सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि समाज की सोच और नज़रिया भी दिखाता है। इसका असर इतना दूरगामी होता है कि आम जनमानस में दशकों तक देखा जा सकता है। एक तरह से सिनेमा दर्शकों को मनोरंजन के साथ ही सोचने का तरीका और नज़रिया भी देता है। ख़ासतौर पर हिंदी फ़िल्में बनाने वाला बॉलीवुड जहां लगभग साल भर में 800-1000 के आसपास फ़िल्में बनती हैं, इसकी पहुंच दुनिया की 30 फीसद आबादी तक है। इसी वज़ह से फ़िल्में नैरेटिव सेट करने का भी सशक्त माध्यम भी बन चुकी है। समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दे ख़ासकर मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषय फ़िल्मों में लंबे समय से दिखाए जा रहे हैं।
लेकिन, अफ़सोस की बात है कि आमतौर पर इनकी प्रस्तुति संवेदनशील तरीके से नहीं की जाती है। सिनेमा के शुरुआती दौर में मानसिक स्वास्थ्य और बीमारियों को लेकर जागरूकता और संवेदनशीलता की बेहद कमी दिखती है। एक समय मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को मज़ाक, डर, सनसनीखेज, अजीब या भूत-प्रेत से जोड़ दिया जाता था जिससे फ़िल्मों में रहस्य, रोमांच और नाटकीयता डाली जा सके। हालांकि बाद में कुछ फ़िल्मकारों में जागरूकता और समझदारी देखी गई जिसका असर उनकी फ़िल्मों में साफ़तौर पर देखा जा सकता है।
मधुमति (1958) में मानसिक भ्रम को पुनर्जन्म से जोड़ा गया, जबकि रात और दिन (1967) में डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर को बिना वैज्ञानिक व्याख्या के पागलपन बताया गया। ख़ामोशी (1969) ने भले ही संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाया, लेकिन इलाज़ में वैज्ञानिकता नहीं दिखाई गई।
1950-1970 के दशक की फिल्में और मानसिक स्वास्थ्य
1950 से 1980 के दशक की फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को अक्सर ‘पागलपन’ के रूप में और अंधविश्वास या डरावनी घटनाओं से जोड़कर दिखाया गया। इस दौर की फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे पात्रों को रहस्यमयी, डरावने या दया के पात्र के रूप में पेश किया गया, और उन्हें पागलखाने में दिखाना आम था। उदाहरण के लिए मधुमति (1958) में मानसिक भ्रम को पुनर्जन्म से जोड़ा गया, जबकि रात और दिन (1967) में डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर को बिना वैज्ञानिक व्याख्या के पागलपन बताया गया। ख़ामोशी (1969) ने भले ही संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाया, लेकिन इलाज़ में वैज्ञानिकता नहीं दिखाई गई। कुल मिलाकर, इन फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य को संवेदनशीलता की बजाय रहस्य और अंधविश्वास के चश्मे से देखा गया।
1970-1990 का दौर

इस समय फ़िल्मों के प्रस्तुतीकरण में थोड़ा बदलाव देखा गया, फिर भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के चित्रण में वैज्ञानिकता की कमी थी। 70 से 90 के दशक में फ़िल्मों में टर्निंग पॉइंट लाने के लिए मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) ख़ासतौर पर उल्लेखनीय है। साल 1987 में रिलीज हुई फ़िल्म कुदरत का क़ानून फिल्म की नायिका के ट्रॉमा और दर्द को संवेदनशील तरीके से दिखाती है। लेकिन, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का ज़िक्र और उपचार के बारे में फोकस नहीं करती। साल 1983 में रिलीज हुई श्रीदेवी की मशहूर फ़िल्म सदमा भी कुछ इसी तरह की फ़िल्म है। इसमें श्रीदेवी का किरदार एम्नेसिया से ग्रस्त है, फ़िल्म भावनात्मक रूप से तो बहुत प्रभावशाली बनी है लेकिन इसका इलाज वैज्ञानिक के बजाय नाटकीय ज़्यादा है। इस तरह से देखा जाए तो इस दौर की फ़िल्मों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को ट्रॉमा से जोड़कर दिखाया गया लेकिन वैज्ञानिक समझ की कमी और अति नाटकीयता ने इसे सतही बना दिया।
जहां साल 2002 में बनी फ़िल्मों राज़ और कर्ज़ ने मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को भूत-प्रेत, अंधविश्वास और पुनर्जन्म से जोड़ा, वहीं साल 2004 में आई उर्मिला मातोंडकर की फ़िल्म एक हसीना थी में मानसिक स्वास्थ्य समस्या को बदले की भावना से जोड़कर इसे सतही बना दिया।
वैज्ञानिक और रहस्यमयता की दोहरी प्रवृत्ति
मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के चित्रण में हिंदी सिनेमा का यह दौर काफी उथल-पुथल भर रहा है। बहुत सारी फ़िल्मों ने मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को वैज्ञानिक और संवेदनशील तरीके से चित्रित किया। इसके बावजूद ऐसी फ़िल्में भी खूब बनी जिसने इसे रहस्य, रोमांच और भूत-प्रेत से जोड़कर विशुद्ध मनोरंजक बनाने पर जोर दिया। जहां साल 2002 में बनी फ़िल्मों राज़ और कर्ज़ ने मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को भूत-प्रेत, अंधविश्वास और पुनर्जन्म से जोड़ा, वहीं साल 2004 में आई उर्मिला मातोंडकर की फ़िल्म एक हसीना थी में मानसिक स्वास्थ्य समस्या को बदले की भावना से जोड़कर इसे सतही बना दिया। इसने मानसिक स्वास्थ्य समस्या पर विमर्श के बजाय इसकी गंभीरता को कम करने का काम किया। लेकिन इसी दौर में 15 पार्क एवेन्यू जैसी फ़िल्में भी आई जिसने संवेदनशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। साल 2005 में आई इस फ़िल्म ने मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को गहराई और सच्चाई के साथ दिखाया। इस फ़िल्म ने सिजोफ्रेनिया जैसी गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर जागरूकता फैलाने का काम किया।

साल 2007 में आई फ़िल्म तारे ज़मीन पर जिसमें डिस्लेक्सिया नामक स्वास्थ्य समस्याओं और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है, इस फ़िल्म में समाज में जागरूकता फैलाने का काम किया। इसने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर विमर्श के लिए एक मुद्दा दिया। लेकिन, 2007 में ही आई एक दूसरी फ़िल्म भूलभुलैया में डीआईडी को हॉरर-कॉमेडी के साथ जोड़ा गया, जिसमें एक तरीके से मानसिक स्वास्थ्य समस्या का मज़ाक़ बनाया गया। विशुद्ध मनोरंजन के लिए बनाई गई ऐसी फ़िल्में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की प्रति गंभीरता को काम करती है समाज में पहले से चली आ रही है पूर्वाग्रह और रूढ़ियों को और बढ़ाने का काम करती हैं। इसी तरह 2008 में आमिर खान स्टारर गज़नी फ़िल्म आई, जिसमें शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस जैसी बीमारी को एक्शन और बदले की कहानी के रूप में सनसनीख़ेज़ तरीके से दिखाया। इसने मानसिक स्वास्थ्य समस्या को वैज्ञानिक रूप से समझाने के बजाय सुपर पॉवर की तरह प्रस्तुत किया जोकि मानसिक स्वास्थ्य समस्या की गंभीरता को कम करता है।
साल 2016 में शाहरुख और आलिया भट्ट की फ़िल्म डियर ज़िंदगी में डिप्रेशन के दौरान थेरेपी की ज़रूरत को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है। इसने समाज में डिप्रेशन को लेकर जागरूकता फैलाने में ख़ास भूमिका निभाने का काम किया। इसी तरह 2019 में आई छिछोरे नामक फ़िल्म ने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बड़े पैमाने पर विमर्श को बढ़ावा देने का काम किया।
संवेदनशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पहल
साल 2010 के बाद से हिंदी सिनेमा ने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर संवेदनशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दे रहा है। हालांकि मनोरंजन के नाम पर सनसनीखेज असंवेदनशील चित्रण अब भी किया जा रहा है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं पर आधारित प्रगतिशील और वैज्ञानिक फ़िल्में भी बड़े पैमाने पर बनाई जा रही हैं। साल 2016 में शाहरुख और आलिया भट्ट की फ़िल्म डियर ज़िंदगी में डिप्रेशन के दौरान थेरेपी की ज़रूरत को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है। इसने समाज में डिप्रेशन को लेकर जागरूकता फैलाने में ख़ास भूमिका निभाने का काम किया। इसी तरह 2019 में आई छिछोरे नामक फ़िल्म ने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति बड़े पैमाने पर विमर्श को बढ़ावा देने का काम किया।

हालांकि इसी बीच कुछ फ़िल्मों जैसे 2013 में आई आशिक़ी-2 में नायक के अवसाद और मानसिक स्वास्थ्य समस्या को गंभीरता के साथ न दिखाकर उसे रोमांटिसाइज भी किया गया। इसी तरह 2019 की फिल्म जजमेंटल है क्या में बाइपोलर डिसऑर्डर को सनसनीख़ेज़ और नाटकीय तरीके से दिखाया गया जो बीमारी की गंभीरता को काम करता है। साल 2018 में रिलीज़ हुई स्त्री, 2022 की फ़िल्म भूल भुलैया-2 और 2024 की फ़िल्मों भूल भुलैया-3 और स्त्री-2 में मानसिक स्वास्थ्य समस्या को भूत-प्रेत की कहानियों के साथ जोड़ा गया, जो हॉरर कॉमेडी के नाम पर मनोरंजन के लिए तो ठीक है लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से अवैज्ञानिक है और समाज में पहले से चली आ रही ग़लत धारणाओं को और बढ़ावा देने का काम करता है।
