इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत मध्यप्रदेश के गांवों में अधिकारों के लिए संघर्ष करती महिलाओं का जीवन  

मध्यप्रदेश के गांवों में अधिकारों के लिए संघर्ष करती महिलाओं का जीवन  

लक्ष्मी, अम्मा और गेंदा जैसी औरतें हर दिन सामाजिक असमानता, हिंसा और बेरुख़ी के ख़िलाफ़ लड़ती हैं — बिना किसी मंच, आंदोलन या नारे के। उनकी चुप्पी में भी प्रतिरोध है और उनके काम में भी परिवर्तन की ताकत है। ये औरतें दिखाती हैं कि ‘आज़ादी’ सिर्फ़ एक विचार नहीं, बल्कि रोज़ की मेहनत, आत्मसम्मान और अपने फैसलों पर अधिकार का नाम है।

शहरों में नारीवाद की बहस तेज़ है। विमर्श है कि औरतें ऑफिस में कितना आगे बढ़ रही हैं, कितनी उच्च शिक्षित हो गई हैं। लेकिन जब हम उन गांवों की तरफ देखते हैं जहां सड़कें धूल से भरी हैं, और घरों की दीवारें अब भी मिट्टी से बनी होती हैं वहां की औरतें आज भी अपने अधिकारों से उतनी ही वंचित हैं, जितनी सौ साल पहले थीं। वे सुबह सूरज से पहले उठती हैं, खेतों में जाती हैं, घर संभालती हैं, बच्चों को पालती हैं और फिर भी उनके हिस्से कोई नाम नहीं आता। न पुरस्कार, न प्रोत्साहन। बस जिम्मेदारियां, ताने, और अक्सर शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक हिंसा। मध्यप्रदेश की कुल आबादी 7.27 करोड़ है, जिसमें से लगभग 5.25 करोड़ से कुछ ज्यादा लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। इनमें 2.54 करोड़ महिलाएं और 2.71 करोड़ पुरुष शामिल हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लैंगिक अनुपात 936 है, यानी हर 1000 पुरुषों पर 936 महिलाएं हैं।

तस्वीर साभार: वैशाली

वहीं ग्रामीण साक्षरता दर 63.94 फीसद है, जिसमें 74.74 फीसद पुरुष और केवल 52.43 फीसद महिलाएं साक्षर हैं। ये आंकड़े हमें दिखाते हैं कि शिक्षा, विशेषकर महिलाओं की शिक्षा, अब भी पिछड़ी हुई है। मध्यप्रदेश की कुल भूमि का लगभग पूरा हिस्सा 3,00,505 वर्ग किमी ग्रामीण क्षेत्र ही है, और यहां 54,903 गांव बसे हुए हैं। सरकार ग्रामीण विकास को लेकर योजनाएं बना रही है, पर जहां इतनी बड़ी जनसंख्या अब भी बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता से जूझ रही हो, वहां नीतियों की प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं क्योंकि सिर्फ आंकड़े गिनने से बदलाव नहीं आता बदलाव तब आता है जब इन आंकड़ों के पीछे छिपी कहानियों को समझा जाए।

सरकार ग्रामीण विकास को लेकर योजनाएं बना रही है, पर जहां इतनी बड़ी जनसंख्या अब भी बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता से जूझ रही हो, वहां नीतियों की प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं क्योंकि सिर्फ आंकड़े गिनने से बदलाव नहीं आता बदलाव तब आता है जब इन आंकड़ों के पीछे छिपी कहानियों को समझा जाए।

इन आंकड़ों के पीछे हर दिन जीती जा रही जिंदगियां हैं जिनमें संघर्ष, आंसू और फिर भी मुस्कान की आदत हो चुकी है। मैंने फेमिनिज़म इन इंडिया की तरफ से जब मध्यप्रदेश के कुछ गांवों में महिलाओं से बात की, तो हर एक कहानी दिल को छूने वाली थी। ये वो महिलाएं हैं जो कभी स्कूल नहीं जा पाईं, या स्कूल से निकाल दी गईं क्योंकि अब वो बड़ी हो गई थीं।

