भारत और दुनिया भर में ट्रांस समुदाय के लिए यह एक बड़ी और खुशी की खबर सामने आई है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय (एपीएचसी) के एक हालिया फैसले ने एक ट्रांस महिला को कानूनी रूप से महिला के रूप में मान्यता दी है। न्यायालय ने ट्रांस महिला को कानून की नज़र में महिला के बराबर ही अधिकार देने की बात की है। इसमें कहा गया है कि अगर किसी ट्रांस महिला को सिर्फ इस वजह से ‘महिला’ नहीं माना जाए कि वह बच्चा पैदा नहीं कर सकती, और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए (जो महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा देती है) के तहत कानूनी मदद नहीं दी जाएगी, तो यह सीधे तौर पर भेदभाव होगा। ऐसा करना ट्रांस महिलाओं के साथ नाइंसाफी है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है।
हालांकि इस फैसले ने साफ कहा है कि किसी का जेंडर उसकी प्रजनन क्षमता (बच्चा पैदा करने की क्षमता) से तय नहीं होता है। हैदराबाद के ट्रांसजेंडर समुदाय कार्यकर्ताओं का कहना है कि ट्रांस व्यक्तियों को आज भी समाज में कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें सिस्टम की ओर से बार-बार अपमान और सख्त नियमों का सामना करना पड़ता है, जिससे वे अपने बुनियादी अधिकारों से दूर रह जाते हैं। न्यायमूर्ति वेंकट ज्योतिर्मई प्रतापा का 16 जून 2025 का यह फैसला सिर्फ एक ट्रांस व्यक्ति की जीत नहीं है, बल्कि यह फैसला ट्रांस महिलाओं की गरिमा और इंसानियत को सम्मान देने का काम करता है, सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में।
न्यायमूर्ति वेंकट ज्योतिर्मई प्रतापा का 16 जून 2025 का यह फैसला सिर्फ एक ट्रांस व्यक्ति की जीत नहीं है, बल्कि यह फैसला ट्रांस महिलाओं की गरिमा और इंसानियत को सम्मान देने का काम करता है
क्या है पूरा मामला

यह मामला ट्रांसजेंडर महिला पोकला सभाना से जुड़ा है, जिन्होंने अपने पति विश्वनाथन कृष्ण मूर्ति और उनके परिवार के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। जनवरी 2019 में सभाना और विश्वनाथन ने हैदराबाद में हिंदू रीति-रिवाजों के तहत शादी की थी। शादी के समय उनके पति को उनकी ट्रांस पहचान के बारे में पता था, लेकिन फिर भी शादी के कुछ समय बाद ही उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया। उनके पति के घरवालों ने उनके साथ बुरा बर्ताव किया। उन्होंने ओंगोल महिला पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराते हुए आरोप लगाया कि ससुरालवाले उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करते थे, दहेज की मांग करते थे।
इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने क्रूरता और दहेज मांगने जैसे आरोपों में मामला दर्ज किया। मामला शुरू में भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत दर्ज किया गया था। हालांकि, सभाना के पति और उनके परिवार ने इस मामले को अदालत में चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि सभाना कानूनी रूप से महिला नहीं हैं क्योंकि वह एक ट्रांस महिला हैं और गर्भधारण करने की जैविक क्षमता नहीं रखतीं। उनके अनुसार, इसी कारण से सभाना को भारतीय दंड संहिता की धारा के तहत पत्नी के रूप में कानूनी सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पति और परिवार वालों के इस तर्क के खिलाफ असहमति जताई और ऐसा करके इतिहास रच दिया।
यह मामला ट्रांसजेंडर महिला पोकला सभाना से जुड़ा है, जिन्होंने अपने पति विश्वनाथन कृष्ण मूर्ति और उनके परिवार के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। जनवरी 2019 में सभाना और विश्वनाथन ने हैदराबाद में हिंदू रीति-रिवाजों के तहत शादी की थी।
