्कि बदलाव, आज़ादी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गई है। यह एक ऐसी 'मौन क्रांति' है, जो शिक्षा, रोजगार और सामाजिक गतिशीलता की राह में लड़कियों और महिलाओं को मजबूत बनाती है।

साइकिल महिलाओं के लिए सिर्फ एक यातायात का साधन नहीं, बल्कि आज़ादी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक रही है। ग्रामीण भारत में यह लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा और काम तक पहुंच में अहम भूमिका निभाती है। साइकिल ने न सिर्फ उनकी गतिशीलता बढ़ाई, बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त भी किया। अमेरिकी मताधिकारवादी सुज़ैन बी. एंथनी के अनुसार, “औरतों की आज़ादी में साइकिल की जो भूमिका रही है, वैसी शायद ही किसी और चीज़ की हो।” ग्रामीण लड़कियों और महिलाओं को शिक्षित, सफल, सशक्त और गतिशील बनने में साइकिल की एक अहम भूमिका रही है। आईआईटी दिल्ली और मुंबई के नरसी मोनजी इंस्टीट्यूट की रिसर्च के अनुसार, 2007 से 2017 के बीच ग्रामीण स्कूल जाने वाली लड़कियों में साइकिल चलाने की दर 4.5 फीसद से बढ़कर 11 फीसद हो गई है।

यह बदलाव शिक्षा और लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। यह आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के तीन दौरों- साल 2007-08, 2014 और 2017-18) से लिए गए हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, साइकिल ग्रामीण लड़कियों की शैक्षिक पहुंच को बेहतर बनाने में एक ‘मौन क्रांति’ साबित हो रही है। इन सभी समाजिक- पारिवारिक चुनौतियों के बाबजूद लड़कियों का खुद को शिक्षित और सशक्त बनाने के लिए सुदूर ग्रामीण इलाकों में,  एक बड़ी संख्या में साइकिल से हर रोज एक लंबा सफर तय करना किसी क्रांति से कम नहीं लगता हैं। यह कदम लैंगिक असमानता, पितृसत्ता और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ उनके आत्मनिर्भर होने का प्रतीक है। उन तमाम बाधाओं के बावजूद, शिक्षा की ओर उनका यह सफर बदलाव की कहानी कहता है।

आईआईटी दिल्ली और मुंबई के नरसी मोनजी इंस्टीट्यूट की रिसर्च के अनुसार, 2007 से 2017 के बीच ग्रामीण स्कूल जाने वाली लड़कियों में साइकिल चलाने की दर 4.5 फीसद से बढ़कर 11 फीसद हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक, साइकिल ग्रामीण लड़कियों की शैक्षिक पहुंच को बेहतर बनाने में एक ‘मौन क्रांति’ साबित हो रही है।

साइकिल योजनाओं ने बदली ग्रामीण लड़कियों की शिक्षा की तस्वीर

तस्वीर साभार: Deccan Herald

आज भी आम तौर पर महिलाओं को पुरुषों की तुलना में बाहर जाने और स्वतंत्र रूप से घूमने की आज़ादी कम है। अकेले यात्रा करने वाली महिलाओं की संख्या भी काफी कम है। साल 2014-15 के एनएसएसओ के आंकड़ों अनुसार, केवल 18 फीसद ग्रामीण महिलाएं शिक्षा या ट्रेनिंग के लिए अकेले यात्रा करती हैं। ऐसे में लड़कियों का साइकिल चलाकर स्कूल जाना भी एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पहल है। ग्रामीण इलाकों में साइकिल लड़कियों के लिए स्कूल जाने का एक सस्ता और सुविधाजनक साधन है। जुलाई 2024 में जर्नल ऑफ ट्रांसपोर्ट जियोग्राफी में प्रकाशित एक रिसर्च के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में साइकिल चलाने वाली लड़कियों की संख्या में इज़ाफा हुआ है। इस बढ़ोतरी के पीछे एक बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकारों की मुफ्त साइकिल वितरण योजनाएं रही हैं। बीबीसी की एक 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कई राज्यों में साल 2004 से ही लड़कियों के लिए मुफ्त साइकिल वितरण योजनाएं चलाई जा रही हैं।

ग्रामीण इलाकों में परिवहन की कमी और घरेलू ज़िम्मेदारियों की अधिकता के कारण लड़कियों की शिक्षा अक्सर बाधित होती है। इसके चलते वे लड़कों की तुलना में शिक्षा के क्षेत्र में पीछे रह जाती हैं। साइकिल योजनाओं ने इस असमानता को कम करने में मदद की है। साइकिल मिलने से लड़कियों के लिए स्कूल की दूरी की रुकावट का एक तरह से हल मिला है। आज वे नियमित रूप से स्कूल जाने लगी हैं, जिससे उनकी साक्षरता दर और शिक्षण संस्थानों में दाखिले की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। यह बदलाव केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहा। यह लड़कियों के आत्मविश्वास, सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता में भी स्पष्ट रूप से देखा गया है। साल 2007 में जहां स्कूली लड़कियों में साइकिल चलाने की दर 4.5 प्रतिशत थी, वहीं 2017 तक यह आंकड़ा 11 प्रतिशत तक पहुंच गया। इस वृद्धि में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का योगदान सबसे ज़्यादा रहा है।

साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत के ग्रामीण इलाकों में 21 प्रतिशत से अधिक लोग साइकिल को यातायात के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इनमें से 21.7 प्रतिशत पुरुष और 4.7 प्रतिशत महिलाएं नियमित रूप से अपने रोज़ के कामों के लिए साइकिल पर निर्भर हैं।

