सत्यवती देवी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की वह आवाज़ थीं, जिसे इतिहास ने अनदेखा किया गया। दुनियाभर में इतिहास लेखन पुरुष केंद्रित रहा है। इतिहास में स्त्री न के बराबर दिखाई देती है। समाज के साथ ही इतिहास में भी पुरुषों का वर्चस्व रहा है। भारत के इतिहास में भी स्त्रियों के योगदान को कमतर आंका गया है। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण स्त्रियों की चर्चा इतिहासकारों ने भी कम की है। सत्यवती देवी का जन्म साल 1906 में एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो सामाजिक और राजनीतिक सुधार आंदोलनों से गहराई से जुड़ा हुआ था। वे प्रसिद्ध आर्य समाज नेता स्वामी श्रद्धानंद की पोती थीं, जो शिक्षा, महिला अधिकारों और सामाजिक सुधार के पक्षधर थे। इसी पृष्ठभूमि ने सत्यवती की सोच और समझ को गहराई से प्रभावित किया।
उन्हें उस समय शिक्षा मिली जब भारत में लड़कियों के लिए शिक्षा पाना दुर्लभ था। उनका पालन-पोषण ऐसे माहौल में हुआ जिसने उनमें न्याय, जिम्मेदारी और राष्ट्र के लिए कुछ करने की भावना पैदा की। इनकी मां वेद कुमारी ने भी समाजसेवा के साथ-साथ महात्मा गांधी के सुझाए मार्ग का चुनाव किया। दिल्ली क्लॉथ मिल के एक अधिकारी से विवाह होने के बाद वह दिल्ली आ गई। सत्यवती देवी ने महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण और सरोजिनी नायडू जैसे नेताओं के साथ मिलकर काम किया था। सत्यवती देवी ने महिला अधिकारों और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं को संगठित कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित करती थी। कांग्रेस समिति के साथ मिलकर महिला समाज और कांग्रेस देश सेविका दल की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में जोड़ना था।
सत्यवती देवी ने महिला अधिकारों और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं को संगठित कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित करती थी।
उनकी राजनीतिक भागीदारी
सत्यवती गांधी से अत्यंत प्रभावित थी। साल 1930 में महात्मा गांधी द्वारा शुरु किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाई। वह दिल्ली की सबसे प्रभावशाली नेत्री बनकर उभरी। उन्होंने दिल्ली महिला संगठन का नेतृत्व भी किया। उनका नेतृत्व केवल राजनीतिक नहीं था। वे महिलाओं की शिक्षा, अधिकार और सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने की आवाज भी बनी। ग्वालियर और दिल्ली के कपड़ा के श्रमिक उत्थान के लिए काम किया। महात्मा गांधी इन्हें ‘तूफानी बहन’ कहा करते थे। सत्यवती गांधीवादी विचारधारा की समर्थक थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान दिल्ली में स्त्रियों का नेतृत्व किया। महिलाओं द्वारा नमक कानून को तोड़ा गया।
यह लड़ाई केवल अंग्रेजों के खिलाफ ही नहीं थी। उसके साथ यह लड़ाई महिलाओं के लिए बने पितृसत्तात्मक नियमों के खिलाफ भी थी। एक ऐसा समय जहां महिलाएं घर की चार दीवारों के अंदर अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देती थी, सत्यवती उन्हीं सड़कों पर महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। स्त्री जीवन को नया रूप देने की कोशिश की। महिलाओं के लिए उन्होंने न केवल एक मंच बनाया बल्कि उन्हें प्रशिक्षित कर राजनीतिक रूप से जागरूक भी किया। साल 1930 में कई समितियां महिला बनाई गई जो आजादी के साथ ही महिला को रोजगार भी प्रदान कर रही थी। सत्यवती ने पारंपरिक महिला के छवि को बदलने का प्रयास किया।
साल 1930 में महात्मा गांधी द्वारा शुरु किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान राजनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाई। वह दिल्ली की सबसे प्रभावशाली नेत्री बनकर उभरी। उन्होंने दिल्ली महिला संगठन का नेतृत्व भी किया।
सत्यवती देवी सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जिसमें उन्हें कई बार जेल भी जाना। इसके अतिरिक्त वे किसान और मजदूरों के संघर्ष में भी जेल यात्रा की है। वह जेल में भी स्वतंत्रता के प्रति लोगों को जागरूक कर रही थी। जेल में बंद होकर भी कई रचनाओं को प्रकाशित कराया गया। सत्यवती देवी की लिखी गई ‘बहन सत्यवती का जेल संदेश’ लिखा गया। यह संदेश उन्होंने अपनी बहन को लिखा था, जिसमें वह कहती हैं कि स्वतंत्रता संग्राम से पीछे नहीं हटना है। उन्होंने अपनी बहन से आग्रह किया कि यदि आवश्यक हो जलती हुई आग में कूद जाना। जेल में रहते हुए भी वह अपना काम कर रही थीं। देश को अंग्रेजों के अधीन नहीं देखना चाहती थीं। स्वतंत्रता के लिए वह अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार थी।
जेल की कठोर यातनाओं से गुज़रने और जीवनभर संघर्षों से जूझते रहने के कारण उनका शरीर अत्यंत कमजोर हो गया था और उन्हें क्षय रोग हो गया। लेकिन, दुर्बल शरीर और रोगग्रस्त अवस्था के बावजूद, उन्होंने अपने साहस और संकल्प को कभी कम नहीं पड़ने दिया। बीमार होने के बाद भी वे अपने साथियों का मार्गदर्शन करती रही और आंदोलन की लौ को जीवित रखा। कुछ दिनों बाद साल 1945 में उनका निधन हो गया। सत्यवती देवी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक भारत की स्वतंत्रता के सपने को जीवित रखा। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को महिलाओं की मुक्ति के संघर्ष से जोड़ा और एक नई सोच की नींव रखी।
दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थित ‘सत्यवती महाविद्यालय’ सत्यवती देवी के नाम पर रखा गया। इसकी स्थापना साल 1972 में दिल्ली सरकार द्वारा की गई थी। उनकी शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। यह कॉलेज आज भी उनके विचारों को छात्रों तक पहुंचाता है। यह नामकरण केवल प्रतीकात्मक नहीं है बल्कि यह उनकी स्मृति को जीवित रखने का एक प्रयास है। कॉलेज में समय-समय पर होने वाले कार्यक्रम उनके सिद्धांतों पर आधारित होते हैं। सत्यवती देवी का जीवन स्वतंत्रता,संघर्ष,साहस विद्रोह, विरोध , समानता से भरा हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम में सत्यवती देवी ने अमिट छाप छोड़ी। स्वतंत्रत भारत के साथ ही स्त्री स्वतंत्रता उनका मुख्य उद्देश्य था। इस तरह उनका जीवन भारतीय इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है।

