इतिहास भूख हड़ताल : विरोध का नैतिक माध्यम या लोकतंत्र की विवशता ?

भूख हड़ताल : विरोध का नैतिक माध्यम या लोकतंत्र की विवशता ?

भूख हड़ताल का मूल उद्देश्य सरकार को न्यायपूर्ण निर्णय लेने के लिए बाध्य करना होता है, और यह अक्सर जन-आंदोलनों के लिए जन-जागरूकता फैलाने का माध्यम भी बनती है।

लोकतंत्र का आधार जनता की सक्रिय भागीदारी और सत्ता की जवाबदेही पर टिका होता है। जब सत्ता नियंत्रण की ओर अग्रसर हो जाती है या नागरिकों की मांगों को अनसुना करती है, तब सामाजिक आंदोलनों का जन्म होता है। इन आंदोलनों में भूख हड़ताल एक प्रभावशाली और नैतिक दबाव उत्पन्न करने वाला माध्यम बनता है। विरोध के अनेक तरीकों में, भूख हड़ताल एक ऐसा तरीका है जो सबसे शांत, परंतु अत्यंत प्रभावशाली है। यह न तो शोर करता है, न हिंसा करता है, न ही किसी प्रकार का उथल-पुथल फैलाता है, फिर भी यह अत्यंत गहन संदेश देता है। 

भूख हड़ताल वह माध्यम है जिसमें व्यक्ति अपने शरीर को ही प्रतिरोध का स्थल बना लेता है, और अपनी भूख के माध्यम से अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है। यह केवल व्यक्तिगत संकल्प नहीं होता, बल्कि उन सभी की ओर से एक पुकार होती है जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। भारत का इतिहास ऐसे कई आंदोलनों से भरा है जहां भूख हड़ताल ने सत्ता पर नैतिक दबाव बनाने का एक अनूठा, शांतिपूर्ण और प्रभावशाली तरीका साबित किया है। यह विरोध का एक ऐसा रूप है, जो हिंसा से दूर रहते हुए भी अपनी ताकत और गंभीरता के कारण सरकारों की नीतियों को प्रभावित करता रहा है। भूख हड़ताल का मूल उद्देश्य सरकार को न्यायपूर्ण निर्णय लेने के लिए बाध्य करना होता है, और यह अक्सर जन-आंदोलनों के लिए जन-जागरूकता फैलाने का माध्यम भी बनती है।

भूख हड़ताल वह माध्यम है जिसमें व्यक्ति अपने शरीर को ही प्रतिरोध का स्थल बना लेता है, और अपनी भूख के माध्यम से अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है। यह केवल व्यक्तिगत संकल्प नहीं होता, बल्कि उन सभी की ओर से एक पुकार होती है जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है।

गांधी की भूख हड़ताल और नैतिकता का इतिहास

तस्वीर साभार : Hindustan Times

महात्मा गांधी का किया गया भूख हड़ताल विरोध के माध्यम के साथ – साथ आत्मबल, नैतिकता और सामाजिक चेतना का प्रतीक था । साल 1918 में उन्होंने अहमदाबाद के मिल मज़दूरों के संघर्ष में न्याय का पक्ष लेते हुए अन्न त्याग किया, जिससे पूंजीपतियों पर नैतिक दबाव पड़ा और समाधान संभव हुआ। एक साल  बाद, जब रॉलेट एक्ट लागू हुआ और जलियांवाला बाग में हत्याकांड हुआ, तब उन्होंने देश की आक्रोशित भावनाओं को नियंत्रण में लाने के लिए आत्मसंयम का मार्ग चुना। वह मानते थे कि विरोध में भी अहिंसा बनी रहनी चाहिए । इसी विचार के साथ उन्होंने साल 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत के दौरान, भड़की सांप्रदायिक हिंसा को शांत करने के लिए संयम अपनाया। 

साल 1924 में साम्प्रदायिक एकता के लिए उनकी भूख हड़ताल इस बात का प्रमाण था कि सामाजिक एकता केवल भाषणों से नहीं, बलिदान से आती है। साल 1932 में जब ब्रिटिश सरकार ने दलित समुदाय के लोगों को अलग निर्वाचन मंडल देने की योजना बनाई, गांधीजी ने यरवदा जेल में भूख से लड़कर सामाजिक एकता के पक्ष में सबसे बड़ा नैतिक हस्तक्षेप किया। यह वही समय था जब उन्होंने अस्पृश्यता यानी छुआछूत के खिलाफ एक प्रतीकात्मक उपवास रखकर समाज को एक नई दिशा दी। भारत छोड़ो आंदोलन के बाद साल 1943 में जब अंग्रेजों ने कांग्रेस के विरुद्ध षड्यंत्र रचा, तो गांधीजी ने जेल में रहते हुए 21 दिन तक खुद  को कष्ट देकर सत्य का पक्ष लिया। यह उनके जीवन का सबसे कठिन और स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक संघर्ष था।

