समाजख़बर ओडिशा की छात्रा का फेमिसाइड हमारे विफल व्यवस्था को उजागर करती है

ओडिशा की छात्रा का फेमिसाइड हमारे विफल व्यवस्था को उजागर करती है

संयुक्त राष्ट्र के 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर साल करीब 85,000 महिलाएं फेमीसाइड का सामना करती हैं जिसमें से 51,000 महिलाओं की हत्या उनके पति, प्रेमी या परिवार के किसी क़रीबी सदस्य द्वारा की जाती है।

हाल ही में उड़ीसा के बालासोर के फकीर मोहन स्वायत्त महाविद्यालय में बी.एड. की पढ़ाई कर रही एक छात्रा ने 12 जुलाई को प्रिंसिपल कार्यालय के बाहर आत्मदाह कर ली, जिसके बाद अब उसकी मौत हो चुकी है। छात्रा ने आरोप लगाया था कि कॉलेज के एक शिक्षक के, कथित यौन हिंसा की उसकी बार-बार की गई शिकायतों का समाधान नहीं किया गया। वहीं, एक अन्य घटना में पुरी जिले में एक 15 वर्षीय लड़की को तीन अज्ञात युवकों ने कथित तौर पर आग लगा दी, जब वह किसी दोस्त के घर जा रही थी। यौन हिंसा की ऐसी अनगिनत घटनाएं आए दिन देश के कोने-कोने से सुनने को मिलती हैं। हर दिन ख़बरें महिलाओं के प्रति हिंसा और बर्बरता से भरी हुई होती हैं।

ये घटनाएं व्यक्तिगत अपराध ही नहीं बल्कि समाज की भेदभावपूर्ण स्त्रीद्वेषी सोच को भी सामने लाती हैं जो महिलाओं को दोयम दर्ज़े का नागरिक बनाती है। नैशनल इंस्टीटूट्स ऑफ़ हेल्थ के शोध अनुसार दुनिया भर में लगभग 35 प्रतिशत महिलाएं अपने जीवनकाल में हिंसा का सामना करती हैं। भारत में लगभग 10,000 महिलाओं पर किए गए इस अध्ययन में, 26 प्रतिशत प्रतिभागियों ने बताया कि उन्हें अपने जीवनकाल में अपने जीवनसाथी से शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। जेंडर संबंधी हत्याएं (फेमीसाइड) महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा की सबसे क्रूर और चरम हिंसा का एक रूप है।

फेमिसाइड का मतलब है कि किसी स्त्री की इसलिए हत्या कर देना क्योंकि वह महिला है, यानी यह जेंडर पर आधारित होती है। फेमीसाइड की जड़ में छिपी होती है पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना, जो स्त्री द्वेष, लैंगिक भेदभाव, ग़ैर बराबरी और नियंत्रण की भावना से संचालित होती है।

क्या है फेमिसाइड यानी स्त्रीहत्या?

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

फेमिसाइड का मतलब है कि किसी स्त्री की इसलिए हत्या कर देना क्योंकि वह महिला है, यानी यह जेंडर पर आधारित होती है। फेमिसाइड की जड़ में छिपी होती है पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना, जो स्त्री द्वेष, लैंगिक भेदभाव, ग़ैर बराबरी और नियंत्रण की भावना से संचालित होती है। यह कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, ऑनर किलिंग, यौन शोषण के बाद की गई हत्या जैसे रूपों में सामने आती है। कई बार ऐसी भी ख़बरें देखने सुनने को मिलती हैं जिसमें छोटी-छोटी बातों जैसे प्रेम प्रस्ताव स्वीकार न करने या उनके बनाए खाने में कोई कमी निकालकर महिलाओं के साथ ऐसी हिंसा की जाती है। ऐसे कुछ मामलों में तो बात हत्या तक पहुंच जाती है। इस तरह की घटनाएं फेमिसाइड के दायरे में आती हैं। जब महिलाओं को बराबर मानने की बजाय उन्हें कमतर समझा जाता है और उन पर नियंत्रण रखने की कोशिश की जाती है, वहीं से इस तरह की घटनाओं की नींव शुरू हो जाती है। यह सबसे बड़ी सामाजिक और प्रशासनिक विफलता है जो महिलाओं के स्वतंत्र, सुरक्षित और गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को छीन लेती है।

