लोकतंत्र में वोट देने का अधिकार सबसे बुनियादी अधिकारों में से एक है। यह केवल एक मत डालने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि व्यक्ति की इच्छा, सोच और अधिकारों की समझ का प्रतीक भी होता है। यह उस विश्वास का आधार है, जो नागरिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच स्थापित होता है। लेकिन, जब किसी विशेष वर्ग को इस प्रक्रिया से अनजाने में या जानबूझकर बाहर कर दिया जाता है, तो यह केवल तकनीकी गलती नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता और लोकतंत्र पर गहरी चोट होती है। बिहार से सामने आए हालिया आंकड़े इसी गंभीर चिंता को उजागर करते हैं। राज्य में मतदाता सूची पुनरीक्षण के तहत जारी ड्राफ्ट रोल में लगभग 66 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन हटाए गए नामों में महिलाओं की संख्या असामान्य रूप से अधिक है। आंकड़ों के अनुसार, बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 43 क्षेत्रों में 60 प्रतिशत या उससे अधिक हटाए गए नाम महिलाओं के हैं। इसका मतलब यह है कि यदि किसी क्षेत्र में 1,000 नामों को सूची से हटाया गया है, तो उनमें से लगभग 600 नाम केवल महिलाओं के हैं। यह महज एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है, जो यह संकेत देती है कि महिलाओं को आज भी अपने सबसे बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार से कैसे वंचित किया जा रहा है।
आंकड़ों के अनुसार, बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 43 क्षेत्रों में 60 प्रतिशत या उससे अधिक हटाए गए नाम महिलाओं के हैं। इसका मतलब यह है कि यदि किसी क्षेत्र में 1,000 नामों को सूची से हटाया गया है, तो उनमें से लगभग 600 नाम केवल महिलाओं के हैं।
महिलाओं का नाम मतदाता सूची से बाहर होने के कारण
यह सच है कि ड्राफ्ट रोल (मतदाता सूची का मसौदा) एक नियमित प्रक्रिया होती है। इसमें मृतक, स्थानांतरित या दोहराए गए नामों को हटाया जाता है और नए मतदाताओं को जोड़ा जाता है। लेकिन जब हटाए गए नामों में किसी विशेष वर्ग, खासकर महिलाओं की संख्या असामान्य रूप से अधिक हो, तो इसे केवल प्रशासनिक या तकनीकी चूक मान लेना उचित नहीं होगा। यह स्थिति एक गहरे सामाजिक असंतुलन और लैंगिक भेदभाव की ओर इशारा करती है। इससे साफ होता है कि महिलाएं आज भी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पूरी तरह से शामिल नहीं हो पाई हैं। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, जो सुधार की सख्त मांग करता है। बिहार जैसे राज्य में, जहां महिला साक्षरता दर अब भी राष्ट्रीय औसत से कम है और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां अधिक हैं, वहां मतदाता सूची से महिलाओं के नाम हटने के कई कारण हो सकते हैं।

सबसे सामान्य कारण यह है कि विवाह के बाद महिलाएं अपने ससुराल चली जाती हैं, लेकिन समय रहते उनके नए पते पर नाम दर्ज नहीं हो पाते। कई बार परिवार या खुद महिला को इस प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती, जिससे वे मतदान जैसे बुनियादी अधिकार से वंचित रह जाती हैं। इसके अतिरिक्त, दस्तावेज़ों की जटिलताएं, नामांकन प्रक्रियाओं की कठिनाई और चुनाव से जुड़ी तकनीकी जानकारी का अभाव भी इस समस्या को और बढ़ा देता है। इस संदर्भ में ज़रूरी है कि चुनाव आयोग और प्रशासन मिलकर महिलाओं को मतदाता सूची में पंजीकरण के प्रति जागरूक करें और उनके लिए प्रक्रिया को अधिक सरल और सुलभ बनाएं।