पुदुकोट्टई साइकिल अभियान

क्या आपने कभी कल्पना की है कि भारत के एक छोटे से ग्रामीण जिले में महिलाएं साइकिल चलाने के लिए एक सामाजिक आंदोलन शुरू करेंगी? तमिलनाडु के पुदुकोट्टई में साल 1991 में एक अनोखा सामाजिक आंदोलन शुरू हुआ। ज़िला कलेक्टर शीला रानी चुंकथ की पहल पर यह ‘साइकिल अभियान’ शुरू किया गया जिसका मकसद था ग्रामीण महिलाओं को साक्षर बनाना और उन्हें गतिशीलता देना। इस अभियान में एक लाख से अधिक महिलाओं को पढ़ना-लिखना के साथ साइकिल चलाना भी सिखाया गया। शीला रानी का मानना था कि शिक्षा के साथ अगर महिलाओं को आने-जाने की आज़ादी मिले, तो वे खुद फैसले ले सकती हैं। यह अभियान बताता है कि जब महिलाएं आगे बढ़ती हैं, तो समाज भी उनके साथ आगे बढ़ता है।

ग्रामीण भारत में महिलाओं का जीवन और साइकिल

बीसवीं शताब्दी से लेकर आज तक, साइकिल लोगों की गतिशीलता का एक अहम साधन बनी हुई है। हालांकि शहरों में मोटर गाड़ियों, कारों और पब्लिक ट्रांसपोर्ट के विकल्प बढ़ने के कारण साइकिल का उपयोग कुछ हद तक कम हुआ है, लेकिन ग्रामीण भारत में आज भी यह एक किफायती और सरल परिवहन माध्यम बना हुआ है। ग्रामीण इलाकों में स्कूली बच्चे, किसान, खेतिहर मजदूर, दूध और सब्ज़ी विक्रेता जैसे कई लोग अब भी रोज़मर्रा के कामों के लिए साइकिल का उपयोग करते हैं। यह न केवल कम लागत वाला साधन है, बल्कि दुर्गम इलाकों तक पहुंचने में भी मददगार साबित होता है। महिलाओं के संदर्भ में भी साइकिल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। आज की ग्रामीण महिला केवल घर तक सीमित नहीं है। वह खेतों में काम करने, सब्ज़ी बेचने, या अन्य छोटे व्यापार करने के लिए घर से बाहर निकलती है।

तस्वीर साभार: Village Square

ऐसे में साइकिल उनकी आत्मनिर्भरता और गतिशीलता को बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभाती है। साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत के ग्रामीण इलाकों में 21 प्रतिशत से अधिक लोग साइकिल को यातायात के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इनमें से 21.7 प्रतिशत पुरुष और 4.7 प्रतिशत महिलाएं नियमित रूप से अपने रोज़ के कामों के लिए साइकिल पर निर्भर हैं। हालांकि यह आंकड़ा पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए काफी कम है, फिर भी यह बताता है कि महिलाएं भी सार्वजनिक और व्यावसायिक जीवन में अपनी भूमिका निभाने के लिए साइकिल को अपनाने लगी हैं। यह परिवर्तन न केवल उनके लिए व्यावहारिक सहूलियत लेकर आता है, बल्कि सामाजिक सोच और लैंगिक भूमिकाओं में भी धीरे-धीरे बदलाव का संकेत देता है।

ग्रामीण भारत में साइकिल महिलाओं के जीवन में केवल एक साधारण परिवहन का माध्यम नहीं, बल्कि बदलाव, आज़ादी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गई है। यह एक ऐसी ‘मौन क्रांति’ है, जो शिक्षा, रोजगार और सामाजिक गतिशीलता की राह में लड़कियों और महिलाओं को मजबूत बनाती है।

ग्रामीण भारत में साइकिल महिलाओं के जीवन में केवल एक साधारण परिवहन का माध्यम नहीं, बल्कि बदलाव, आज़ादी और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गई है। यह एक ऐसी ‘मौन क्रांति’ है, जो शिक्षा, रोजगार और सामाजिक गतिशीलता की राह में लड़कियों और महिलाओं को मजबूत बनाती है। सरकारी साइकिल योजनाओं से लेकर पुदुकोट्टई जैसे सामाजिक आंदोलनों तक—हर पहल ने यह दिखाया है कि जब महिलाओं को साधन और आज़ादी दी जाती है, तो वे अपने जीवन को बेहतर बनाने के साथ-साथ समाज को भी नई दिशा देती हैं।

तस्वीर साभार: Hard Knox Bikes

साइकिल ने न केवल उनकी शारीरिक गतिशीलता को बढ़ाया, बल्कि उन्हें मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी सशक्त किया है। ग्रामीण परिवेश की वे महिलाएं और लड़कियां जो पहले दूरी, समय और पितृसत्तात्मक सोच की वजह से शिक्षा और काम से वंचित रह जाती थीं, आज साइकिल के सहारे आत्मनिर्भरता की दिशा में सशक्त कदम बढ़ा रही हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि नीति-निर्माता, समाज और संस्थाएं मिलकर ऐसे प्रयासों को और मज़बूती दें—ताकि साइकिल जैसी छोटी दिखने वाली चीज़, महिलाओं की ज़िंदगी में बड़ा परिवर्तन लाने का ज़रिया बनती रहे। साइकिल चलाना सिर्फ एक रोज़मर्रा की क्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक हस्तक्षेप है जो लैंगिक समानता की दिशा में हमें थोड़ा और आगे ले जाता है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content