राजनीति में महिलाओं की बराबर भागीदारी होना किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत ज़रूरी है। जब महिलाएं सरकार और नीति बनाने की प्रक्रिया में शामिल होती हैं, तो फैसले ज़्यादा न्यायपूर्ण और समावेशी होते हैं। लेकिन आज भी बहुत से देशों में महिलाएं राजनीतिक भागीदारी से दूर हैं। यह समस्या केवल गरीब या विकासशील देशों तक सीमित नहीं है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की जारी रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को अब भी सत्ता में ऊंचे पदों से दूर रखा जा रहा है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत महिला कैबिनेट मंत्रियों की संख्या के मामले में सबसे निचले पायदान वाले देशों में से एक है।
संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के अनुसार, महिला कैबिनेट मंत्रियों के मामले में भारत 181 देशों में से 174वें स्थान पर है। वहीं पिछले कुछ सालों में दुनिया भर के कैबिनेट मंत्रालयों में महिलाओं की संख्या में कमी पाई गई है। वैश्विक स्तर पर साल 2024 में कैबिनेट में महिलाओं की हिस्सेदारी 23.3 फीसद थी जो 2025 तक आते-आते घटकर 22.9 फीसद रह गई। यह आंकड़े न सिर्फ़ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की कमी को उजागर करते हैं बल्कि देश के लोकतंत्र पर भी सवाल खड़े करते हैं। राजनीति में उच्च पदों पर महिलाओं की भागीदारी प्रतिनिधित्व के साथ-साथ विविधता और समावेशिता का भी मामला है। यह लोकतंत्र की मजबूती और मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, महिला कैबिनेट मंत्रियों के मामले में भारत 181 देशों में से 174वें स्थान पर है। वहीं पिछले कुछ सालों में दुनिया भर के कैबिनेट मंत्रालयों में महिलाओं की संख्या में कमी पाई गई है। वैश्विक स्तर पर साल 2024 में कैबिनेट में महिलाओं की हिस्सेदारी 23.3 फीसद थी जो 2025 तक आते-आते घटकर 22.9 फीसद रह गई।
भारत में महिला कैबिनेट मंत्रियों की वर्तमान स्थिति
संविधान में दिए गए समानता के मौलिक अधिकार के बावजूद भारत की कार्यपालिका यानी सरकार में महिलाओं की भागीदारी अब भी बेहद कम है। संयुक्त राष्ट्र के जून 2025 के आंकड़ों के अनुसार इस समय भारत की केंद्रीय कैबिनेट में सिर्फ 9.7 फीसद मंत्री महिलाएं हैं। देश की लोकसभा में इस समय 13.8 फीसद महिला सांसद मौजूद हैं। न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में इस तरह की गिरावट देखी जा रही है, जो कि बेहद निराशाजनक है। यह संख्या पिछले सालों की तुलना में कम होती जा रही है। समानता के कितने भी दावे कर लिए जाएं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि संविधान बनने के 75 साल बीत जाने के बावजूद आज भी दुनिया के सबसे ज़्यादा आबादी वाले देश को इंदिरा गांधी के रूप में एकमात्र महिला प्रधानमंत्री ही हासिल हो पाई हैं।

आज भी भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 2 यानी दिल्ली और पश्चिम बंगाल में ही महिला मुख्यमंत्री हैं। राजनीति में महिलाओं की यह सीमित उपस्थिति न सिर्फ प्रतिनिधित्व के संकट को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि निर्णय लेने वाले मंच अब भी पुरुष प्रधान बने हुए हैं। जब महिलाओं को सत्ता की भागीदारी से वंचित रखा जाता है, तो नीतियां भी अक्सर उनके अनुभवों और ज़रूरतों को दरकिनार कर देती हैं। ऐसे में यह ज़रूरी है कि राजनीति को महिलाओं के लिए केवल एक प्रतीकात्मक भूमिका का स्थान न बनाकर, उन्हें निर्णय प्रक्रिया का वास्तविक हिस्सा बनाया जाए। जब तक महिलाओं को सत्ता में बराबरी से जगह नहीं मिलेगी, तबतक लोकतंत्र केवल काग़ज़ों में समानता का दावा करता रहेगा, ज़मीनी हकीकत में नहीं।
