समाजकार्यस्थल शहरी विकास और जलवायु संकट के बीच मेहनतकश महिलाएं

शहरी विकास और जलवायु संकट के बीच मेहनतकश महिलाएं

मई 2024 में प्रकाशित 'डाउन टू अर्थ' की एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में गर्मी की लहरों (हीटवेव) के कारण मजदूरों की काम क्षमता में औसतन 15-20 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। साथ ही, गर्मी से जुड़ी बीमारियों में भी बढ़ोतरी देखी गई है।

साल 2024 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हुआ है और 2025 भी वैसा ही रहा। कोपर्निकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के मुताबिक इस साल औसत वैश्विक तापमान 1.5°C तक पहुंच चुका है, जो पेरिस समझौते में तय की गई खतरे की सीमा है। इसका असर भारत में साफ दिखा। लू, गर्म हवाएं और लंबे समय तक बनी रहने वाली तेज़ गर्मी अब आम हो गई हैं। इसका सबसे बुरा असर बाहर काम करने वाले मज़दूरों पर पड़ा, खासकर महिलाओं पर। भोपाल जैसे शहरों में निर्माण काम में लगी महिलाएं गर्मी और सामाजिक असमानता की दोहरी मार झेल रही हैं। उन्हें न तो आराम की जगह मिलती है, न छांव, न साफ पानी। गर्मी में लगातार काम करने से उन्हें हीट स्ट्रोक, थकावट और चक्कर जैसी समस्याएं होती हैं।

भीषण गर्मी में जब लोग घरों में राहत पाते हैं, तब कई गरीब महिलाएं खुले आसमान के नीचे मजदूरी करती हैं। रौशनी, सुनीता और रामप्यारी जैसी महिलाएं पिछले पांच सालों से भोपाल के निर्माण स्थलों पर रोज़ 12 घंटे काम करती हैं। बिना स्थायी आमदनी और सुरक्षा के ये मेहनत उनके लिए जानलेवा भी हो सकती है। रौशनी कहती हैं, “हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। धूप हो या बारिश, काम तो करना ही पड़ता है। अगर एक दिन भी छुट्टी ली तो पैसे कट जाएंगे।” मई 2024 में प्रकाशित ‘डाउन टू अर्थ‘ की एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में गर्मी की लहरों (हीटवेव) के कारण मजदूरों की काम क्षमता में औसतन 15-20 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। साथ ही, गर्मी से जुड़ी बीमारियों में भी बढ़ोतरी देखी गई है। इसके बावजूद इन महिलाओं को आराम करने या छुट्टी लेने की कोई सुविधा नहीं मिलती।

डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शहरी इलाकों में हरियाली घटने और गर्म सतहों के बढ़ने से ‘अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट’ तेज़ी से बढ़ रहा है। इसका मतलब यह है कि शहरों का तापमान आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 3 से 5 डिग्री तक ज़्यादा हो सकता है। भोपाल जैसे शहरों में तेज़ी से हो रहा विकास इसकी एक बड़ी वजह है।

हाशिये के समुदाय और गर्मियों में काम करने की चुनौतियां

भोपाल की सड़कों और निर्माण स्थलों पर काम करने वाली प्रवासी महिला मज़दूर जैसे रौशनी, सुनीता और सीमा हर दिन तेज़ धूप और भीषण गर्मी में बिना छांव या सुरक्षा के काम करती हैं। गर्मी उनके लिए सिर्फ असुविधा नहीं बल्कि एक गंभीर संघर्ष बन जाती है। टिन की झुग्गियों में रहने वाली इन महिलाओं के पास न बिजली होती है, न पंखा और न ही कोई राहत का साधन। सीमा बताती हैं, “दिन भर काम के बाद भी कोई मेरी हालत नहीं पूछता क्योंकि मैं ‘बाहर’ से आई हूं।” इन मज़दूरों के बच्चों का जीवन भी मुश्किलों से भरा है। भले ही शिक्षा का अधिकार सबके लिए हो, लेकिन इन झुग्गियों में रहने वाले बच्चों तक वह नहीं पहुंच पाता। दिन भर बच्चे धूल-मिट्टी में खेलते रहते हैं। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार, निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों में करीब 35 फीसद महिलाएं हैं और गर्मी का सबसे अधिक असर इसी वर्ग पर पड़ता है।

तस्वीर साभार: शिवानी

सीमा कहती हैं, “गरीबों का कोई भविष्य नहीं होता। ये बच्चे ऐसे ही गंदगी में रहेंगे। हमारा कोई पक्का घर नहीं है, हम हमेशा ऐसे ही रहते हैं। हमारी कमाई सिर्फ 400 रुपए है, उसमें हम क्या कर सकते हैं?” इस तरह की परिस्थितियां बताती हैं कि प्रवासी श्रमिकों और उनके बच्चों के जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की कितनी बड़ी कमी है। सीमा बच्चों की पढ़ाई को लेकर कहती हैं, “हमें बार-बार काम के सिलसिले में दूसरी जगह जाना पड़ता है, जिस कारण बच्चों का स्कूल में दाखिला नहीं हो पाता। हमें 2,3 साल के लिए एक जगह पर काम मिल जाए तो हम अपने बच्चों को पढ़ा पाएंगे, नहीं तो ऐसे ही चलता रहेगा।”

