भारत में आज भी पीरियड्स को लेकर खुलकर बात करना आसान नहीं है। यह एक जैविक प्रक्रिया होते हुए भी शर्म, सामाजिक चुप्पी और रूढ़ियों से घिरी हुई है। खासकर किशोरावस्था में जब लड़कियां अपने शरीर में होने वाले बदलावों को समझने की कोशिश कर रही होती हैं, तब उन्हें डराया या चुप कराया जाता है और कई बार गलत सूचनाएं दी जाती हैं। द हिन्दू में छपी रिपोर्ट अनुसार एक गैर सरकारी संगठन का किया एक सर्वेक्षण से पता चला है कि करीब 12 फीसद युवतियां पीरियड्स का सही कारण नहीं जानतीं और मानती हैं कि यह ईश्वर का श्राप है या बीमारी के कारण होता है। नतीजा यह होता है कि वे अपने अनुभवों को छिपाने लगती हैं और उस अकेलेपन या समस्याओं का सामना करती हैं जिसे कोई देख नहीं पाता। पीरियड्स को लेकर जो पहली यादें होती हैं, उनमें डर, दर्द और ढेर सारी चुप्पी शामिल होती हैं। मेरी भी कहानी कुछ अलग नहीं थी। यह सिर्फ मेरी नहीं, देश की लाखों लड़कियों की साझा सच्चाई है।

जब मुझे पहली बार पीरियड्स हुए, तो मुझे समझ नहीं आया कि मेरे साथ क्या हो रहा है। स्कूल की कुछ सहेलियों से सुना था कि जब लड़कियां बड़ी होती हैं, तो उन्हें पीरियड्स होते हैं और बहुत दर्द होता है। वे यह भी कहती थीं कि जैसे ही पीरियड्स शुरू होंगे,घर में कई तरह की रोक-टोक शुरू हो जाएगी। उस वक़्त मैं सोचती थी कि मुझे शायद कभी बड़ा ही नहीं होना चाहिए। डर इतना था कि मेरा दिल भर आया और कई बार मैं रो पड़ती थी। उस दिन मैं स्कूल भी नहीं गई। अम्मी ने बस इतना कहा, “तुम संभाल नहीं पाओगी तो आज स्कूल मत जाओ।” आज जब विभिन्न घटनाओं को सुनती हूं, तो लगता है कि क्या हम एक देश के रूप में खुदको विकसित कह सकते हैं? तेलंगाना में साल 2024 में एक 13 साल की बच्ची को जब पहली बार पीरियड्स हुए, तो वह डर गई। उसे लगा उसके साथ कुछ ग़लत हो रहा है। हमारे मानवाधिकार, शिक्षा, एजेंसी की जानकारी की कमी ने उसे इतना तोड़ दिया कि उसकी आत्महत्या से मौत हो गई।
जब मुझे पहली बार पीरियड्स हुए, तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ क्या हो रहा है। स्कूल की कुछ सहेलियों से सुना था कि जब लड़कियां बड़ी होती हैं, तो उन्हें पीरियड्स होते हैं और उसमें बहुत दर्द होता है। वे यह भी कहती थीं कि जैसे ही ये दिन आएंगे, घर में कई तरह की रोक-टोक शुरू हो जाएगी।
स्कूल के दिनों पीरियड्स का अनुभव
मेरे अपने स्कूल के दिनों में भी ऐसा ही माहौल था। पीरियड्स के दौरान मैंने कई बार स्कूल नहीं जाने का बहाना बनाया। मेरी कई सहेलियां भी उन दिनों स्कूल नहीं आती थीं। उस वक़्त मैं सोचती थी कि लड़कों के लिए ज़िंदगी कितनी आसान है, उन्हें तो ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती। दुनिया की लगभग 26 प्रतिशत महिला आबादी प्रजनन आयु वर्ग की है। देश भर की 97,070 लड़कियों पर किए गए 138 अध्ययनों के मेटा विश्लेषण से पता चला है कि 10-19 वर्ष की आयु की एक-चौथाई लड़कियां अपनी वर्दी पर दाग लगने के डर, चेंजिंग रूम की कमी और पानी व सफाई की सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जा पाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की रिपोर्ट अनुसार, दुनिया भर के हर तीन में से एक स्कूल में पीरियड्स के दौरान ज़रूरी सुविधाएं जैसे साफ़ पानी, निजी शौचालय और सैनिटरी उत्पाद उपलब्ध नहीं होते।

