इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे जंगल, जल, जमीन की रक्षा कर महिलाएं ‘ग्रीन इकॉनमी’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं

कैसे जंगल, जल, जमीन की रक्षा कर महिलाएं ‘ग्रीन इकॉनमी’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं

ग्रीन जॉब्स में भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है और वे घरेलू कामों में ज्यादा समय बिताती हैं। फिर भी, ग्रीन जॉब्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। 2023 में हरित नौकरियों के लिए कौशल परिषद की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रीन जॉब्स में 24 फीसद हिस्सेदारी महिलाओं की है।

कल्पना कीजिए एक ऐसी दुनिया की, जहां साफ हवा, शुद्ध पानी और भरपूर संसाधन हों। यह सपना ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था से सच हो सकता है। यह एक ऐसा मॉडल है, जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना विकास करता है। ग्रीन इकोनॉमी का मतलब है ऐसा विकास जिसमें रोजगार, पैसा और तरक्की तो हो, लेकिन न जंगल कटें, न नदियां गंदी हों और न हवा जहरीली बने। इसमें सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैविक खेती और रिसाइक्लिंग जैसे उपाय शामिल हैं। भारत सरकार की योजनाएं जैसे सौर मिशन, स्वच्छ भारत अभियान और नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य इस दिशा में मदद कर रही हैं। ओआरएफ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2050 तक जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा करने पर भारत की अर्थव्यवस्था 30.25 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ सकती है और 4.3 करोड़ नई नौकरियां मिल सकती हैं।

यह बदलाव समावेशी है और खासतौर पर महिलाएं इसमें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। शहरी और ग्रामीण महिलाएं ग्रीन इकोनॉमी से जुड़ रही हैं, जैविक खेती, सौर ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में योगदान दे रही हैं और अपने समुदायों को सशक्त बना रही हैं। ग्रीन इकोनॉमी न सिर्फ पर्यावरण की रक्षा करती है, बल्कि समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलती है। ग्रीन इकोनॉमी के जरिए पर्यावरण में बदलाव लाया जा सकता है और इस बदलाव में महिलाएं अहम भूमिका निभा रही हैं। आज के समय में भारत की महिलाएं न सिर्फ ग्रीन इकोनॉमी की हिस्सेदार हैं, बल्कि एक लीडर के तौर पर भी उभरकर निकल रही हैं। ऐसी कुछ महिलाओं के योगदान के बारे में जानने की हम कोशिश करेंगे।

ओआरएफ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2050 तक जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा करने पर भारत की अर्थव्यवस्था 30.25 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ सकती है और 4.3 करोड़ नई नौकरियां मिल सकती हैं।

जमुना टुडू: लेडी टार्ज़न

तस्वीर साभार: Wikipedia

उड़ीसा में जन्मी जमुना टुडू ‘जंगल बचाओ आंदोलन’ की अगुवाई रही हैं। उन्हें झारखंड की ‘लेडी टार्जन’ भी कहा जाता है। बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 1998 में उनका विवाह झारखंड के चाकुलिया जिले में हुआ। ससुराल के पास ही मुटुरखाम पहाड़ है, जो झारखंड के कोल्हान क्षेत्र में आता है। इस पहाड़ पर काफी कम पेड़-पौधे थे। आदिवासी समुदाय के लोग अपनी जरूरत के हिसाब से इसी पहाड़ से पेड़ काटकर ले जाते और उसकी लकड़ी का इस्तेमाल करते। उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने गांव की महिलाओं को संगठित किया और जंगल की रक्षा करने में जुट गई। पहाड़ के इसी हरे-भरे भूभाग पर ज़मीन माफियाओं की नजर थी। कई बार जमुना और माफियाओं के बीच मुठभेड़ भी हुई। जैसे ही पेड़ काटने की आवाज महिलाएं सुनती, तो वे झुंड में पहाड़ की ओर दौड़ पड़ते। धीरे-धीरे बंजर पहाड़ हरे-भरे पेड़ों से लहलहाने लगा। उन्हें साल 2019 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा गया है।