महिला की पहचान को लेकर कोर्ट ने रखी स्पष्ट राय

न्यायमूर्ति प्रतापा ने साफ तौर पर कहा कि किसी महिला की पहचान को केवल इस आधार पर तय करना कि वह बच्चे को जन्म दे सकती है या नहीं, कानूनी तौर पर गलत है। ऐसा सोचना भारतीय संविधान के उस नियम के खिलाफ है, जो कहता है कि हर किसी को कानून के सामने बराबरी का हक है। अपने फैसले में उन्होंने साल 2014 के नालसा बनाम भारत सरकार वाले ऐतिहासिक केस का भी ज़िक्र किया। उस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि हर व्यक्ति को अपनी जेंडर पहचान खुद तय करने का अधिकार है।
अदालत ने अपने फैसले में साल 2019 के ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, का भी ज़िक्र किया। इस कानून में साफ तौर पर कहा गया है कि किसी व्यक्ति की जेंडर पहचान उसके शरीर की बनावट या सर्जरी पर निर्भर नहीं करती। यानि अगर कोई व्यक्ति खुद को महिला मानता है, तो उसे कानून में महिला के तौर पर पहचान मिलनी चाहिए चाहे उसने सर्जरी करवाई हो या नहीं। यह बात सभाना जैसी ट्रांस महिलाओं को, महिला की कानूनी परिभाषा में शामिल करती है, ताकि उन्हें भी वही अधिकार मिल सकें जो दूसरी महिलाओं को मिलते हैं।
न्यायमूर्ति प्रतापा ने साफ तौर पर कहा कि किसी महिला की पहचान को केवल इस आधार पर तय करना कि वह बच्चे को जन्म दे सकती है या नहीं, कानूनी तौर पर गलत है। ऐसा सोचना भारतीय संविधान के उस नियम के खिलाफ है, जो कहता है कि हर किसी को कानून के सामने बराबरी का हक है।
शिकायत सही थी, लेकिन उनके पास सबूत नहीं थे

द लीफ़लेट के मुताबिक जब अदालत ने यह साफ तौर यह बता दिया कि सभाना को शिकायत दर्ज कराने का पूरा कानूनी हक है, तब उसने शिकायत में लगे आरोपों की जांच की। जांच के बाद अदालत ने कहा कि, सभाना की शिकायत कानूनी रूप से सही थी। लेकिन, अभी तक ऐसे पक्के सबूत नहीं मिले जिनके आधार पर सभाना के पति या उनके परिवार के खिलाफ सीधे कानूनी कार्रवाई की जा सके। उनके दिए गए बयान बहुत सामान्य थे, उनमें कोई ठोस या साफ़ जानकारी नहीं थी। उन्होंने ना तो दहेज की मांग का कोई साफ़ ज़िक्र किया था, और ना ही किसी हिंसा की घटना का उल्लेख किया किया गया था।
अदालत ने यह भी ध्यान दिया कि सभाना ने खुद कहा था कि कुछ समय तक उनके अपने ससुराल वालों के साथ अच्छे रिश्ते थे। अदालत को ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला, जिससे यह साबित हो सके कि सभाना के पति या उनके परिवार के लोग हिंसा में शामिल थे। रिश्तेदारों के खिलाफ भी जो आरोप लगाए गए थे, उनके पीछे कोई ठोस आधार या प्रमाण नहीं था। अदालत ने इन आरोपों को बेबुनियाद और बहुत ही सामान्य कहा। इन्हीं कारणों से अदालत ने सभाना की याचिका को खारिज कर दिया।
जांच के बाद अदालत ने कहा कि, सभाना की शिकायत कानूनी रूप से सही थी। लेकिन, अभी तक ऐसे पक्के सबूत नहीं मिले जिनके आधार पर सभाना के पति या उनके परिवार के खिलाफ सीधे कानूनी कार्रवाई की जा सके।
संवैधानिक पहचान और कानूनी व्यक्तित्व
इस फैसले की सबसे अहम बात यह नहीं है कि शिकायत खारिज हो गई, बल्कि यह है कि अदालत ने साफ कहा कि ट्रांसजेंडर महिलाएं भी भारतीय कानून के तहत महिला मानी जाएंगी। यह फैसला ऐसे समाज में बहुत मायने रखता है, जहां ट्रांस महिलाओं की पहचान और गरिमा पर बार-बार सवाल उठाए जाते हैं। अदालत ने बताया कि कानून सिर्फ शरीर या जन्म से तय नहीं होता संविधान हर इंसान की पहचान और आत्मसम्मान को महत्व देता है। ऐसा कहते हुए, उच्च न्यायालय ने इस बदलाव को भी ज़ोर देकर बताया कि अब भारत की न्याय व्यवस्था धीरे-धीरे बदल रही है।