तस्वीर साभार: वैशाली

ये वो महिलाएं हैं जिनमें कईयों ने एक ही ज्यादा सुखी गृहस्थ जीवन की कोशिश की पर हर बार हिंसा का सामना करना पड़ा। लेकिन, ये फिर भी हार नहीं मानी। जो घर से निकलीं, अपना घर खुद बनाई और आगे बढ़ने का हौंसला खुद ही तैयार की। इस लेख में हम तीन ऐसी ही ग्रामीण महिलाओं की कहानी साझा कर रहे हैं जिन्होंने ज़िंदगी के हर चुनौतियों और परेशानियों से आगे बढ़ते हुए उम्मीद का दूसरा नाम बनना चुना।

हिंसा और अपमान के आगे जीवन

जबलपुर ज़िले के बरेला गांव की लक्ष्मी बर्मन की कहानी एक आम लड़की की असाधारण हिम्मत की कहानी है। आठवीं तक पढ़ाई करने के बाद, उनके घरवालों ने उनकी शादी ये सोचकर कर दी कि अब लड़की बड़ी हो गई है। पहली शादी में उन्हें अपमान और तिरस्कार झेलना पड़ा, और जब पति ने उन्हें छोड़ दिया तो परिवार ने उन्हें फिर से अपने घर बुला लिया। लेकिन जब आर्थिक तंगी ने सर उठाया, तो उन्हें दोबारा शादी के लिए मजबूर किया गया। दूसरी शादी और भी दुखद रही। उन्होंने घरेलू हिंसा, ताने, मानसिक प्रताड़ना और अपमान का सामना किया। ऐसे माहौल में उन्होंने फैसला किया कि वे अपने पति के साथ नहीं रहेगी। उन्होंने पति का घर छोड़ दिया, अपने माता-पिता की दी ज़मीन पर दो कमरों का घर खुद खड़ा किया, और मज़दूरी करके अपना जीवन फिर से शुरू किया। लक्ष्मी कहती हैं, “इज़्ज़त नहीं मिली, तो कमाई मांगूंगी नहीं।

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किसी के घर रोते-पीटते रहने से अच्छा है कि अकेले मेहनत से जीऊँ।” उनकी आवाज़ में आज डर नहीं, बल्कि गर्व है उस आज़ादी का, जिसे उन्होंने खुद चुनौतियों का सामना करते हुए चुना है। अम्मा, जबलपुर के एक मोहल्ले में झाड़ू और पोछे से अपना गुज़ारा चलाती हैं। उनके चार बेटे हैं, जिन्हें उन्होंने अपनी ताक़त और मेहनत की कमाई से पढ़ाया और बड़ा किया है। लेकिन जब उम्र बढ़ी तो साथ में अकेलेपन भी खलने लगा। बेटों की राहें अलग हो गईं। कुछ ग़लत संगत में पड़े, एक जेल पहुंचा, और बहुओं से सम्मान की जगह ताने मिलने लगे। अम्मा के पति बीमार हैं और पूरी ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई है। वो सुबह चार बजे उठती हैं, घरेलू काम करती हैं। फिर अपने बीमार पति की देखभाल करती हैं और शाम को वापस वही जीवन जीने के लिए वापस लौटती हैं।