मई 2024 में प्रकाशित ‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में गर्मी की लहरों (हीटवेव) के कारण मजदूरों की काम क्षमता में औसतन 15-20 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। साथ ही, गर्मी से जुड़ी बीमारियों में भी बढ़ोतरी देखी गई है। इसके बावजूद इन महिलाओं को आराम करने या छुट्टी लेने की कोई सुविधा नहीं मिलती।

सीता छठी कक्षा की छात्रा हैं। गर्मियों की छुट्टियों में वह अपने माता-पिता, भाई के लिए रोटियां बना रही थीं। वह बताती हैं,“मेरे माता-पिता सुबह 6 बजे ही काम को चले जाते हैं। मैं दिन में उनके लिए खाना लेकर जाती हूं।” टीन के इस चादर वाले घर में रहने वाली सीता को स्कूल जाना अच्छा लगता है। वह बड़े होकर टीचर बनाना चाहती हैं। सीता कहती हैं, “गर्मी में पढ़ने में बहुत परेशानी होती है, दिन और रात में तो पंखा भी गर्म हवा फेंकता है। हम पानी में गीला कपड़ा डालकर रात में उसे ओढ़ लेते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा परेशान रात में मच्छर करते हैं।”

भीषण गर्मी और शहरीकरण

तस्वीर साभार: शिवानी

डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शहरी इलाकों में हरियाली घटने और गर्म सतहों के बढ़ने से ‘अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट’ तेज़ी से बढ़ रहा है। इसका मतलब यह है कि शहरों का तापमान आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 3 से 5 डिग्री तक ज़्यादा हो सकता है। भोपाल जैसे शहरों में तेज़ी से हो रहा विकास इसकी एक बड़ी वजह है। नई सड़कें, इमारतें और निर्माण की वजह से सड़कों के किनारे लगे पुराने पेड़ काट दिए गए हैं, जिससे शहर की छाया और हरियाली दोनों कम हो गई है। क्रांति, जो भोपाल के एक गर्ल्स पीजी में खाना बनाती हैं, बताती हैं, “पहले मैं पैदल घर चली जाती थी। रास्ते में पेड़ों की छांव मिल जाती थी तो धूप का असर कम होता था। अब वो पेड़ नहीं हैं, धूप में चलना बहुत मुश्किल हो गया है। कई बार मजबूरी में गाड़ी करनी पड़ती है।”

गरीबों का कोई भविष्य नहीं होता। ये बच्चे ऐसे ही गंदगी में रहेंगे। हमारा कोई पक्का घर नहीं है, हम हमेशा ऐसे ही रहते हैं। हमारी कमाई सिर्फ 400 रुपए है, उसमें हम क्या कर सकते हैं?

जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण का सबसे गहरा असर उन लोगों पर पड़ रहा है, जिनकी आवाज़ अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती है। खासकर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं इस संकट को सबसे अधिक झेल रही हैं। ये महिलाएं दिन में बाहर धूप में मेहनत करती हैं, और फिर घर लौटकर घरेलू जिम्मेदारियां भी अकेले उठाती हैं। बढ़ती गर्मी उनके लिए रोज़मर्रा की ज़िंदगी को और कठिन बना रही है। लू, तेज़ धूप और बढ़ता तापमान केवल असुविधा नहीं है, यह एक सामाजिक और स्वास्थ्य आपदा बन चुका है। कई महिलाएं बताती हैं कि गर्मी के दिनों में उनके छोटे बच्चों को बुखार, उल्टी और डिहाइड्रेशन जैसी समस्याएं होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें काम छोड़कर घर बैठना पड़ता है, जिससे उनकी मजदूरी कट जाती है और आर्थिक बोझ और बढ़ जाता है।

तस्वीर साभार: शिवानी

निर्माण स्थलों पर काम करने वाली महिलाएं, प्रवासी मज़दूर, झुग्गी बस्तियों में रहने वाले परिवार और बच्चे इस भीषण गर्मी के सबसे ज्यादा सामना करते हैं। इन सभी समुदायों के पास गर्मी से बचाव के पर्याप्त साधन नहीं हैं। इसके बावजूद, अभी तक मध्य प्रदेश जैसे गर्म राज्यों के लिए कोई ठोस ‘हीट एक्शन प्लान‘ नहीं बनाया गया है। भोपाल जैसे शहरों में, जहां चिलचिलाती धूप आम हो चुकी है, वहां ऐसी नीतियों की सख्त ज़रूरत है जो हाशिए पर खड़े समुदायों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए बनाई जाएं। सरकार द्वारा कई राज्यों में राष्ट्रीय हीट एक्शन प्लान जैसे प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका असर सीमित है। तापमान बढ़ने के साथ-साथ अब यह जरूरी हो गया है कि मजदूरों के लिए कार्यस्थलों पर छाया, पानी, प्राथमिक चिकित्सा और आराम की सुविधाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए। हीटवेव को एक प्राकृतिक आपदा कि तरह ही नहीं बल्कि मानवाधिकार के नजरिए से भी देखा जाना चाहिए।

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