इतिहास चंद्रकिरण सौनरेक्सा: हिंदी साहित्य में महिला लेखन की सशक्त आवाज़| #IndianWomenInHistory

चंद्रकिरण सौनरेक्सा: हिंदी साहित्य में महिला लेखन की सशक्त आवाज़| #IndianWomenInHistory

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा एक लेखिका,स्क्रिप्ट राइटर, एडिटर और एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उनका  जन्म 19 अक्टूबर 1920 में पेशावर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।

हिंदी साहित्य में काफी समय तक पुरुष लेखकों का दबदबा रहा है, जहां लंबे समय तक महिलाओं की ज़िंदगी, उनके अनुभव और उनके संघर्षों को या तो नजरअंदाज किया गया या फिर उन्हें पुरुषों की नजर से दिखाया गया। लेकिन बीसवीं सदी के बीच के समय में कुछ महिलाओं ने इस चुप्पी को तोड़ा। उन्होंने खुद लिखा, अपनी बातें कही और साहित्य को नया रूप दिया। ऐसी ही लेखिकाओं में चंद्रकिरण सौनरेक्सा का नाम खास तौर पर लिया जाता है जिन्होंने अपने लेखन के माध्यम से महिलाओं के दुख, संघर्ष और भावनाओं को साफ तौर पर पन्नों में उकेरा। उन्होंने अपने लेखन के जरिए समाज की पितृसत्तात्मकता और महिलाओं से जुड़े भेदभाव को सबके सामने रखा और महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव पर भी सवाल उठाए।

शुरुआती जीवन और संघर्ष 

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा एक लेखिका,स्क्रिप्ट राइटर, एडिटर और एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। चन्द्रकिरण हिंदी साहित्य की जानी-मानी लेखिका, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं। वे अपने समय की उन गिनी-चुनी महिलाओं में थीं जिन्होंने लेखन के ज़रिए सामाजिक मुद्दों, महिलाओं की स्थिति और राष्ट्रवाद पर बेबाकी से लिखा। उनका जन्म 19 अक्टूबर 1920 में पेशावर(पाकिस्तान ) के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रामफल मांगलिक और माता का नाम जानकी था। उनकी शुरुआती शिक्षा सदर कन्या स्कूल से शुरू हुई थी लेकिन वह केबल चौथी कक्षा तक ही स्कूल जाकर पढ़ाई कर पाईं क्योंकि उस समय लड़कियों को स्कूल बहुत कम भेजा जाता था। परिवार और समाज की परंपरावादी सोच के कारण वें स्कूली शिक्षा हासिल नहीं कर पाई। लेकिन उन्हें पढ़ने लिखने में बहुत रुचि थी इसलिए उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और घर में रहकर ही अपनी पढ़ाई पूरी की। जब वह छोटी थीं तब से ही उन्होंने समाज, धर्म, जातिगत और महिला जीवन से जुड़े भेदभाव के बारे में प्रश्न उठाने शुरू कर दिए थे। साल 1931 में जब महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन पूरे देश में फैल रहा था।

परिवार और समाज की परंपरावादी सोच के कारण वें स्कूली शिक्षा हासिल नहीं कर पाई। लेकिन उन्हें पढ़ने लिखने में बहुत रुचि थी इसलिए उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और घर में रहकर ही अपनी पढ़ाई पूरी की।

तब उन्होंने भी विरोध प्रदर्शन करने के लिए धरनों में भाग लेने की इच्छा जताई थी जो उनकी राजनीतिक चेतना का शुरुआती प्रमाण था। इस दौरान घर में पढ़कर ही उन्होंने साल 1935 में प्रभाकर और साल 1936 साहित्यरत्न की परीक्षाएं पास कर ली थी। जब वह 13 साल की थीं तब उनकी माता की मृत्यु हो गई। इसके बाद, उन्होंने खुद को घर की चारदीवारी तक सीमित कर लिया और घर चलाने के साथ-साथ जो भी पढ़ाई कर सकती थीं, उसे पूरा किया। कुछ सालों बाद उनके पिता की भी मृत्यु हो गई जिस कारण वह बहुत अकेली पड़ गई।  इन दोनों घटनाओं ने उन्हें गहरे अकेलेपन और जिम्मेदारियों में धकेल दिया। अपने माता-पिता को इतनी छोटी उम्र में खो देना उनके लिए एक भावनात्मक आघात या दुख था। लेकिन उन्होंने टूटने की बजाय खुद को मजबूत किया, घर की जिम्मेदारी संभाली और साथ-साथ पढ़ाई और लेखन को भी जारी रखा। सामाजिक पाबंदी और व्यक्तिगत संघर्षों के बीच उन्होंने अपनी रचनात्मकता को मरने नहीं दिया बल्कि उसे अपनी ताकत बना लिया।

साहित्य लेखन और रचनाएं 

तस्वीर साभार : Samalochan

चंद्रकिरण ने केवल 11 साल की उम्र में कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। साल 1933 में भारत मित्र पत्रिका में उनकी लिखी हुई पहली कहानी ‘घीसु चमार’ छपी थी। कहानियों और गीतों का उस समय किसी स्थानीय अखबार में छपना बहुत बड़ी बात थी। जब उनकी कहानियां छपने लगी तो इससे उन्हें और भी ज्यादा प्रोत्साहन मिला। 30 दिसंबर 1940 को चंद्रकिरण की शादी  कांतिचंद्र सौनरेक्सा से हुई, जो एक प्रसिद्ध संपादक थे। यह शादी उनके लिए सिर्फ पारिवारिक नहीं, बल्कि साहित्यिक जीवन का एक नया और अहम मोड़ थी। कांतिचंद्र खुद लेखन और साहित्य से जुड़े थे, इसलिए शादी के बाद चंद्रकिरण के लिए साहित्य का रास्ता और भी ज्यादा खुल गया। उन्हें एक ऐसा माहौल मिला जहां उनका लेखन और सोच दोनों को उड़ान मिली। सुमित्रानंदन पंत और जगदीशचंद्र माथुर के प्रोत्साहन से चंद्रकिरण ने साल 1956 से 1979 तक लखनऊ आकाशवाणी में काम किया।