फेमिसाइड से जुड़े कुछ आंकड़े

संयुक्त राष्ट्र के 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर साल करीब 85,000 महिलाएं फेमिसाइड का सामना करती हैं जिसमें से 51,000 महिलाओं की हत्या उनके पति, प्रेमी या परिवार के किसी क़रीबी सदस्य द्वारा की जाती है। 2023 में हर दिन करीब 140 महिलाओं यानी हर 10 मिनट में एक महिला की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई क्योंकि वह महिला थी। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2022 की वार्षिक रिपोर्ट में पाया गया कि साल 2022 में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध के कुल 4,45,256 मामले दर्ज़ किए गए जो कि 2021 की तुलना में 4 फीसद ज़्यादा थे। इसमें से 31.4 फीसद अपराध महिला के पति या उसके रिश्तेदारों ने किए थे।

संयुक्त राष्ट्र के 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर साल करीब 85,000 महिलाएं फेमिसाइड का सामना करती हैं जिसमें से 51,000 महिलाओं की हत्या उनके पति, प्रेमी या परिवार के किसी क़रीबी सदस्य द्वारा की जाती है।

भारत में फेमिसाइड से जुड़े आंकड़ों की कमी है क्योंकि इसे सामान्य हत्या की श्रेणी में रखा जाता है। इसके अलावा आज भी जागरूकता की कमी और आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भरता होने की वजह से महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा और अपराध ठीक से दर्ज नहीं हो पाते इसलिए इसे अलग से ट्रैक ही नहीं किया जा सकता। बहुत सी हत्याएं आत्महत्या, घरेलू हिंसा या सामान्य हत्या के रूप में दर्ज़ होती हैं जिससे फेमीसाइड की असल तस्वीर सामने नहीं आ पाती है।

फेमिसाइड को बढ़ावा देने वाली सामाजिक संरचना

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की प्रोफेसर निशि मित्रा वोम बर्ग के शब्दों में, “यह तथ्य कि भारत के आपराधिक आंकड़ों में फेमिसाइड को विशेष रूप से दर्ज़ नहीं किया जाता है, लैंगिक हिंसा और निजी और सार्वजनिक स्थानों के बीच उसके संबंधों के प्रति चिंता और समझ की कमी को बताता है। साथ ही महिलाओं के खिलाफ़ सभी प्रकार की हिंसा के लिए आवश्यक कार्रवाई की कमी को भी बताता है। परिवार में महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा के अधिकांश विभिन्न रूप या तो रिपोर्ट नहीं किए जाते या कम रिपोर्ट किए जाते हैं और अदृश्य रहते हैं। जब महिलाएं घरेलू हिंसा के मामलों में पुलिस से संपर्क करती हैं, तो ऐसे घरेलू दुर्व्यवहार के कई मामलों को गैर-संज्ञेय अपराध मान लिया जाता है।” संविधान लागू होने के 75 साल बीत जाने के बावजूद आज भी हमारा समाज पितृसत्तात्मक सोच से संचालित होता है, जहां पुरुषों को विशेषाधिकार और ऊंचा दर्जा मिला हुआ है। एक महिला के लिए उसके जन्म से पहले से ही चुनौतियां शुरू हो जाती हैं।

नैशनल इंस्टीटूट्स ऑफ़ हेल्थ के शोध अनुसार दुनिया भर में लगभग 35 प्रतिशत महिलाएं अपने जीवनकाल में हिंसा का सामना करती हैं। भारत में लगभग 10,000 महिलाओं पर किए गए इस अध्ययन में, 26 प्रतिशत प्रतिभागियों ने बताया कि उन्हें अपने जीवनकाल में अपने जीवनसाथी से शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है।

कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ क़ानून बनने के बावजूद अभी भी यह लगातार जारी है। ज़्यादातर लड़कियों को बचपन से ही घरेलू कामों की ‘ट्रेनिंग’ दी जाती है। पढ़ाई लिखाई और नौकरी करने के बावजूद उन्हें घरेलू कामों का दोहरा बोझ उठाना पड़ता है। कन्यादान, दहेज और कन्या विदाई जैसी भेदभावपूर्ण परंपराएं आज भी सभ्य कहे जाने वाले समाज का हिस्सा बनी हुई हैं। जो महिला को स्वतंत्र अस्तित्व न मानकर एक वस्तु का दर्जा देती हैं जिसे किसी को भी ‘दान’ दिया जा सकता है। इसके अलावा क़ानून बनने के बावजूद आज भी आमतौर पर महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है क्योंकि उन्हें ‘पराया धन’ मानने की मानसिकता समाज में जड़ें जमाए हुए है।

