भारत अनेक भाषाओं और सांस्कृतिक परंपराओं वाला देश है। यहां हर जगह की अपनी अलग बोली, अलग संस्कृति और अलग साहित्यिक विरासत है। लेकिन अक्सर क्षेत्रीय या ग्रामीण भाषाओं और उनमें रचने-बसने वाले साहित्यकारों को वह पहचान नहीं मिलती जिसके वे हकदार होते हैं खासतौर पर अगर वे महिलाएं हों। ऐसे समय में जब महिला लेखन को सीमित समझा जाता था। पद्मा सचदेव ने डोगरी भाषा में न सिर्फ लेखन की शुरुआत की, बल्कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी दिलाई। वे डोगरी भाषा के लेखन की पहली आधुनिक महिला कवयित्री थीं। जिन्होंने अपनी डोगरी बोली को एक साहित्यिक मंच दिया और महिला अनुभवों को अपनी कविताओं और गद्य के माध्यम से गहराई से व्यक्त किया। उनका लेखन महिलाओं के जीवन की मुश्किलों, प्रेम, पीड़ा, संस्कृति और सामाजिक सच्चाई को गहराई और संवेदनशीलता से सामने लाता है। सचदेव ने यह साबित किया कि क्षेत्रीय भाषाएं भी भाव, विचार और संवेदना की मजबूत जरिया हो सकती हैं।
शुरुआती जीवन
पद्मा सचदेव भारत की प्रसिद्ध लेखिका और डोगरी भाषा की पहली आधुनिक महिला कवयित्री थीं। उनका जन्म 17 अप्रैल 1940 को जम्मू और कश्मीर में हुआ था। उनके पिता का नाम जय देव बडू था जिन्होंने 1947 के विभाजन के दौरान अपनी जान गंवा दी थी। पद्मा की शुरुआती शिक्षा उनके पैतृक गांव पुरमंडल के प्राथमिक विद्यालय में हुई। अपने पारंपरिक घर में वह संस्कृत के श्लोक और हिंदी दोहे गाते हुए बड़ी हुईं और बाद में, स्थानीय महिलाओं के समूह के साथ ढोलक की संगत में डोगरी लोकगीत गाने लगीं और डोगरी लोकगीतों की तर्ज पर सरल छंदों की रचना करने लगीं। 14 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता “ऐ राजे दियां मांडियां तुंडियां ने” लिखी यह लंबी कविता अपनी गहराई, सोच, भाषा और शैली के कारण सभी का ध्यान खींचने में सफल रही।
पद्मा सचदेव भारत की प्रसिद्ध लेखिका और डोगरी भाषा की पहली आधुनिक महिला कवयित्री थीं। उनका जन्म 17 अप्रैल 1940 को जम्मू और कश्मीर में हुआ था।
इसमें उन्होंने समाज के शोषित और गरीब लोगों की भावनाओं को साहस के साथ सांझा किया। इस कविता में क्रांतिकारी विचार साफ झलकते हैं। आज यह कविता डोगरी साहित्य के लगभग हर कविता-संग्रह में शामिल होती है और पद्मा सचदेव की सबसे अहम रचनाओं में से एक मानी जाती है। साल 1960 के दशक के अंत में कॉलेज के पहले साल में पढ़ते समय, वह डोगरी कवियों के साथ मंच साझा करने वाली डोगरी भाषा की पहली कवयित्री बनीं। इस अवसर पर उनकी सुनाई गई कविता उर्दू समाचार पत्र संदेश में भी छपी थी। जिसका संपादन वेद पाल दीप ने किया था, जो एक प्रमुख डोगरी कवि थे।
पद्मा सचदेव का संघर्ष

सचदेव का जीवन केवल साहित्यिक सफलता की कहानी नहीं, बल्कि सामाजिक, भाषाई और निजी संघर्षों से भरी हुई प्रेरक यात्रा भी है। वे ऐसे दौर में उभरीं जब डोगरी भाषा को साहित्य की मुख्यधारा में स्थान नहीं दिया जाता था, और एक महिला के लिए लेखन को गंभीरता से लिया जाना और भी कठिन था। एक महिला होकर लेखन करना, वह भी सामाजिक मुद्दों और प्रेम जैसे विषयों पर आसान नहीं था। पद्मा को आलोचनाओं, रूढ़ियों और पुरुषप्रधान सोच का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने कभी अपने लेखन की धार को कमजोर नहीं होने दिया। जब वह 16 साल की थी तब उन्होंने वेद पाल दीप से शादी कर ली जिससे उन्हें परिवार और समाज के विरोध का सामना करना पड़ा।