संयुक्त राष्ट्र के जून 2025 के आंकड़ों के अनुसार इस समय भारत की केंद्रीय कैबिनेट में सिर्फ 9.7 फीसद मंत्री महिलाएं हैं। देश की लोकसभा में इस समय 13.8 फीसद महिला सांसद मौजूद हैं।
वैश्विक स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी
राजनीतिक क्षेत्रों में उच्च पदों पर महिलाओं के साथ हो रहा भेदभाव भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आसानी से देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि 2025 में पूरी दुनिया में कैबिनेट मंत्रालयों में महिलाओं की मौजूदगी कम हो गई है। इसके साथ ही ऐसे देश जहां 50 फीसद से ज़्यादा महिला कैबिनेट मंत्री हैं, उनकी संख्या भी पिछले साल की तुलना में 15 से घटकर 9 पर पहुंच गई है। हालांकि ऐसे देश जहां एक भी महिला मंत्री नहीं हैं उनकी संख्या साल भर में 7 से बढ़कर 9 हो गई है। यूरोपियन यूनियन और उत्तरी अमेरिका में कैबिनेट में महिलाओं की हिस्सेदारी फिर भी थोड़ी बेहतर यानी 31 फीसद है। वहीं भारत जैसे मध्य और दक्षिण एशियाई देशों में औसतन 9 फीसद महिलाएं ही सरकार में शामिल हैं।

अगर देश के एकल या निचले सदन में सबसे ज़्यादा महिला सांसद वाले देशों की बात की जाए, जहां 50 फीसद से अधिक महिलाएं हैं तो इसमें पहला नंबर आता है रवांडा का। रवांडा पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीका महाद्वीप का एक ऐसा देश है जहां की संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी 64 फीसद है। इसके साथ ही क्यूबा में 56 फीसद, निकारागुआ में 55 फीसद, एंडोरा, मैक्सिको और संयुक्त अरब अमीरात की संसद में 50-50 फीसद महिलाएं शामिल हैं। इसके अलावा 21 ऐसे देश हैं जहां पर महिलाओं की हिस्सेदारी 40 फीसद से ज़्यादा पहुंच गई है। इसमें 9 देश यूरोप से, लैटिन अमेरिका के 6 देश, अफ्रीका से 5 देश जबकि एशिया से सिर्फ़ एक देश शामिल है। संयुक्त राष्ट्र की इसी रिपोर्ट में यह भी आशंका जताई गई है कि अगर इसी रफ़्तार से यह सब चलता रहा तो दुनिया भर की विधायिका में लैंगिक समानता लाने में साल 2063 तक का समय लग सकता है।
2025 में पूरी दुनिया में कैबिनेट मंत्रालयों में महिलाओं की मौजूदगी कम हो गई है। इसके साथ ही ऐसे देश जहां 50 फीसद से ज़्यादा महिला कैबिनेट मंत्री हैं, उनकी संख्या भी पिछले साल की तुलना में 15 से घटकर 9 पर पहुंच गई है।
पोर्टफोलियो के बंटवारे में लैंगिक भेदभाव
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट यह भी बताती है कि जिन देशों में कैबिनेट मंत्रालय में कुछ एक महिलाएं हैं उनकी स्थिति कोई बहुत बेहतर नहीं है। महिलाओं को आमतौर पर महिलाओं और बच्चों से जुड़े विभागों में ही प्राथमिकता दी जाती है जबकि रक्षा, विदेश और वित्त जैसे अहम मंत्रालय अब भी ज़्यादातर पुरुषों को दिए जाते हैं। रिपोर्ट में पाया गया कि कैबिनेट में अब भी आमतौर पर महिला सांसदों को महिला कल्याण के क्षेत्र में 87 फीसद और बाल विकास के क्षेत्र में केबल 71 फीसद ज़िम्मेदारियों तक ही सीमित रखा जाता है।
जबकि पुरुषों को रक्षा के क्षेत्र में 87 फीसद, वित्त में 84 फीसद और विदेशी मामले (82 फीसद) जैसे हाई प्रोफाइल माने जाने वाले विभाग दिए जाते हैं। इस तरह का बंटवारा उसी पितृसत्तात्मक मानसिकता को दिखाता है, जिसके अनुसार महिलाएं घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए ही बनी हैं। इस तरह का भेदभाव बेहद चिंताजनक है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र अपने 17 सतत विकास लक्ष्यों एसडीजी को 2030 तक हासिल करने के लिए दुनिया भर में तमाम योजनाएं चला रहा है। इसके साथ ही लैंगिक समानता हासिल करने के लक्ष्य को लेकर तमाम देश अपने-अपने स्तर पर भी कोशिश कर रहे हैं, जिनका ज़मीनी स्तर पर कोई ख़ास असर नहीं दिख रहा।