साल 2018 में रिलीज़ हुई स्त्री, 2022 की फ़िल्म भूल भुलैया-2 और 2024 की फ़िल्मों भूल भुलैया-3 और स्त्री-2 में मानसिक स्वास्थ्य समस्या को भूत-प्रेत की कहानियों के साथ जोड़ा गया।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन में प्रकाशित 2015-16 की एक रिपोर्ट जो नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (NIMHANS) बेंगलुरु द्वारा भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत किए गए सर्वे पर आधारित था। इसमें पाया गया कि 10.6 फीसद भारतीय किसी न किसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या का सामना कर रहे हैं, जिनमें से 80 फीसद लोग जिनकी बीमारी 12 महीने से अधिक समय से थी, उन्हें किसी भी तरह से कोई उपचार नहीं मिल पाया। यह 12 राज्यों में 34,802 लोगों के सैंपल पर आधारित था। इससे यह साफ पता चलता है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर जागरूकता और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कितनी सीमित है। ऐसे माहौल में फ़िल्मों के माध्यम से जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिए न कि पहले से चली आ रही ग़लत धारणाओं और रूढ़ियों को और मजबूत किया जाय।
क्या हो सकता है आगे का रास्ता
हिंदी सिनेमा की शुरुआत से लेकर अब तक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर एक जटिल और बहुआयामी सफ़र रहा है। कुछ फ़िल्मों ने जहां संवेदनशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया और समाज में जागरूकता फैलाने का काम किया वहीं बहुत सारी ऐसी फ़िल्में भी बनीं जिन्होंने मनोरंजन के नाम पर रहस्य, रोमांच, भूत-प्रेत और सनसनी फैलाने के लिए मानसिक बीमारियों का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही पहले की ज़्यादातर फ़िल्मों में इलेक्ट्रोशॉक थेरेपी (ईसीटी) को सज़ा या डरावनी चीज़ की तरह दिखाया जाता था, जबकि असल में यह इलाज़ का तरीका है। इसके अलावा इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ना भी आम बात थी। यह दिखाता है कि हिंदी फ़िल्मों को मानसिक बीमारियों के चित्रण में अभी और संवेदनशील होने की ज़रूरत है। फ़िल्मकारों को मानसिक बीमारियों को दर्शाते समय ज़्यादा संवेदनशीलता का परिचय देना पड़ेगा और इन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह समाज में बदलाव लाने का एक बेहतरीन मौका बन सकता है।
साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट जिसमें 2002 से 2021 तक की 28 फ़िल्मों का विश्लेषण किया गया उसमें पता चला कि बॉलीवुड की सालाना फ़िल्मों के केवल 0.14–0.18 फीसद में ही मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषयों को उठाया गया है। यानी एक तो यह मुद्दा अभी भी बहुत कम दिखाया जाता है, ऊपर से इसका ग़लत तरीके से चित्रण गंभीरता को और काम कर देता है।
साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट जिसमें 2002 से 2021 तक की 28 फ़िल्मों का विश्लेषण किया गया उसमें पता चला कि बॉलीवुड की सालाना फ़िल्मों के केवल 0.14–0.18 फीसद में ही मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषयों को उठाया गया है। यानी एक तो यह मुद्दा अभी भी बहुत कम दिखाया जाता है, ऊपर से इसका ग़लत तरीके से चित्रण गंभीरता को और काम कर देता है। अब क्योंकि सिनेमा का प्रभाव समाज में व्यापक रूप से पड़ता है तो ऐसे में इनकी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। फ़िल्मकारों के लिए यह ज़रूरी है कि मनोरंजन के साथ ही सामाजिक ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए संवेदनशील तरीके से फ़िल्में बनाएं। इसी के साथ दर्शकों की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसी फ़िल्मों को बढ़ावा दें जिनमें मानसिक बीमारियों का संवेदनशील और वैज्ञानिक तरीके से चित्रण किया गया हो। साथ ही सरकार को भी ऐसी फ़िल्मों को टैक्स फ़्री करने और बड़े पैमाने पर दर्शकों तक पहुंचाने के लिए इंतज़ाम करना चाहिए जिससे मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज की सोच में बदलाव लाया जा सके और एक स्वस्थ और समावेशी समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़ सकें।