वे ऐसे दौर में उभरीं जब डोगरी भाषा को साहित्य की मुख्यधारा में स्थान नहीं दिया जाता था, और एक महिला के लिए लेखन को गंभीरता से लिया जाना और भी कठिन था। एक महिला होकर लेखन करना, वह भी सामाजिक मुद्दों और प्रेम जैसे विषयों पर आसान नहीं था।
कुछ समय बाद उन्हें टीबी की समस्या हो गई। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्हें तीन साल श्रीनगर के एक अस्पताल में रहना पड़ा। ठीक होने के बाद पद्मा जम्मू लौट आईं और रेडियो कश्मीर जम्मू में स्टाफ आर्टिस्ट के रूप में काम किया। कुछ समय बाद ही वे अपने पति वेद पाल से अलग हो गईं और उनकी नौकरी भी चली गई। यह समय उनके लिए काफी मुश्किल था। इसके बाद वे दिल्ली चली गईं और डोगरी समाचार वाचक के रूप में काम किया। बाद में साल 1966 में उन्होंने सरदार सुरिंदर सिंह सचदेव से शादी कर ली वह भारतीय शास्त्रीय संगीत के उस्ताद थे। पद्मा के जीवन का हर मोड़ बीमारी, अकेलापन, सामाजिक आलोचना और आर्थिक असुरक्षा के साथ गुजरा लेकिन उन्हें तोड़ नहीं पाया, बल्कि और निखारता चला गया। आज पद्मा केवल एक लेखिका नहीं बल्कि डोगरी भाषा की पहचान और महिला संघर्ष की मिसाल बन चुकी हैं।
साहित्यिक रचनाएं और पुरस्कार

पद्मा की साहित्यिक यात्रा बचपन से ही शुरू हो गई थी। उन्हें छोटी उम्र से ही कहानियां और कविताएं लिखने का शौक था। जम्मू में रहते हुए उन्होंने लिखना शुरू किया। लेकिन उनके लिखने की राह को असली दिशा मिली जब उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, जम्मू में डोगरी भाषा की वाचिका के रूप में काम करना शुरू किया। वहां वे लोककथाएं, कविताएं और अपने जीवन से जुड़ी बातें सुनाया करती थीं। इसी काम के ज़रिए उन्हें भाषा के अलग-अलग रूपों और गहराइयों को समझने का मौका मिला। साल 1969 में पद्मा का पहला संग्रह ‘मेरी कविता मेरे गीत’ छपा, इस किताब के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और वह डोगरी में राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की महिला थी। डोगरी के साथ- साथ उन्होंने हिंदी में कविताएं, लघु कहानियां और उपन्यास लिखे। जिसमे नदियां तवी और चिनाब, नेहरियान गलियां, पोटा पोटा निम्बल, मैं कहती हूं अंखिन देखी,जम्मू जो कभी सहारा था आदि प्रमुख हैं। साल 1971 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । उन्होंने वेद राही की साल 1973 की हिंदी फिल्म ‘प्रेम परबत’ के लिए ‘मेरा छोटा सा घर बार’ गीत के बोल भी लिखे। इसके बाद साल 1979 की हिंदी फिल्म ‘साहस’ के लिए भी गीत लिखे।
डोगरी के साथ- साथ उन्होंने हिंदी में कविताएं, लघु कहानियां और उपन्यास लिखे। जिसमे नदियां तवी और चिनाब, नेहरियान गलियां, पोटा पोटा निम्बल, मैं कहती हूं अंखिन देखी,जम्मू जो कभी सहारा था आदि प्रमुख हैं। साल 1971 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया ।