भारत की बात करें तो राष्ट्रीय पारिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट बताती है कि देश में हर 10 में से 4 किशोरियां पीरियड्स के दौरान स्कूल जाना छोड़ देती हैं। इसका मुख्य कारण है सैनिटरी पैड्स की अनुपलब्धता, स्वच्छ और सुरक्षित शौचालयों की कमी और पीरियड्स से जुड़ी सामाजिक शर्म और चुप्पी है। इन्हीं वजहों से मैं और मेरी कई सहेलियां भी स्कूल नहीं जा पाती थीं। उस समय हम इसे सामान्य मानकर टाल देते थे, लेकिन जब स्कूल की अटेंडेंस कम हुई, तो शिक्षकों और सहपाठियों के सवालों का सामना करना पड़ा कि इतनी दिक्कत क्या होती है पीरियड्स में? अब जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो समझ आता है कि पीरियड्स सिर्फ एक स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा नहीं था। यह हमारी शिक्षा, एजेंसी और आत्मविश्वास से भी गहराई से जुड़ा था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की रिपोर्ट अनुसार, दुनिया भर के हर तीन में से एक स्कूल में पीरियड्स के दौरान ज़रूरी सुविधाएं जैसे साफ़ पानी, निजी शौचालय और सैनिटरी उत्पाद उपलब्ध नहीं होते।
पीरियड्स को लेकर शर्म और झिझक क्यों
जब भी हम गांव जाते थे और जब भी वहां किसी ग्रामीण महिला को पीरियड्स होते थे, तो वह खुलकर बातचीत नहीं कर पाती थीं, क्योंकि गांव में पीरियड्स को शर्म की बात माना जाता था। राष्ट्रीय पारिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी 72 फीसद महिलाएं ही सैनिटरी उत्पादों का उपयोग कर पाती हैं। मुझे आज भी याद है जब एक बार अम्मी ने मुझसे कहा कि मैं बाजार से पैड लेकर आऊं। दुकानदर ने मुझे पैड बड़े से अखबार में और फिर उसे काले पॉलीथिन में पैक करके दिया। मुझे अजीब लगा। उस समय पहली बार मेरे मन में सवाल उठा कि क्या पीरियड्स होना शर्म की बात है? यह शर्म, यह झिझक, केवल हमारे घरों, गांवों या छोटे कस्बों तक सीमित नहीं है। यह स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों, दुकानों और यहां तक कि विज्ञापन और सिनेमा में भी मौजूद है। पीरियड्स से जुड़ी चुप्पी महिलाओं और लड़कियों के आत्मविश्वास, शिक्षा, और स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है। यह समझने में मुझे वक्त लगा कि पीरियड्स एक सामान्य जैविक प्रक्रिया है और इसमें कोई शर्म की बात नहीं।
पीरियड्स में जानकारी की कमी, भेदभाव और हिंसा

बीते दिनों महाराष्ट्र के ठाणे जिले के एक स्कूल में कक्षा 5 से 10 तक की छात्राओं को स्कूल प्रशासन ने कथित तौर पर ये जांचने के लिए कि वे पीरियड्स से गुजर रही हैं या नहीं, कपड़े उतारने के लिए मजबूर किया। मीडिया रिपोर्ट मुताबिक प्रिंसिपल ने कई छात्राओं को स्कूल हॉल में बुलाया और उन्हें बाथरूम के फर्श पर मिले खून के धब्बों की तस्वीरें दिखाईं। जब पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता या ये मेनस्ट्रीम सिनेमा और जोक्स का हिस्सा बनती हैं, तो यह सिर्फ किसी एक लड़की की भावना को आहत करने का मसला नहीं होता, बल्कि यह एक पूरी संस्कृति को मज़बूत करता है जो पीरियड्स में हो रहे समस्याओं को अहमियत नहीं देता। जब पीरियड्स को मज़ाक में लिया जाता है, तो इस विषय पर गंभीर चर्चा की संभावना खत्म हो जाती है।
मुझे आज भी याद है जब एक बार अम्मी ने मुझसे कहा कि मैं बाजार से पैड लेकर आऊं। दुकानदर ने मुझे पैड बड़े से अखबार में और फिर उसे काले पॉलीथिन में पैक करके दिया। मुझे अजीब लगा। उस समय पहली बार मेरे मन में सवाल उठा कि क्या पीरियड्स होना शर्म की बात है?
शुरुआती दिनों में जब मुझे पहली बार पीरियड्स हुए, तो मैं इसके बारे में जानना और बात करना चाहती थी। अम्मी ने बस इतना बताया कि यह लड़कियों के लिए आम बात है और न हो तो बीमारी मानी जाती है। उस समय न घर में फोन था, न इंटरनेट। दोस्तों को भी ज़्यादा जानकारी नहीं थी। बड़े-बुजुर्ग से पूछने पर या तो अधूरी जानकारी मिली या गलत जवाब मिला। पीरियड्स के बाद मुझसे खेलने, बाहर जाने, अचार छूने, बाल धोने और ज़्यादा नहाने तक पर रोक लग गई। अगर दर्द ज़्यादा हो तो भी दवाई लेने से मना कर दिया जाता, क्योंकि सहन करना औरत की पहचान होती है। मैं मन ही मन दुआ करती थी कि काश मुझे पीरियड्स न हुए होते।
पीरियड्स पर बातचीत की है जरूरत
भारत में आज भी पीरियड्स पर खुलकर बात करना असहज माना जाता है। मेरी मम्मी और चाची को मैंने दर्द में भी काम करते देखा है, क्योंकि घर में उन्हें थकने या आराम करने की इजाज़त नहीं थी। यही अनुभव मेरी एक सहेली का भी था। उसे पीरियड्स में दर्द सहते हुए भी ऐसा व्यवहार करना पड़ता था, जैसे कुछ हुआ न हो, ताकि उसके भाई को कुछ समझ न आए। साल 2023 में मुंबई में एक व्यक्ति ने अपनी 12 साल की बहन की हत्या इसलिए कर दी थी क्योंकि उसके पहले पीरियड्स के खून के धब्बों को उसने शारीरिक संबंध समझ लिया था। इस घटना ने साफ़ कर दिया कि सिर्फ लड़कियों को नहीं बल्कि लड़कों को भी सेक्शुअल एजुकेशन और पीरियड्स की जानकारी देना ज़रूरी है। जब मैंने पहली बार दुकानदार से साफ कहा कि इसे काले पॉलीथिन में मत लपेटिए और उन्होंने मुस्कराकर जवाब दिया कि लोग खुद ऐसा मांगते हैं, तो मुझे समझ आया कि बदलाव की शुरुआत एक छोटे से कदम से होती है। पीरियड्स एक सामान्य जैविक प्रक्रिया है। इसे शर्म या चुप्पी नहीं, बल्कि समझ और संवेदनशीलता से देखे जाने की ज़रूरत है।

