उत्तराखंड की पहाड़ी ग्रामीण महिलाएं राज्य की पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संरचना का एक अभिन्न हिस्सा है। वे कृषि, पशुपालन और घरेलू कामों में सदियों से सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। लेकिन आधुनिक समय में बदलती जलवायु, पलायन और पारंपरिक आजीविका के कमजोर होते आधार के कारण इन महिलाओं के सामने बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। महिलाओं की यह बेरोजगारी केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि यह उनकी आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और समग्र सशक्तिकरण में बाधा पैदा करती है।
उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश महिलाएं कृषि, बागवानी, पशुपालन और घरेलू कामों में लगी रहती हैं। पहले यह काम उनके लिए आय और आत्मनिर्भरता के साधन थे। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन, जंगली जानवरों से फसल की क्षति और पलायन जैसी समस्याओं ने इन कार्यों की स्थिरता को प्रभावित किया है। व्यावसायिक कौशल, आधुनिक प्रशिक्षण और बाज़ार से जुड़ाव की कमी के कारण महिलाएं वैकल्पिक रोजगार विकल्पों से वंचित रह जाती हैं। इसके अलावा, सामाजिक मान्यताओं और लैंगिक असमानता के चलते उन्हें निर्णय लेने और आय सृजन के अवसरों में सीमित भूमिका मिलती है।
उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश महिलाएं कृषि, बागवानी, पशुपालन और घरेलू कामों में लगी रहती हैं। पहले यह काम उनके लिए आय और आत्मनिर्भरता के साधन थे। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन, जंगली जानवरों से फसल की क्षति और पलायन जैसी समस्याओं ने इन कार्यों की स्थिरता को प्रभावित किया है।
पारंपरिक रोजगार के अवसरों की कमी और जलवायु परिवर्तन
उत्तराखंड की पहाड़ी ग्रामीण महिलाएं पारंपरिक रूप से कृषि और पशुपालन का काम करते आई हैं। लेकिन आधुनिक युग में इन क्षेत्रों में आय के स्थायी अवसर कम होते जा रहे हैं। नई तकनीक और बाज़ार की मांगों से कटे होने के कारण महिलाएं नए क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पा रही हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। कुमाऊं के रामगढ़ ब्लॉक में किए गए सर्वे के अनुसार, 150 में से कोई भी महिला बाजार संबंधित कामों में शामिल नहीं थी। 2011 की जनगणना में महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर 26.7 फीसद थी, जो 2001 की तुलना में घट गई। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि पर गहरा असर पड़ा है।

असमय वर्षा, सूखा और तापमान में वृद्धि ने फसलों की उत्पादकता घटा दी है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में कृषि योग्य भूमि में 27.2 फीसद और उत्पादन में 15.2 फीसद की गिरावट आई है। विशेष रूप से आलू की पैदावार में 70 फीसद से अधिक की कमी दर्ज की गई है। औसत तापमान में 1.5°C की वृद्धि और बर्फबारी में गिरावट से मिट्टी की नमी घटी है, जिससे रबी फसलें प्रभावित हुई है। कृषि पर महिलाओं की निर्भरता अधिक रही है। लेकिन, इन बदलते जलवायु हालातों ने उनकी आजीविका को अस्थिर बना दिया है। अब वे न तो परंपरागत खेती में लाभ कमा पा रही हैं और न ही आसानी से नए रोजगार तलाश पा रही हैं। सरकार से ‘मिशन आत्मनिर्भरता’ जैसी योजनाएं जरूर शुरू हुई हैं। लेकिन, इनका प्रभाव व्यापक स्तर पर अभी भी दिखाई नहीं दे रहा है।
कुमाऊं के रामगढ़ ब्लॉक में किए गए सर्वे के अनुसार, 150 में से कोई भी महिला बाजार संबंधित कामों में शामिल नहीं थी। 2011 की जनगणना में महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर 26.7 फीसद थी, जो 2001 की तुलना में घट गई।
पलायन और उसके दुष्प्रभाव