महात्मा गांधी का किया गया भूख हड़ताल विरोध के माध्यम के साथ – साथ आत्मबल, नैतिकता और सामाजिक चेतना का प्रतीक था । साल 1918 में उन्होंने अहमदाबाद के मिल मज़दूरों के संघर्ष में न्याय का पक्ष लेते हुए अन्न त्याग किया।

पोट्टी श्रीरामुलु की भूख हड़ताल

तस्वीर साभार : Canva

पोट्टी श्रीरामुलु एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने तेलुगु भाषी जनता के लिए एक अलग  राज्य की मांग को लेकर ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। 19 अक्टूबर 1952 को उन्होंने मद्रास राज्य से अलग आंध्र प्रदेश की स्थापना की मांग करते हुए अनशन आरंभ किया। यह अनशन पूरी तरह अहिंसात्मक और गांधी के सिद्धांतों पर आधारित था। श्रीरामुलु का मानना था कि भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भारत की एकता को मज़बूत करेगा।

सरकार की उनकी मांगों की अनदेखी के बावजूद उन्होंने अनशन जारी रखा। लगातार 58 दिनों तक अन्न-जल त्यागने के बाद 15 दिसंबर 1952 को उनकी मृत्यु हो गई । उनकी मृत्यु ने पूरे देश, विशेषकर तेलुगु भाषी क्षेत्रों में, जनांदोलन की आग भड़का दी। व्यापक विरोध और हिंसा के दबाव में केंद्र सरकार को आखिरकार झुकना पड़ा। 1 अक्टूबर 1953 को आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना हुई। उनकी यह बलिदानी हड़ताल भारत के भाषायी पुनर्गठन आंदोलन की आधारशिला बन गई।

19 अक्टूबर 1952 को उन्होंने मद्रास राज्य से अलग आंध्र प्रदेश की स्थापना की मांग करते हुए अनशन आरंभ किया। यह अनशन पूरी तरह अहिंसात्मक और गांधी के सिद्धांतों पर आधारित था। श्रीरामुलु का मानना था कि भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भारत की एकता को मज़बूत करेगा।

इरोम शर्मिला की बेख़ौफ़ आवाज़

तस्वीर साभार : Scroll.in

इरोम चानू शर्मिला, जिन्हें आयरन लेडी ऑफ मणिपुर भी कहा जाता है, वह मणिपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार समर्थक हैं।  मणिपुर के मालोम क्षेत्र में सुरक्षा बलों ने 10 निर्दोष लोगों को गोली मार दी थी। इस घटना के विरोध में उन्होंने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम ( एएफएसपीए ) के खिलाफ भूख हड़ताल शुरू की। यह कानून सेना को बिना वारंट गिरफ्तारी, गोली चलाने और तलाशी लेने जैसे विशेष अधिकार देता है, जो कई बार मानवाधिकार उल्लंघन का कारण बनता है। शर्मिला ने इसे असंवैधानिक और अमानवीय बताया। उन्होंने इस कानून को खत्म करने की मांग करते हुए खाना-पीना पूरी तरह त्याग दिया। उनका यह यह भूख हड़ताल परइ तरह से अहिंसा पर आधारित था। 16 वर्षों तक बिना ठोस भोजन किए वे भूख हड़ताल पर बैठी रही। सरकार ने बार-बार नाक से जबरन भोजन दिया। 

उनके संघर्ष ने न सिर्फ भारत, उसके साथ विश्वभर का ध्यान खींचा। यह भूख हड़ताल सत्ता के उस रूप के खिलाफ थी, जो सुरक्षा के नाम पर आम जनता की आवाज को कुचलता है। शर्मिला की लड़ाई बताती है कि जब लोकतांत्रिक ढांचे में नागरिकों की सुनवाई नहीं होती, तो व्यक्ति खुद आंदोलन बन जाता है। सत्ता ने उन्हें बार-बार चुप कराने की कोशिश की, लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहीं। उनका आंदोलन एक उदाहरण है कि एक अकेली आवाज भी व्यवस्था को चुनौती दे सकती है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सत्य और दृढ़ता के बल पर सत्ता की दीवारों को हिलाया जा सकता है। इरोम की यह भूख हड़ताल दुनिया सबसे लंबी भूख हड़ताल है।

वह मणिपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार समर्थक हैं।  मणिपुर के मालोम क्षेत्र में सुरक्षा बलों ने 10 निर्दोष लोगों को गोली मार दी थी। इस घटना के विरोध में उन्होंने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ भूख हड़ताल शुरू की।

मीडिया और भूख हड़ताल

तस्वीर साभार : NDTV

आज के दौर में भूख हड़ताल की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि मीडिया उसे कितना स्थान देता है। पारंपरिक मीडिया कई बार कॉर्पोरेट या राजनीतिक हितों के अधीन होकर ऐसे आंदोलनों की उपेक्षा कर देता है, या इन विषयों को नहीं दिखाता है। जिससे जनता तक उनकी गंभीरता नहीं पहुंच पाती। लेह-लद्दाख में हुआ क्लाइमेट फास्ट इसका ताज़ा उदाहरण है, जिसे मुख्यधारा की मीडिया ने सीमित रूप से दिखाया, लेकिन सोशल मीडिया, स्वतंत्र पत्रकारों और वैकल्पिक मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने उसे व्यापक चर्चा का विषय बनाया।

