स्वास्थ्य सिकल सेल रोग और गर्भावस्था: डब्ल्यूएचओ का पहला वैश्विक दिशानिर्देश जारी

सिकल सेल रोग और गर्भावस्था: डब्ल्यूएचओ का पहला वैश्विक दिशानिर्देश जारी

विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ ने सिकल सेल रोग से प्रभावित गर्भवती महिलाओं की देखभाल को लेकर पहली बार वैश्विक गाइडलाइन जारी की है। इसमें महिलाओं की व्यक्तिगत जरूरतों, उनके स्वास्थ्य इतिहास और बुनियादी जरूरतों  को ध्यान में रखते हुए सम्मान और व्यक्तिगत देखभाल पर जोर  दिया गया है।

भारत में मातृ स्वास्थ्य एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का विषय रहा है। खासकर तब जब महिला पहले से किसी पुरानी बीमारी से जूझ रही हो। ऐसे में सिकल सेल रोग (एससीडी) से प्रभावित महिलाओं की स्थिति और भी खराब हो जाती है। यह बीमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को तो प्रभावित करती ही है। गर्भावस्था के दौरान इसका असर और भी खतरनाक हो सकता है। यह माँ और गर्भ में पल रहे भ्रूण दोनों के लिए जानलेवा हो सकती है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सिकल सेल रोग से प्रभावित गर्भवती महिलाओं की देखभाल को लेकर पहली वैश्विक गाइडलाइन जारी की है। इसमें फोलिक एसिड और आयरन सप्लीमेंटेशन खाने जैसी सिफारिशें शामिल हैं और खासकर मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसपर जोर दिया गया है। जब किसी गर्भवती महिला को खून की कमी हो तो समय पर खून चढ़ाना, गर्भावस्था के दौरान माँ और बच्चे की नियमित देखभाल करना और सिकल सेल की स्क्रीनिंग को ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त और अनिवार्य करने की बात भी की है।

गाइडलाइन में महिलाओं की व्यक्तिगत जरूरतों, उनके स्वास्थ्य इतिहास और बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत देखभाल पर जोर दिया गया है। डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि स्वास्थ्य प्रणाली में इस बीमारी वाले लोगों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसे दूर करना भी जरूरी है। इससे न केवल इस बीमारी से जूझ रही गर्भवती महिलाओं की पहचान हो सकेगी बल्कि समय पर इलाज भी संभव हो सकेगा, साथ ही मातृ और शिशु मृत्यु दर को कम करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाए जा सकेंगे। इसके अलावा यह दिशा-निर्देश ग्रामीण और हाशिये में रह रहे समुदाय या उन इलाकों के लिए भी उपयोगी हैं, जहां चिकित्सा सुविधाएं सीमित हैं और जागरूकता की भारी कमी है। 

गाइडलाइन में महिलाओं की व्यक्तिगत जरूरतों, उनके स्वास्थ्य इतिहास और बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत देखभाल पर जोर दिया गया है। डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि स्वास्थ्य प्रणाली में इस बीमारी वाले लोगों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसे दूर करना भी आवश्यक है।

सिकल सेल रोग और गर्भावस्था पर असर

सिकल सेल रोग खून से जुड़ी एक वंशानुगत बीमारी है, यानी यह बीमारी माता-पिता से बच्चों में फैलती है। इसमें शरीर की लाल रक्त कोशिकाएं अपने सामान्य गोल आकार की जगह अर्धचंद्राकार या दरांती जैसी हो जाती हैं। ये कोशिकाएं सख्त और चिपचिपी हो जाती हैं और खून के बहाव में रुकावट पैदा करती हैं। जिससे शरीर के कई अंगों तक ऑक्सीजन का पहुंचना मुश्किल हो जाता है। इसका असर शरीर के कई हिस्सों पर पड़ता है। इसके कारण बीमार व्यक्ति को गंभीर खून की कमी या एनीमिया हो सकता है। तेज़ और बार-बार होने वाला दर्द, लगातार संक्रमण, और कुछ मामलों में स्ट्रोक, सेप्सिस (रक्त में संक्रमण) या शरीर के किसी अंग का काम करना बंद कर देना जैसी गंभीर समस्याएं भी हो सकती हैं। सिकल सेल रोग एक ऐसा शब्द है जो इस बीमारी के कई अलग-अलग प्रकारों को मिलाकर बोला जाता है।