महिलाओं को आमतौर पर महिलाओं और बच्चों से जुड़े विभागों में ही प्राथमिकता दी जाती है जबकि रक्षा, विदेश और वित्त जैसे अहम मंत्रालय अब भी ज़्यादातर पुरुषों को दिए जाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक कैबिनेट में अब भी आमतौर पर महिला सांसदों को महिला कल्याण के क्षेत्र में 87 फीसद और बाल विकास के क्षेत्र में केबल 71 फीसद ज़िम्मेदारियों तक ही सीमित रखा जाता है।
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी क्यों है ज़रूरी
लोकतंत्र की मजबूती और सभी नागरिकों को समान मानव अधिकार सुनिश्चित करने के लिए हर स्तर पर भागीदारी ज़रूरी है। दुनिया की आबादी में महिलाओं की लगभग आधी (49.71 फीसद) हिस्सेदारी है, इसके बावजूद कैबिनेट में उनकी भागीदारी महज 22.9 फीसद है। गेट्स फाउंडेशन के रिसर्च से भी यह पता चला है कि जहां महिलाएं नेतृत्व में ऊंचे पदों पर होती है वहां शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याणकारी योजनाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है। समावेशी और बेहतर शासन सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी ज़रूरी है।

इसके साथ ही लोकतांत्रिक शासन आज पूरी दुनिया में राजनीतिक शासन व्यवस्था का आदर्श बना हुआ है और एक सच्चा लोकतंत्र वही होता है जब वहां हर वर्ग की भागीदारी हो। देश के आर्थिक विकास के लिए भी नेतृत्व में महिलाओं की हिस्सेदारी और योगदान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। कैबिनेट में महिलाओं के शामिल होने से समावेशिता और विविधता आती है जिससे रचनात्मकता भी बढ़ती है। इसके साथ ही महिलाएं संसद में उच्च पदों पर होगी तो उनकी बात बेहतर तरीके से सुनी और समझी जाएगी, जिससे महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर नीतियां बनाना और लागू करना आसान होगा।
गेट्स फाउंडेशन के रिसर्च से भी यह पता चला है कि जहां महिलाएं नेतृत्व में ऊंचे पदों पर होती है वहां शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याणकारी योजनाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है।
कैसे सुनिश्चित करें महिलाओं की राजनीति में बराबरी
देश में अगर महिलाओं को राजनीतिक बराबरी देनी है तो इसके लिए ठोस क़दम उठाए जाने चाहिए। इस दिशा में संसद और कैबिनेट में महिलाओं के लिए न्यूनतम भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण भी एक उपाय हो सकता है। हालांकि 2023 में पारित हुआ नारी शक्ति वंदन अधिनियम एक अच्छी पहल साबित हो सकता था, जिसमें महिलाओं को संसद में 33 फीसद आरक्षण सुनिश्चित किया गया है। लेकिन परिसीमन की शर्तों की वजह से इसे आने वाले 2029 के लोकसभा चुनाव में लागू किया जाना एक बड़ी बाधा है, जिसमें सुधार की ज़रूरत है। इसके अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों को चुनावों में टिकट देते समय महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर जोर देना चाहिए।
इसके लिए लीडरशिप ट्रेनिंग और मेंटरशिप अच्छे उपाय साबित हो सकते हैं। साथ ही चुनावों में पैसे, सत्ता, अपराध और बाहुबल का दुरुपयोग रोकना भी उतना ही ज़रूरी है जिससे पारदर्शी तरीके से चुनाव प्रक्रिया संपन्न हो सके और बिना राजनीतिक बैकग्राउंड के आम महिलाएं भी राजनीति में हिस्सा ले पाएं। इन सब के साथ जन जागरूकता बेहद ज़रूरी है, क्योंकि जब तक समाज में लैंगिक भेदभाव ज़ारी रहेगा तब तक सिर्फ़ क़ानून बनाकर किसी भी क्षेत्र में बराबरी हासिल नहीं की जा सकती। सत्ता के हर स्तर पर महिलाओं की प्रभावी भागीदारी लोकतंत्र की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है। अब समय है कि प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि निर्णायक भूमिका में महिलाओं को जगह दी जाए।