झारखण्ड की चामी मुर्मू

तस्वीर साभार: Dainik Bhaskar

चामी मुर्मू ने साल 1990 में ‘सहयोगी महिला’ नामक गैर सरकारी संस्था की शुरुआत की। इसके जरिए उन्होंने 2300 से भी ज्यादा ‘महिला स्वयं सहायता’ समूहों का गठन किया। इन समूहों के माध्यम से महिलाओं को बैंक के माध्यम से लोन मिलता है, जिससे वे नेचर फ्रेंडली वस्तुएं बनाकर अपना जीवन आगे बढ़ा रही हैं। उन्होंने दलमा के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में आदिवासी जनजाति की महिलाओं और किशोरियों के उत्थान के लिए भी कई काम किए हैं। साल 2019 में नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित होने तक उन्होंने भारत में 2,500,000 पेड़ लगाए थे।

उन्होंने गांव की महिलाओं को संगठित किया और जंगल की रक्षा करने में जुट गई। पहाड़ के इसी हरे-भरे भूभाग पर ज़मीन माफियाओं की नजर थी। कई बार जमुना और माफियाओं के बीच मुठभेड़ भी हुई।

कमला देवी: पहली महिला बेयरफुट सोलर इंजीनियर

तस्वीर साभार: The Hindu

कमला देवी राजस्थान के सिरुंज गांव की रहने वाली हैं और एक सोलर इंजीनियर हैं। उन्हें राजस्थान की पहली महिला सौर इंजीनियर के तौर पर जाना जाता है। द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, कमला की कम उम्र में शादी हो गई। शादी के बाद, उन्होंने सिरुंज में एक नाइट स्कूल के बारे में जाना और वहां पढ़ाने की इच्छा जताई। शुरुआत में उनके परिवार और गांव वालों ने इसका विरोध किया, लेकिन उनकी जिद के आगे सबको झुकना पड़ा। साल 1997 में, कमला को बीनजरवाड़ा गांव में बेयरफुट सोलर इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग के लिए चुना गया। इस ट्रेनिंग के लिए भी उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा। खासकर गांव के पुरुषों से, जो यह मानने को तैयार नहीं थे कि एक महिला इंजीनियरिंग का काम कर सकती है। लेकिन, वो ट्रेनिंग करने में सफल रहीं। ट्रेनिंग के बाद, वे अपने गांव में एक सौर ऊर्जा इकाई चलाने लगीं। यह उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि इससे उन्होंने न केवल अपने गांव में बिजली की सुविधा बढ़ाई, बल्कि यह भी साबित किया कि महिलाएं तकनीकी क्षेत्र में सक्षम हैं।

रुक्मणी देवी : बाल विवाह से सीईओ तक का सफर

तस्वीर साभार: Bollywood Shadis

एक छोटे आदिवासी गांव से आने वाली रुक्मणी देवी की शादी 13 साल की उम्र में हो गई थी। वह दिहाड़ी मजदूरी का काम किया करती थीं लेकिन 2016 में उन्होंने आईआईटी बॉम्बे के डूंगरपुर इनिशिएटिव से सोलर पैनल असेंबली की ट्रेनिंग हासिल की। इसके बाद उनकी जिंदगी में महत्वपूर्ण बदलाव आए। कड़ी मेहनत और तकनीकी ज्ञान से वे ट्रेनी से टेक्नीशियन और फिर सोलर कंपनी ‘दुर्गा एनर्जी’ की सीईओ बन गईं। फ़िलहाल उनकी कंपनी का सालाना टर्नओवर 3.5 करोड़ है और सैकड़ों आदिवासी महिलाओं को रोजगार देती है, जिन्हें ‘सौर सहेलियां’ कहा जाता है।