चंद्रकिरण ने केवल 11 साल की उम्र में कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। साल 1933 में भारत मित्र पत्रिका में उनकी लिखी हुई पहली कहानी ‘घीसु चमार’ छपी थी। कहानियों और गीतों का उस समय किसी स्थानीय अखबार में छपना बहुत बड़ी बात थी।

वहां उन्होंने स्क्रिप्ट राइटर और एडिटर के रूप में नाटकों और कहानियों की स्क्रिप्ट लिखने और संपादन का काम संभाला। इस दौरान उन्होंने कई बाल नाटक और गीत लिखे, जो बच्चों और बड़ों में खूब पसंद किए गए। उनकी रचनाएं  रेडियो के ज़रिए लोगों तक पहुंची जिससे उन्हें एक नई पहचान मिली। चंद्रकिरण के लेखन का मुख्य विषय हमेशा महिलाओं का जीवन रहा। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए उन महिलाओं की बात की जो गरीबी, जाति आधारित भेदभाव, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा और मानसिक दबाव जैसी समस्याओं से जूझती हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब ‘पिंजरे की मैना’ एक आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने ही अनुभवों के ज़रिए यह दिखाया है कि एक मध्यमवर्गीय औरत की ज़िंदगी बाहर से भले ही सामान्य दिखे, लेकिन अंदर से वह कितनी अकेली, थकी हुई और घुटन से भरी हो सकती है।

इस किताब में उन्होंने बताया कि एक महिला कैसे अपने ही घर में कैद होकर रह जाती है वह बोल सकती है, गा सकती है, लेकिन अपनी मर्ज़ी से उड़ नहीं सकती। जैसे पिंजरे में एक बंद मैना होती है खूबसूरत पर बेबस। पिंजरे की मैना को नारीवादी साहित्य में एक अहम किताब माना जाता है।  क्योंकि इसमें बिना किसी शोर या आरोप के, बहुत गहराई से यह बताया गया है कि औरतों की आज़ादी सिर्फ बाहर जाने तक की नहीं, बल्कि सोचने, चाहने और जीने की भी होती है। इस किताब के अलावा उन्होंने 300 कहानियां , उपन्यास, नाटक, आत्मकथा और बाल साहित्य में अपना रचनात्मक साहित्यिक योगदान दिया। जिनमें से और दिया जलता है, कहीं से कहीं तक, दूसरा बच्चा, आधा कमरा, पीढ़ियों के पुल, चंदन चांदनी आदि प्रमुख रचनाएं हैं। इन रचनाओं में भाषा सरल है, पर भावनाएं  गहरी हैं। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से न केवल सामाजिक सच्चाइयों को उजागर किया, बल्कि हिंदी साहित्य को नई दिशा भी दी।

 उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब ‘पिंजरे की मैना’ एक आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने ही अनुभवों के ज़रिए यह दिखाया है कि एक मध्यमवर्गीय औरत की ज़िंदगी बाहर से भले ही सामान्य दिखे, लेकिन अंदर से वह कितनी अकेली, थकी हुई और घुटन से भरी हो सकती है।

पुरस्कार और सम्मान  

तस्वीर साभार: Rajkamal Prakashan

चंद्रकिरण को उनके लेखन के लिए देश और विदेश हर जगह सम्मानित किया गया। उनकी रचनाओं का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ। लंदन विश्वविद्यालय , ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और बर्कले में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में निर्धारित पाठ्यक्रम में उनकी कहानियां पढ़ाई गई । साल 1946 में उनकी लिखी हुई कहानी  आदमखोर के लिए उन्हें सेक्सेरिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साल 1986 में उन्हें सारस्वत सम्मान और 1988 में सुभद्राकुमारी चौहान स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और साल 2001 में उन्हें हिंदी अकादमी, दिल्ली में  20वीं सदी की सर्वश्रेष्ठ महिला कथाकार का सम्मान मिला। इसके कुछ सालों के बाद 2009 में उनकी मृत्यु हो गई थी। लेकिन अपनी कहानियों और रचनाओं के माध्यम से वह हमेशा जीवित रहेंगी। 

चंद्रकिरण हिंदी साहित्य की एक ऐसी मजबूत लेखिका थीं, जिन्होंने समाज में महिलाओं के जीवन, उनके दुख-दर्द और संघर्षों को अपनी कहानियों में सच्चाई से दिखाया। उन्होंने कम उम्र में ही लिखना शुरू किया और जीवन की तमाम मुश्किलों के बावजूद लेखन को कभी नहीं छोड़ा। उनकी रचनाएं खासकर पिंजरे की मैना यह दिखाती हैं कि एक महिला बाहर से भले ही खुश दिखे, लेकिन अंदर से वह कितनी अकेली और घुटन भरी जिंदगी जीती है यह उसके अलावा कोई नहीं जान सकता। चंद्रकिरण ने महिलाओं की आवाज को सामने लाने का काम किया और साहित्य को नई दिशा दी। उनके शब्द आज भी पढ़ने वालों को सोचने और समझने पर मजबूर करते हैं। वह भले ही आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानियां हमेशा हमारे बीच जिंदा रहेंगी।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content