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों से रोजगार की तलाश में पुरुषों का शहरी इलाकों की ओर पलायन बढ़ा है, जिससे गांवों में महिलाएं अकेली रह जाती हैं। उनपर घरेलू जिम्मेदारियों के साथ-साथ खेत और परिवार की जिम्मेदारी भी आ गई है। इस दबाव के चलते वे न तो स्वरोजगार कर पाती हैं और न ही अन्य रोजगार तलाश पाती हैं, जिससे उनकी कमाई सीमित हो गया है। उत्तराखंड के ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक चुनौती बन चुका है। राज्य सरकार ने साल 2017 में इस समस्या के अध्ययन के लिए ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग (Rural Development and Migration Prevention Commission) की स्थापना की थी।
आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2018 से 2022 के बीच उत्तराखंड से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया, जिसमें 3 लाख अस्थायी और लगभग 28,631 लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं। स्थायी पलायन की दर में थोड़ी गिरावट आई है, लेकिन अस्थायी पलायन में वृद्धि चिंता का विषय बनी हुई है। साल 2011 से 2022 के बीच उत्तराखंड में ‘भूतिया गांवों’ की संख्या बढ़कर 1,792 हो गई है। इन गांवों में जनसंख्या में भारी गिरावट आई है या पूरी तरह खाली हो चुके हैं।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में कृषि योग्य भूमि में 27.2 फीसद और उत्पादन में 15.2 फीसद की गिरावट आई है। विशेष रूप से आलू की पैदावार में 70 फीसद से अधिक की कमी दर्ज की गई है।
पलायन का सबसे बड़ा कारण रोजगार के अवसरों की कमी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता तथा आधारभूत ढांचे का अभाव है। आयोग के अनुसार, कुछ क्षेत्रों में कृषि, पशुपालन और स्वरोजगार के प्रयासों से थोड़ी सकारात्मक प्रगति हुई है। लेकिन, अभी भी समग्र नीति और स्थायी समाधान की आवश्यकता है। पलायन को रोकने के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विकास बेहद जरूरी है।
शिक्षा और कौशल विकास की चुनौतियां

ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा अक्सर केवल किताबी होती है, जिससे वे व्यावसायिक और तकनीकी कौशल सीखने से वंचित रह जाती हैं। व्यावहारिक प्रशिक्षण केंद्रों की कमी उनके रोजगार के अवसर सीमित करती है। भारत कौशल रिपोर्ट 2021 के अनुसार, लगभग 50 फीसद स्नातक रोजगार योग्य नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) की भारत रोजगार रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत के बेरोजगार कार्यबल में युवाओं की हिस्सेदारी लगभग 83 प्रतिशत है और कुल बेरोजगार युवाओं में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की हिस्सेदारी 2000 में 35.2 प्रतिशत से लगभग दोगुनी होकर 2022 में 65.7 प्रतिशत हो गई है।
आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2018 से 2022 के बीच उत्तराखंड से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया, जिसमें 3 लाख अस्थायी और लगभग 28,631 लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं। स्थायी पलायन की दर में थोड़ी गिरावट आई है, लेकिन अस्थायी पलायन में वृद्धि चिंता का विषय बनी हुई है।
सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाओं को कई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनके सशक्तिकरण में बाधा बनती है। टाइम यूस सर्वे 2019 के अनुसार 15-59 साल की लगभग 85 फीसद महिलाएं अवैतनिक कामों यानी बिना वेतन के घरेलू कामों में लगी हैं, जिससे उनके पास औपचारिक रोजगार के लिए समय कम होता है। भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर केवल 32.8 फीसद है, जो वैश्विक औसत 48.7 फीसद से काफी कम है। सामाजिक मान्यताएं और कौशल प्रशिक्षण की कमी भी इसका कारण हैं। ग्रामीण इलाकों में 60 फीसद महिलाएं अकेले बाहर यात्रा नहीं कर पातीं, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक विकास बाधित होता है। वहीं यूनाइटेड नैशन वुमन की रिपोर्ट के अनुसार, दो अरब महिलाएं सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं। इसलिए, महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के लिए इन मुद्दों पर ध्यान देना जरूरत है।