जहां पहले किसी की पहचान दूसरों जैसे परिवार, समाज तय करता था, अब लोग अपनी पहचान खुद तय करने का हक पा रहे हैं। अदालत का यह नजरिया औपनिवेशिक सोच से अलग है, जिसने कभी गैर-द्विआधारी या नॉन बाइनरी और ट्रांसजेंडर पहचानों को दबाया और अस्वीकार किया था। भारत का यह फैसला कई पश्चिमी देशों जैसे अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम की हाल की नीतियों से अलग है, जहां जेंडर पहचान को कानूनी रूप से मान्यता देने के अधिकार को कमजोर किया गया है या वापस लिया गया है या ट्रांस लोगों के अधिकारों पर नये कानूनों या नीतियों के ज़रिए रोक लगाने की कोशिश की गयी है।
तेलंगाना में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की संख्या करीब 60,000 मानी जाती है,लेकिन अब तक सिर्फ करीब 600 लोगों को ही पहचान पत्र मिला है। हम इस कानूनी फैसले की खुशी मना रहे हैं, लेकिन अब भी हमें राशन कार्ड, नौकरी और सामाजिक पहचान जैसी बुनियादी चीज़ों का इंतज़ार है
कानूनी मान्यता मिली लेकिन ज़मीनी हक़ अभी दूर है

डेक्कन क्रॉनिकल में छपी खबर के मुताबिक़, तेलंगाना हिजड़ा, इंटरसेक्स और ट्रांसजेंडर समिति की संस्थापक सदस्य रचना मुद्राबोयिना ने विषमलैंगिक यानि महिला -पुरुष की शादी में ट्रांस महिला की कानूनी स्थिति को अदालत के मान्यता दिए जाने का स्वागत किया, लेकिन उन्होंने इस फैसले के परिणाम पर सवाल भी उठाए। रचना ने पूछा कि इस मामले में किसी को कोई सज़ा क्यों नहीं हुई? इस आदमी ने उसके पैसे लिए, उसे छोड़ दिया और फिर भी अदालत ने उसे क्लीन चिट दे दी? फैसला कहता है कि एक ट्रांस महिला एक महिला है, लेकिन न्याय का क्या? इससे उन अन्य पुरुषों को क्या संदेश जाता है जो ट्रांस महिलाओं का शोषण करते हैं?
रचना कहती हैं कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समाज से बड़े पैमाने पर अलग-थलग किया जाता है। उन्हें अक्सर रहने के लिए घर नहीं मिलता,सार्वजनिक जगहों पर जाने से रोका जाता है,और नौकरी के अच्छे मौके भी नहीं दिए जाते हैं। वह कहती हैं कि ट्रांसजेंडर पहचान पत्र अभी भी बहुत कम लोगों को मिले हैं। हालांकि तेलंगाना में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की संख्या करीब 60,000 मानी जाती है,लेकिन अब तक सिर्फ करीब 600 लोगों को ही पहचान पत्र मिला है। हम इस कानूनी फैसले की खुशी मना रहे हैं, लेकिन अब भी हमें राशन कार्ड, नौकरी और सामाजिक पहचान जैसी बुनियादी चीज़ों का इंतज़ार है।
आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट का यह फैसला ट्रांस महिलाओं के लिए एक बड़ी जीत है। कोर्ट ने साफ कहा है कि ट्रांस महिला भी महिला होती है और उसे भी वही कानूनी अधिकार मिलने चाहिए जो बाकी महिलाओं को मिलते हैं। यह बहुत जरूरी बात है, क्योंकि अक्सर ट्रांस महिलाओं की पहचान और हक़ को समाज और कानून नजरअंदाज करता है। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि सभाना को शिकायत करने का पूरा हक़ था, लेकिन उनके पास पक्के सबूत नहीं थे, इसलिए मामला खारिज कर दिया गया। इससे यह सवाल भी उठता है कि जब ट्रांस महिलाएं अन्याय का शिकार होती हैं, तो क्या उन्हें असली न्याय मिल पाता है? यह फैसला ट्रांस व्यक्तियों की पहचान को कानून में जगह देता है, लेकिन असल जिंदगी में अभी भी उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जैसे नौकरी, घर, पहचान पत्र और सम्मानके लिए। इसलिए यह फैसला एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है।