साल 2015 में, महिलाओं ने अपने पुरुष समकक्षों को भारी अंतर से पीछे छोड़ दिया, जहां 60.48 फीसद महिलाओं ने मतदान किया, जबकि पुरुषों ने 53.32 फीसद मतदान किया। साल 2015 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत बिहार में साल 1962 के बाद सबसे अधिक था।
ग्रामीण महिलाओं की पहचान और पंजीकरण की चुनौतियां

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के बीच डिजिटल साक्षरता की कमी, निर्वाचन प्रक्रिया से जुड़ी जागरूकता का अभाव और सरकारी तंत्र की सुस्त कार्यप्रणाली के कारण महिलाएं मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की प्रक्रिया से वंचित रह जाती हैं। पंजीकरण और नामांकन के दौरान की जाने वाली त्रुटियां, विशेषकर महिला मतदाताओं के मामलों में, समाज में गहराई से बैठी पितृसत्तात्मक सोच को भी उजागर करती हैं। ग्रामीण भारत में आज भी पितृसत्ता इतनी मजबूत है कि महिलाओं की पहचान उनके पुरुष परिजनों जैसे पति, पिता या भाई के माध्यम से ही की जाती है। महिलाओं को स्वतंत्र नागरिक के रूप में नहीं, बल्कि परिवार की इकाई के रूप में देखा जाता है।
यही कारण है कि राजनीतिक निर्णयों में महिलाओं की भागीदारी लगभग न के बराबर मानी जाती है। अक्सर चुनाव से जुड़े फैसले परिवारों में पुरुष सदस्य ही लेते हैं और महिलाएं केवल उनके निर्णयों का अनुसरण करती हैं। महिलाओं की अपनी राजनीतिक राय या पसंद को शायद ही कभी महत्व दिया जाता है। यह प्रवृत्ति लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी को सीमित करती है। कई महिलाएं तो यह भी नहीं जानतीं कि उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया है। उन्हें इसकी जानकारी तब मिलती है जब वे मतदान के दिन बूथ पर जाकर अपने अधिकार का प्रयोग करना चाहती हैं और उन्हें बताया जाता है कि वे अब वोट नहीं दे सकतीं।
जब हटाए गए नामों में किसी विशेष वर्ग, खासकर महिलाओं की संख्या असामान्य रूप से अधिक हो, तो इसे केवल प्रशासनिक या तकनीकी चूक मान लेना उचित नहीं होगा। यह स्थिति एक गहरे सामाजिक असंतुलन और लैंगिक भेदभाव की ओर इशारा करती है।
बदल रहा है महिला वोटर्स की संख्या
समाज में यह धारणा गहराई से जड़ की हुई है कि महिलाओं के राजनीतिक विचार जरूरी नहीं हैं। इसी सोच के कारण परिवार और समाज अक्सर उन्हें सक्रिय राजनीतिक भागीदारी से दूर रखते हैं। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को कमतर आंकने की यह मानसिकता सदियों पुरानी है, जो आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है और लैंगिक असमानता को लगातार बढ़ावा दे रही है। लोकतंत्र में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं, फिर भी महिलाएं आज भी अपने राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं। वर्तमान समय में भी देश के कई परिवारों में यह परंपरा जारी है कि परिवार की महिलाएं किसे वोट देंगी, इसका निर्णय पुरुष सदस्य ही लेते हैं। अक्सर महिलाओं को स्वतंत्र रूप से सोचने, अपनी राजनीतिक पसंद व्यक्त करने या स्वयं निर्णय लेने की पूरी आज़ादी नहीं दी जाती। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार के पुरुषों के निर्णय का पालन करें, भले ही उनकी अपनी सोच या प्राथमिकताएं कुछ और हों। यह स्थिति न केवल महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समाज में गहराई से मौजूद पितृसत्तात्मक मानसिकता को भी उजागर करती है।