साल 2024 में लेह-लद्दाख में आरंभ हुआ क्लाइमेट फास्ट आंदोलन पर्यावरणीय संरक्षण, संवैधानिक अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की मांगों को लेकर किया गया एक शांतिपूर्ण और नैतिक प्रतिरोध था, जिसका नेतृत्व  पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने किया। यह भूख हड़ताल लद्दाख को भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत विशेष दर्जा देने, जनजातीय समुदायों के भूमि और संसाधनों पर अधिकार सुरक्षित करने और  हिमालयी पारिस्थितिकी को औद्योगिक शोषण से बचाने की मांग के साथ शुरू की गई। 10 डिग्री सेल्सियस के कठोर तापमान में 21 दिनों तक अन्न-त्याग कर किया गया यह भूख हड़ताल गांधीवादी परंपरा में प्रतिरोध की नैतिक शक्ति का जीवंत उदाहरण बना। आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं, युवाओं और धार्मिक संगठनों की भागीदारी ने इसे एक व्यापक जनांदोलन का स्वरूप प्रदान किया। 

साल 2024 में लेह-लद्दाख में आरंभ हुआ क्लाइमेट फास्ट आंदोलन पर्यावरणीय संरक्षण, संवैधानिक अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की मांगों को लेकर किया गया एक शांतिपूर्ण और नैतिक प्रतिरोध था, जिसका नेतृत्व  पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने किया।

भूख से संवाद: किसानों से लेकर गाजा समर्थकों तक का संघर्ष

तस्वीर साभार : Scroll.in

साल 2024-25 में पंजाब के कृषक संगठनों ने केंद्र सरकार की कृषि नीतियों के खिलाफ जाकर, विशेषकर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम्एसपी ) की कानूनी गारंटी की अनुपस्थिति और कृषि क्षेत्र में बढ़ते निजीकरण के संदर्भ में भूख हड़ताल की। इस समय में जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कृषकों का नेतृत्व किया, जिन्होंने शांति और संयम के साथ अपनी मांगों को सरकार तक पहुंचाने के लिए 123 दिनों तक भूख हड़ताल का सहारा लिया। यह रणनीति एक अहिंसक विरोध था, जिसमें अपने आहार का त्याग कर वे सरकार के ध्यान को कृषकों की स्थिति की ओर करना चाहते थे। शासकीय स्तर पर कई बार बातचीत की पहल की गई, लेकिन किसानों की निरंतर प्रतिबद्धता और भूख हड़ताल के माध्यम से व्यक्त की गई दृढ़ता ने सत्ता के रवैये पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इसी तरह 27 जुलाई से 3 अगस्त 2025 के बीच पुणे में गाजा के लिए एक भूख हड़ताल हुई, जिसमें कई लोग शामिल हुए। इसका उद्देश्य गाजा में चल रही हिंसा और मानवीय संकट पर ध्यान आकर्षित करना था। इस अहिंसक तरीके से लोगों ने शांति और न्याय की मांग की। इस घटना से साफ़ तौर पर यह देखा जा सकता है कि जब सत्ता की नीतियां आम जनता के जीवन को प्रभावित करती हैं, तो लोग शांतिपूर्ण तरीकों से अपनी आवाज़ उठाते हैं।

आज  के दौर में भूख हड़ताल न तो केवल विरोध है, न पूरी तरह मजबूरी । यह एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक  माध्यम है, जो सरकार की संवेदनशीलता, जवाबदेही और लोकतांत्रिक मूल्यों की वास्तविक स्थिति को सामने लाता है। अगर सरकार सच में लोकतांत्रिक है, तो वह भूख हड़ताल को एक चेतावनी की तरह लेगी और संवाद करेगी, लेकिन अगर वह असंवेदनशील है, तो यह विरोध व्यक्तिगत बलिदान की एक विवश अभिव्यक्ति बनकर रह जाएगा। यह सरकार के लिए एक नैतिक चुनौती बनती है । क्या वह अपनी जनता की पीड़ा को महसूस कर रही है, या उसे अनदेखा कर रही है? जब सरकार चुप रहती है, तो यह चुप्पी केवल प्रतिक्रिया की कमी नहीं होती, यह लोकतंत्र में संवाद की कमी को बताती है। भूख हड़ताल, विशेष रूप से हाशिए पर खड़े लोगों के लिए, आवाज़ बनने का साधन बनती है । एक ऐसा माध्यम जो बिना किसी संसाधन, संगठन या राजनीतिक ताकत के भी, सत्ता को नैतिक रूप से चुनौती देता है। यह उन लोगों का तरीका है, जिनके पास बोलने के लिए मंच नहीं, सुनने वाला श्रोता नहीं, और देखने वाला समाज नहीं। भूख हड़ताल उनके लिए न केवल विरोध है,  अस्तित्व और अधिकार की पुकार भी पुकार है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content