आत्मसम्मान के जीवन के लिए संघर्ष   

फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत में हमने जानने की कोशिश की कि वे इतना सब अकेले कैसे करती हैं। वह कहती हैं, “थकान तो रोज़ होती है पर रुकने का हक नहीं है। अब तो आदत बन गई है।” उस एक वाक्य में एक पूरी पीढ़ी का दर्द था, जिसे कभी न सुना गया, न समझा गया। गेंदा बर्मन से हमारी मुलाकात उस वक्त हुई जब वो निर्माण में मजदूरी कर रही थीं। गेंदा का संघर्ष उसकी शादी के बाद से ही शुरू हो गया था। पति शराबी निकला और मौखिक और शारीरिक हिंसा करता था। लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने मज़दूरी शुरू की। पहले पति के साथ के लिए, फिर बेटे के पालन-पोषण के लिए, और अब खुद की ज़िंदगी के लिए। वह पिछले 25 वर्षों से लगातार मज़दूरी कर रही हैं। वह कहती हैं, “थकना तब होता है जब कोई साथ हो। मैं तो खुद ही अपने लिए सब कुछ हूं।” उनकी साड़ी में सीमेंट के दाग थे, शरीर में थकान। लेकिन आंखों में एक तेज़ था जो ये सिखा देता है कि आत्मसम्मान के लिए महिलाएं किसी भी चुनौती का सामना करती हैं।

तस्वीर साभार: वैशाली

लक्ष्मी, अम्मा और गेंदा जैसी महिलाएं हमें एक आईना दिखाती हैं। भारत की आधी आबादी आज भी दोहरी लड़ाई लड़ रही है। ये वो महिलाएं हैं जिनके पास नारीवादी विचारधारा के लिए कोई किताब या थ्योरी और बैठकें नहीं हैं। इन्हें कोई किसी मंच पर कोई नहीं बुलाता और न ही इनके जैसी हजारों आवाज़ें किसी आंदोलन में शामिल होती हैं। लेकिन वो हर दिन कुछ ऐसा करती हैं जो समाज के तथाकथित ‘आत्मनिर्भर भारत’ को मजबूती देता है। जब हम नारीवाद की बात करते हैं तो अक्सर शहरी जीवन, सोशल मीडिया एक्टिविज़्म या कानूनी अधिकारों की चर्चा होती है। लेकिन ज़मीनी नारीवाद उन गांवों की धूल से भी सना है जहां एक औरत झाड़ू उठाने से पहले अपने घर के लोगों की सेवा करती है या इन सबसे खुदको बाहर निकालती है। जहां एक बेटी अपने जीवन का फैसला खुद लेती है, भले ही पूरी दुनिया उसके खिलाफ क्यों न हो, जहां एक मज़दूर महिला सालों से दूसरों के घर बनाते हुए यह सीख चुकी है कि अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ेगी।

इन तीनों महिलाओं की कहानियां हमें यह सिखाती हैं कि नारीवाद केवल किताबों या सभागारों में होने वाली चर्चाओं का विषय नहीं है, बल्कि यह रोज़मर्रा की ज़िंदगी में लड़े जाने वाले छोटे-छोटे संघर्षों में भी ज़िंदा रहता है। लक्ष्मी, अम्मा और गेंदा जैसी औरतें हर दिन सामाजिक असमानता, हिंसा और बेरुख़ी के ख़िलाफ़ लड़ती हैं — बिना किसी मंच, आंदोलन या नारे के। उनकी चुप्पी में भी प्रतिरोध है और उनके काम में भी परिवर्तन की ताकत है। ये औरतें दिखाती हैं कि ‘आज़ादी’ सिर्फ़ एक विचार नहीं, बल्कि रोज़ की मेहनत, आत्मसम्मान और अपने फैसलों पर अधिकार का नाम है। जब तक हमारे नारीवादी विमर्शों में इन गांव की महिलाओं की आवाज़, थकावट, अनुभव और नेतृत्व शामिल नहीं होंगे, तब तक वह अधूरा ही रहेगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम सिर्फ़ उनके संघर्ष को नहीं, उनकी शक्ति को भी पहचानें — क्योंकि वे सिर्फ़ पीड़ित नहीं, बदलाव की असल सूत्रधार हैं। बदलाव गांव की धूल से उठती एक औरत के पसीने में भी होता है — जो चुपचाप, लेकिन पूरी दुनिया से लड़ रही होती है।

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