शिक्षा और साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें साल 2001 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1987 में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया और साल 1988 में उन्हें हिंदी अकादमी पुरस्कार मिला। उनकी आत्मकथा ‘चित्त-चेटे’ को 2015 में प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया गया था और केके बिड़ला फाउंडेशन, जिसने इस पुरस्कार की स्थापना की थी, उन्होंने उनकी बहुत प्रशंसा की थी। एक आधिकारिक बयान में फाउंडेशन ने कहा कि 600 से ज़्यादा पन्नों वाले इस काम में ऐसे मुहावरे और बातें इस्तेमाल की गई हैं जो जम्मू-कश्मीर (दुग्गर प्रदेश) की खुशबू लेकर आते हैं। यह किताब राज्य के इतिहास, कला और संस्कृति की झलक दिखाती है। इसमें इस्तेमाल की गई भाषा बहुत ही ज़िंदादिल है और डोगरी भाषा के लिए एक तरह से जीवंत शब्दकोश की तरह काम करती है।

द प्रिन्ट में छपे एक लेख के अनुसार उन्होंने अन्य लेखकों और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर अपनी स्थानीय भाषा को मान्यता दिलाने के लिए लगातार संघर्ष किया। जब 2003 में डोगरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो यह उनके लिए सबसे खुशी का दिन था क्योंकि उनकी बोली को अब भाषा की पहचान मिल गई थी। यह उनकी पहल का ही असर था कि लता मंगेशकर ने डोगरी गीतों की पहली लोकप्रिय एलबम को अपनी आवाज दी। जिसमें उनका सदाबहार गीत निक्कडे फंगडू ऊंची उड़ान और लोरी, भला सिपाहिया डोगरिया, टून माला टून, लोक पहनन ठिकरियां बादाम पहनने टून शामिल थे जो आज भी गुनगुनाए जाते हैं। उनका एक गाना जो हिमाचल और अन्य राज्यों में भी बहुत सुना जाता है, जिसके बोल “निक्कडे फंगड़ू उच्ची उड़ान, जाई है थमना कियां शमान, चाननियां गलें कियां लानियां, ससु ननान दे चुठे प्यार, नींदी मुंडी करी सुने जान, चुठियां रमजां कियां सेनियां“। यह बहुत लोकप्रिय है। अपने व्यक्तिगत अनुभवों से सचदेव ने डोगरा समाज और महिलाओं को परेशान करने वाले मुद्दों के बारे में लिखा जो इस गाने के बोलों में भी साफ झलकता है। 4 अगस्त 2021 में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से वह हमेशा जीवित रहेंगी।
सचदेव न सिर्फ डोगरी भाषा की पहली आधुनिक महिला कवयित्री थीं, बल्कि वे उस संघर्ष की प्रतीक हैं जो एक महिला, एक क्षेत्रीय भाषा की लेखिका और एक महिला के रूप में उन्होंने झेला और जीता। उन्होंने न केवल डोगरी को साहित्यिक पहचान दी बल्कि महिलाओं की आवाज़ को भी मजबूती से दिखाया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक साधारण पृष्ठभूमि से आई महिला भी अपनी भाषा, संस्कृति और जज़्बे से देशभर में एक गहरी छाप छोड़ सकती है। सचदेव की कविताओं और गीतों में जहां एक ओर प्रेम और पीड़ा की कोमलता है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक सच्चाइयों का चित्रण भी है। उन्होंने अपनी लेखनी से यह साबित किया कि भाषा केवल बातचीत का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान, संघर्ष और परिवर्तन का औज़ार भी है। उनकी आत्मकथा चित्त-चेटे, उनका काव्य-संग्रह और लता मंगेशकर के गाए हुए डोगरी गीत आज भी उनकी रचनात्मकता और लगन की एक बेहतरीन मिसाल बने हुए हैं।