यही मानसिकता महिलाओं की राजनीतिक चेतना और सक्रिय भागीदारी को सीमित करती है और उन्हें एक निष्क्रिय नागरिक की भूमिका में ढाल देती है। हालांकि वोटिंग की बात करें तो बिहार में पिछले चार विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि देखी गई है। साल 2015 में, महिलाओं ने अपने पुरुष समकक्षों को भारी अंतर से पीछे छोड़ दिया, जहां 60.48 फीसद महिलाओं ने मतदान किया, जबकि पुरुषों ने 53.32 फीसद मतदान किया। साल 2015 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत बिहार में साल 1962 के बाद सबसे अधिक था। कुल संख्या के संदर्भ में, 2015 में कुल पुरुष मतदाता (1.9 करोड़) महिलाओं (1.89 करोड़) से थोड़ा अधिक थे। उस साल कुल मतदान 56.66 फीसद था। वहीं साल 2024 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया, जिसमें 65.8 फीसद महिलाओं ने भाग लिया, जबकि पुरुषों ने 65.6 फीसद मतदान किया।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के बीच डिजिटल साक्षरता की कमी, निर्वाचन प्रक्रिया से जुड़ी जागरूकता का अभाव और सरकारी तंत्र की सुस्त कार्यप्रणाली के कारण महिलाएं मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की प्रक्रिया से वंचित रह जाती हैं।
भारत में पंचायती राज व्यवस्था के तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है ताकि वे राजनीति में भाग लेकर नेतृत्व कर सकें। कई राज्यों ने इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई अलग है। ग्रामीण इलाकों में अक्सर निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की जगह उनके पति या अन्य पुरुष रिश्तेदार फैसले लेते हैं। अक्सर इससे महिलाएं केवल नाम की नेता बनकर रह जाती हैं। यह स्थिति पितृसत्ता की गहरी जड़ों और महिलाओं के बुनियादी अधिकारों के हनन को दिखाती है। महिलाएं लोकतंत्र की आधी ताकत हैं, लेकिन जब उनकी भागीदारी सीमित की जाती है, तो यह लोकतंत्र की समावेशिता पर सवाल उठाता है। बिहार में हाल ही में सामने आए आंकड़ों के अनुसार, बड़ी संख्या में महिलाओं के नाम मतदाता सूची से हटाए गए हैं। यह न केवल उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि लोकतंत्र की पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करता है। यह जरूरी है कि चुनाव आयोग और सरकार मिलकर इस असमानता को गंभीरता से लें। विशेष अभियान चलाकर यह सुनिश्चित किया जाए कि महिलाओं के नाम मतदाता सूची में सही रूप से दर्ज हों।
पंचायत से लेकर ज़िला स्तर तक जागरूकता फैलानी होगी, ताकि हर महिला यह समझ सके कि मतदान करना केवल उसका अधिकार नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी है। लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप तभी साकार होता है, जब उसमें समाज के हर वर्ग की समान और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो। महिलाओं को उनके मतदान अधिकार से वंचित किया जाना केवल एक तकनीकी गलती नहीं है, बल्कि यह सामाजिक असमानता और लैंगिक भेदभाव की एक गंभीर चेतावनी है। बिहार में सामने आए आंकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि इस दिशा में अभी बहुत कार्य करने की जरूरत है। महिलाएं केवल समाज की आधी आबादी नहीं हैं, बल्कि वे राष्ट्र के भविष्य की दिशा तय करने वाली निर्णायक शक्ति भी हैं। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रखना भारतीय संविधान की मूल भावना और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ एक गंभीर अन्याय है। अब समय आ गया है कि इस स्थिति को केवल आंकड़ों की तरह देखा न जाए, बल्कि इसे एक चेतावनी के रूप में स्वीकार कर, सुधार की ठोस रणनीति अपनाई जाए। जब तक हर महिला को उनका राजनीतिक अधिकार पूरी तरह नहीं मिलता है, तब तक हमारा लोकतंत्र अधूरा रहेगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था वास्तव में ‘सबका लोकतंत्र’ बने, जहां हर नागरिक की आवाज़ सुनी जाए और हर मतदाता की भूमिका समान रूप से मान्य हो।