तस्वीर साभार : The South First

डॉक्टर आमतौर पर इस प्रकार को सिकल सेल एनीमिया कहते हैं जो सबसे ज़्यादा खून की कमी पैदा करता है। इसके सबसे गंभीर प्रकार हीमोग्लोबिन एसएस और हीमोग्लोबिन बीटा-जीरो और थैलेसीमिया जैसी समस्याएं हैं। गर्भावस्था के दौरान एससीडी का असर माँ और बच्चे दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है। इस बीमारी में खून की कमी होना आम बात है। अगर किसी गर्भवती महिला को यह रोग है, तो शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो सकती है, जिससे थकान, चक्कर आना, और सांस फूलना जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं। गर्भावस्था के दौरान इस रोग से जूझ रही महिलाओं का ब्लड प्रेशर भी बढ़ जाता है, समय से पहले प्रसव होने का खतरा बना रहता है, बच्चे का वजन भी कम होता है और कई बार मिस्कैरेज होने का खतरा भी होता है। ऐसी स्थिति में ज़्यादा बार अस्पताल जाने की ज़रूरत पड़ती है और हर स्तर पर सावधानी जरूरी होती है। इसलिए गर्भवती महिलाओं को विशेष निगरानी और देखभाल की ज़रूरत होती है ताकि माँ और बच्चा दोनों सुरक्षित रहें।

सिकल सेल रोग खून से जुड़ी एक वंशानुगत बीमारी है, यानि यह बीमारी माता-पिता से बच्चों में फैलती  है। इसमें शरीर की लाल रक्त कोशिकाएं अपने सामान्य गोल आकार की जगह अर्धचंद्राकार या दरांती जैसी हो जाती हैं।

भारत में सिकल सेल रोग की वर्तमान स्थिति

अंतरराष्ट्रीय सामुदायिक चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पत्रिका के अनुसार एससीडी भारत में आदिवासी समुदायों के लिए एक गंभीर स्वास्थ्य चुनौती है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की आबादी में 8.6 फीसद हिस्सा आदिवासियों का है। इन व्यक्तियों के पास अक्सर स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुंच होती है, जिस कारण बीमारी और मृत्यु की उच्च दर का सामना करना पड़ता है। एक्स्प्रेस हेल्थ केयर में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में लगभग 7.7 करोड़ लोग एससीडी से प्रभावित हैं और यह आंकड़ा साल 2000 के बाद 40 फीसद बढ़ गया है। एससीडी से हर साल 3,75,000 से अधिक लोगों की मौत हो जाती है। भारत के अन्य राज्यों  की तुलना में इसके सबसे ज्यादा मामले मध्य प्रदेश में 10 फीसद और छत्तीसगढ़ में 30 फीसद आदिवासी समूहों में देखने को मिलते हैं।

तस्वीर साभार : The Economic Times

ओडिशा, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे अन्य राज्यों में इस रोग की दर कम है। द वीक पत्रिका के अनुसार, भारत में 20 करोड़ से ज्यादा लोगों में  सिकल सेल के लक्षण होते हैं और हर साल लगभग 30 हज़ार बच्चे इस बीमारी के साथ पैदा होते हैं। भारत के कुछ आदिवासी और ग्रामीण समुदायों में इस रोग के जीन पीढ़ियों से मौजूद हैं । इसलिए वहां यह बीमारी पीढ़ी दर पीढ़ी फैलती जा रही है। एससीडी की समस्या केवल जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। यह सही है कि यह एक वंशानुगत बीमारी है। लेकिन गरीबी, पितृसत्ता और सीमित स्वास्थ्य सुविधाएं इस बीमारी को और भी गंभीर बना देती हैं। भारत में यह रोग खासकर आदिवासी और हाशिये पर रह रहे समुदायों में पाया जाता है, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है।

अंतरराष्ट्रीय सामुदायिक चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पत्रिका के अनुसार एससीडी भारत में आदिवासी समुदायों के लिए एक गंभीर स्वास्थ्य चुनौती है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की आबादी में 8.6 फीसद हिस्सा आदिवासियों का है।

गरीब परिवारों में ना तो समय पर जांच हो पाती है और ना ही इलाज के लिए जरूरी दवाएं और पोषण मिल पाता है। वहीं पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। खासकर गर्भवती महिलाओं को सही इलाज और आराम नहीं मिल पाता जिससे उनकी स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक एससीडी से पीड़ित महिलाओं में मातृ मृत्यु की संभावना सामान्य महिलाओं से 4 से 11 गुना अधिक होती है। इसके अलावा समाज में मौजूद भेदभाव और जागरूकता की कमी भी एक बड़ी चुनौती है, जो एससीडी जैसी बीमारियों को समय रहते पहचानने और उनका इलाज करने में बाधा बनती है।