2016 में उन्होंने आईआईटी बॉम्बे के डूंगरपुर इनिशिएटिव से सोलर पैनल असेंबली की ट्रेनिंग हासिल की। इसके बाद उनकी जिंदगी में महत्वपूर्ण बदलाव आए। कड़ी मेहनत और तकनीकी ज्ञान से वे ट्रेनी से टेक्नीशियन और फिर सोलर कंपनी ‘दुर्गा एनर्जी’ की सीईओ बन गईं।

मधु सरिन: वन अधिकार कार्यकर्ता

तस्वीर साभार: Hindustan Times

मधु सरिन का जन्म नई दिल्ली में हुआ और उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में, विशेषकर वन क्षेत्रों और ग्रामीण समुदायों के साथ काम किया। उनका मुख्य फोकस उत्तराखंड, झारखंड और ओडिशा के वनवासी और आदिवासी समुदायों पर रहा। उन्होंने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के क्रियान्वयन में अहम भूमिका निभाई और नीतिगत और जमीनी स्तर पर इसके लिए काम किया।

कमला देवी राजस्थान के सिरुंज गांव की रहने वाली हैं और एक सोलर इंजीनियर हैं। उन्हें राजस्थान की पहली महिला सौर इंजीनियर के तौर पर जाना जाता है।

महिलाएं सिर्फ़ पेड़ नहीं लगातीं, वे छांव भी बुनती हैं। लेकिन हरित अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी सीमित है। भारत में 80 फीसद ग्रामीण महिलाएं खेती और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े काम करती हैं, फिर भी ज़मीन पर उनका मालिकाना हक़ नहीं होता। ग्रीन जॉब्स में उनकी हिस्सेदारी केवल 11-13 फीसद है। नेशनल सैंपल सर्वे और एग्रीकल्चरल सेंसस के अनुसार, महिलाएं कृषि कार्यबल का 55 फीसद हिस्सा हैं और 33 फीसद ज़मीन की देखभाल करती हैं, पर केवल 13.9 फीसद के पास ज़मीन का कानूनी हक़ है। वे खेतों में काम तो करती हैं लेकिन जब नीति, योजना और फैसले लेने की बारी आती है, तो पीछे रह जाती हैं। सवाल ये है कि क्या वे अब लोन, लैब और लीडरशिप में भी अपनी जगह बना पाएंगी? हरित अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए समावेशी नीतियों की ज़रूरत है।

महिलाएं और ग्रीन जॉब्स: चुनौतियां और संभावनाएं

भारत में ग्रीन इकोनॉमी महिलाओं के लिए नए रोजगार के अवसर लेकर आई है, लेकिन सामाजिक रूढ़ियां, शिक्षा की कमी, सुरक्षा, संसाधनों और वेतन में असमानता जैसी कई चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की साक्षरता और तकनीकी प्रशिक्षण की कमी उन्हें ग्रीन जॉब्स से दूर रखती है। वहीं, परिवहन और चाइल्ड केयर सुविधाओं की कमी भी एक बड़ी रुकावट है। ग्रीन जॉब्स में भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है और वे घरेलू कामों में ज्यादा समय बिताती हैं। फिर भी, ग्रीन जॉब्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। 2023 में हरित नौकरियों के लिए कौशल परिषद (SCGJ) की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रीन जॉब्स में 24 फीसद हिस्सेदारी महिलाओं की है। जैविक खेती, सौर ऊर्जा, अपशिष्ट प्रबंधन और माइक्रो उद्यमों के जरिए महिलाएं आगे आ रही हैं। सरकारी योजनाएं और माइक्रोफाइनेंस संस्थाएं महिलाओं को प्रशिक्षण, ऋण और रोजगार के अवसर दे रही हैं। ग्रीन इकोनॉमी महिलाओं के लिए एक बड़ा मौका है, लेकिन इसके लिए नीतिगत बदलाव, संसाधनों की उपलब्धता और सामाजिक सोच में परिवर्तन जरूरी है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content