‘डोली में जाना, अर्थी में आना’ जैसी बातें बचपन से ही मन में डाल दी जाती हैं जिससे शादी के बाद किसी तरह की हिंसा और शोषण के बावजूद महिलाएं अत्याचार सहने पर मजबूर हो जाती हैं। इसका नतीजा कभी-कभी हत्या या आत्महत्या से मौत के रूप में सामने आता है। इसके अलावा हमारे समाज में किसी महिला की अपनी पसंद से लिव-इन में रहने या शादी कर लेने पर ऑनर किलिंग जैसी घटनाएं भी सामने आती हैं। हरियाणा की टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव की उनके पिता द्वारा हत्या का हालिया मामला इसी तरह की पित्तृसत्तात्मक सोच का उदाहरण है। हैरानी की बात यह है कि इस तरह की घटनाओं में हत्या जैसे जघन्य अपराध तक के समर्थन में लोग आसानी से देखे जा सकते हैं।

‘डोली में जाना, अर्थी में आना’ जैसी बातें बचपन से ही मन में डाल दी जाती हैं जिससे शादी के बाद किसी तरह की हिंसा और शोषण के बावजूद महिलाएं अत्याचार सहने पर मजबूर हो जाती हैं।

राजनीति और व्यवस्था की खामियां

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

भारत का संविधान मौलिक अधिकारों के रूप में समानता और समता का अधिकार देता है जो महिलाओं समेत सभी जेंडर और सभी वर्ग के लोगों के लिए है। भारतीय न्याय संहिता में महिलाओं के खिलाफ़ अपराध से संबंधित बहुत सारी धाराएं भी हैं लेकिन फेमीसाइड को लेकर अलग से कोई प्रावधान नहीं है। इसके साथ ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने की वजह से बहुत बार महिलाएं अपने शोषक के साथ ही रहने पर मजबूर होती हैं और कोई ऐक्शन नहीं ले पाती हैं। अपनी आवाज़ उठाने पर पैसे और सत्ता के बल पर या तो उन्हें चुप कर दिया जाता है या फिर उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। देश की न्याय प्रणाली की प्रक्रिया इतनी धीमी होती है कि सर्वाइवर को सही समय पर न्याय नहीं मिल पाता है। इस वजह से कई बार मजबूरन इन्हें केस अधूरा छोड़ना या वापस लेना पड़ता है। अपराधी अगर राजनीतिक पृष्ठभूमि और विशेषाधिकार प्राप्त है, तो राजनीतिक दबाव न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। इन सब वजहों से क़ानूनी लड़ाई लड़ने के पहले बहुत ज़्यादा सोचना पड़ता है जिससे अपराधियों के हौसले और भी बुलंद होते जाते हैं।

क्या हो सकता है आगे का रास्ता

भारत में फेमीसाइड को रोकने के लिए सबसे पहले इसकी गहराई को समझना होगा, जिसके लिए सही और सटीक आंकड़ों की ज़रूरत होगी। इसके लिए एनसीआरबी में एक अलग खंड को जोड़ा जा सकता है जिसमें फेमीसाइड से जुड़े आंकड़े ही शामिल किए जाएं। इसके अलावा कठोर क़ानून बनाना और उसे सही तरीके से लागू करना भी ज़रूरी है, जिससे सर्वाइवर को जल्दी न्याय उपलब्ध कराया जा सके और अपराधियों में डर पैदा हो। महिलाओं के लिए स्थानीय स्तर पर वन स्टॉप सेंटर को मजबूती से इम्प्लीमेंट करना होगा जिसमें इन्हें काउंसलिंग, आर्थिक और कानूनी हर तरीके की मदद मिल सके।

इन सबके साथ ही भेदभावपूर्ण पितृसतात्मक सामाजिक संरचना को ख़त्म करके संविधान सम्मत समानतावादी समाज की स्थापना की जरुरत है, जिसमें हर नागरिक को आज़ादी के साथ गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके। महिलाओं के प्रति सदियों से चल रही भेदभावपूर्ण कुप्रथाओं का महिमामंडन करने के बजाय उन्हें रोकने के लिए प्रयास करना होगा। इन सबके लिए समाज में जागरूकता फैलाना बेहद ज़रूरी है। महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना भी ज़रूरी है। प्रशासनिक जवाबदेही के साथ ही सामाजिक सरोकारों को भी ध्यान में रखना पड़ेगा, जिससे एक ऐसे समाज की स्थापना हो, जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी को स्वतंत्रता, समानता और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार हो।

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