नीतिगत सुधारों की ज़रूरत भारत सरकार और राज्य की भूमिका

तस्वीर साभार : CBS

एससीडी जैसी गंभीर और लंबे समय तक चलने वाली बीमारी से निपटने के लिए केवल इलाज ही नहीं, बल्कि मजबूत नीतिगत सुधारों की भी ज़रूरत है। यह रोग भारत के उन समुदायों में अधिक फैलता है जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बना पाने में हाशिये पर मौजूद हैं। आज भी देश में लाखों लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं, लेकिन बहुत कम लोगों की समय पर पहचान और इलाज हो पाता है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है स्वास्थ्य नीति की कमी, जागरूकता की कमी, और प्राथमिक स्तर पर संसाधनों की कमी। इंडिया स्पेन्ड के मुताबिक भारत में हर दसवां बच्चा बिना डॉक्टर, नर्स, दाई या किसी और स्वास्थ्यकर्मी की मदद के पैदा होता है। जन्म के समय उन्हें किसी भी तरह की स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिलती है। इसका एक उदाहरण झारखंड में देखा जा सकता है। झारखंड के आदिवासी इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की हालत चिंताजनक है। संसद में साल 2021 में दिए गए जवाब में कहा था कि झारखंड के ग्रामिण क्षेत्रों में डॉक्टरों के 142 पद खाली हैं। 

यह रोग भारत के उन समुदायों में अधिक फैलता है जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बना पाने में हाशिये पर मौजूद हैं। आज भी देश में लाखों लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं

 जिससे लोगों को समय पर इलाज नहीं मिल पाता। भारत में 23फीसद आदिवासी बच्चे घर पर ही जन्म लेते हैं। यहां यह देखा जा सकता है कि सरकार जो मातृ स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाएं आदिवासी लोगों को देती है वह उनके स्वास्थ्य संबंधी मान्यताओं और तरीकों के अनुरूप नहीं होती हैं। लेकिन सरकार इसके लिए नीतियां बना रही है। भारत सरकार ने साल 2047 तक एससीडी को  खत्म करने का लक्ष्य रखा है और इसके लिए राष्ट्रीय सिकल सेल उन्मूलन मिशन की शुरुआत की गई है। लेकिन इस मिशन की सफलता तभी संभव है जब राज्य सरकारें भी स्थानीय और जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं को सुचारु रूप से लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगी।

तस्वीर साभार : Forbes India

जब आदिवासी और प्रभावित क्षेत्रों में स्क्रीनिंग, परामर्श और इलाज को प्राथमिकता दी जाएगी और समाज में जागरूकता फैलाई जाएगी। इसके साथ ही स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी करके  ग्रामीण क्षेत्रों में ब्लड बैंक, दवाओं और प्रशिक्षित स्टाफ की उपलब्धता का होना बहुत जरूरी है। इसी के साथ गर्भवती महिलाओं के लिए खास देखभाल कार्यक्रम जरूरी हैं। केंद्र और राज्य सरकार दोनों को मिलकर ऐसे नीतिगत ढांचे तैयार करने चाहिए जो सामाजिक न्याय और स्वास्थ्य के अधिकार को प्राथमिकता दें। तभी इस रोग से पीड़ित हाशिए पर खड़े लोगों तक राहत पहुंचाई जा सकेगी।डब्ल्यूएचओ की नई गाइडलाइन सिकल सेल बीमारी से जूझ रही गर्भवती महिलाओं के लिए एक जरूरी और मददगार कदम है।

यह गाइडलाइन बताती है कि कैसे महिलाओं की बेहतर देखभाल की जा सकती है ताकि माँ और बच्चा दोनों सुरक्षित रहें।गर्भावस्था के समय सिकल सेल बीमारी काफी खतरनाक हो सकती है, इसलिए समय पर इलाज, खून की व्यवस्था, पोषण और लगातार देखभाल बहुत ज़रूरी है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब सरकार गांव-गांव तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाए और लोगों को जागरूक बनाए। भारत सरकार ने इस बीमारी को खत्म करने का लक्ष्य रखा है, जो एक अच्छा कदम है। लेकिन यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब राज्य और केंद्र सरकार मिलकर काम करें, खासकर उन इलाकों में जहां लोग सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।सिर्फ इलाज नहीं, बल्कि भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच को भी दूर करना होगा ताकि सभी महिलाओं को बराबरी और सुरक्षित इलाज मिल सके। डब्ल्यूएचओ की यह गाइडलाइन हमें एक बेहतर और न्यायपूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर बढ़ने का मौका देती है। जिससे हर एक इंसान को एक बराबर स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंच बनाने का मौका मिल पाएगा।

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