सुरक्षित कार्यस्थल की कमी और लैंगिक असमानताएं

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (पॉश) के बावजूद, साल 2018 से हर साल कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के 400 से अधिक मामले दर्ज किए गए। उत्तराखंड की ग्रामीण सामाजिक संरचना में पितृसत्ता गहराई से मौजूद है, जो महिलाओं को घरेलू कामों तक सीमित करती है। कामकाजी महिलाओं को समाज में संदेह की नज़र से देखा जाता है, जिससे उनका आत्मविश्वास और स्वतंत्रता प्रभावित होती है। यह सोच महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और आर्थिक भागीदारी को रोकती है। भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) साल 2011-12 में 31.2 फीसद से घटकर 2017-18 में 23.3 फीसद हो गई। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में 11 फीसद से अधिक कमी आई। हालांकि, साल 2017-18 से 2022-23 के बीच महिलाओं की श्रम भागीदारी 23.3 फीसद से बढ़कर 37.0 फीसद हुई है।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाओं को कई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनके सशक्तिकरण में बाधा बनती है। टाइम यूस सर्वे 2019 के अनुसार 15-59 साल की लगभग 85 फीसद महिलाएं अवैतनिक कामों यानी बिना वेतन के घरेलू कामों में लगी हैं, जिससे उनके पास औपचारिक रोजगार के लिए समय कम होता है।
स्वरोजगार और उद्यमिता की बाधाएं
उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाएं स्वरोजगार में बाधाओं का सामना करती हैं, जिनमें पूंजी की कमी, प्रशिक्षण और बाज़ार की जानकारी का अभाव मुख्य हैं। पुरुषों का आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण और पारिवारिक समर्थन की कमी भी उनकी उद्यमिता को रोकती है। सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं महिलाओं को व्यवसाय शुरू करने से रोकती हैं। इसके कारण वे आधुनिक रोजगार और स्वरोजगार के अवसरों से वंचित रह जाती हैं। इन समस्याओं को हल करने के लिए वित्तीय सहायता, कौशल विकास, और सामाजिक समर्थन आवश्यक है ताकि महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें। सरकार की चलाई जा रही महिला सशक्तिकरण योजनाएं अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों तक सही तरीके से नहीं पहुंच पातीं। जानकारी का अभाव, अधिकारियों की उदासीनता और जटिल प्रक्रियाएं महिलाओं की इन योजनाओं में भागीदारी को सीमित करती हैं। प्रशिक्षण, ऋण और अन्य संसाधनों का लाभ उन्हें वास्तविक रूप से मिल ही नहीं पाता।
क्या हो सकता है समाधान
उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाओं की बेरोजगारी दूर करने के लिए व्यावसायिक कौशल विकास, डिजिटल साक्षरता, स्वरोजगार प्रशिक्षण और लघु उद्योगों को बढ़ावा देना आवश्यक है। स्वयं सहायता समूहों और सहकारी समितियां महिलाओं को वित्तीय सहायता, सामूहिक विपणन और सामाजिक समर्थन प्रदान करती हैं। इससे वे समूह बनाकर उत्पाद तैयार करती हैं, जैसे जैविक उत्पाद, हस्तशिल्प आदि, जिन्हें स्थानीय और ऑनलाइन बाजारों में बेचा जा सकता है, जिससे उनकी आय और आत्मनिर्भरता बढ़ती है। उत्तराखंड की पहाड़ी महिलाओं की बेरोजगारी केवल आर्थिक नहीं, बल्कि एक मानवीय और सामाजिक संकट भी है। नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे महिला-केंद्रित योजनाएँ बनाएं, जो व्यावसायिक प्रशिक्षण, सुरक्षित कार्यस्थल और स्वरोजगार को बढ़ावा दें। समाज को भी अपनी सोच में बदलाव लाकर महिलाओं को बराबरी का अवसर देना होगा। जब महिलाएं आत्मनिर्भर बनेंगी, तो न केवल उनके जीवन में बदलाव आएगा, बल्कि पूरे राज्य का सामाजिक व आर्थिक विकास संभव हो सकेगा।