इंटरसेक्शनलजेंडर क्लाइमेट एंग्ज़ायटी : भारत में महिलाओं के लिए नया मानसिक स्वास्थ्य संकट

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी : भारत में महिलाओं के लिए नया मानसिक स्वास्थ्य संकट

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी एक तरह की चिंता है, जो जलवायु में होने वाले बदलावों की वजह से होती है। इसका असर ख़ासतौर पर हाशिए  पर रह रहे समुदाय के व्यक्तियों पर और खासकर महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता है।

जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बन चुका है। इससे न केवल धरती के तापमान और मौसम के पैटर्न पर असर पड़ रहा है, बल्कि यह हमारे मानसिक सेहत पर भी गहरा असर डाल रहा है। क्लाइमेट एंग्ज़ायटी एक तरह की एंग्ज़ायटी या चिंता है, जो जलवायु में होने वाले बदलावों की वजह से होती है। इसका असर ख़ासतौर पर हाशिए  पर रह रहे समुदाय के व्यक्तियों पर और खासकर महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां पहले से ही लैंगिक भेदभाव की एक गहरी खाई है । वहां क्लाइमेट एंग्ज़ायटी का बोझ भी महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता है। यह अब रोजमर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुकी है और अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक स्थिति के लोगों पर इसका असर भी अलग तरीके से होता है। बाढ़, सूखा, हीटवेव, भूकंप और सुनामी जैसी आपदाएं महिलाओं के लिए न केवल काम का अतिरिक्त बोझ डालती हैं बल्कि चिंता और भविष्य को लेकर असुरक्षा को भी जन्म देती हैं।

क्या है क्लाइमेट एंग्ज़ायटी और महिलाओं के लिए ये कैसे अलग है

यूनिसेफ के अनुसार, क्लाइमेट एंग्ज़ायटी  को जलवायु में खतरनाक बदलावों के कारण होने वाली भावनात्मक, मानसिक या शारीरिक परेशानी के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें लोग अक्सर बेचैनी, डर और  असुरक्षा की भावना महसूस करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़े खतरों के बारे में खबरें या व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से होती है। मेडिकल पत्रिका द लैंसेट और यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ कमीशन ने जलवायु परिवर्तन को 21वीं सदी के वैश्विक स्वास्थ्य ख़ासतौर पर मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा कहा था। आपदा की स्थिति में साफ पानी, पोषण, दवाओं और सुरक्षित वातावरण की कमी इन स्थितियों को और भी मुश्किल बना देती है। 

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी एक तरह की एंग्ज़ायटी या चिंता है, जो जलवायु में होने वाले बदलावों की वजह से होती है। इसका असर ख़ासतौर पर हाशिए  पर रह रहे समुदाय के व्यक्तियों पर और खासकर महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता है।

महिलाओं में होने वाली कुछ विशेष शारीरिक स्थितियां और समस्याएं जैसे कि पीरियड्स, प्रेगनेंसी, डिलीवरी और मेनोपॉज क्लाइमेट इमरजेंसी के वक़्त होने वाली चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देते हैं। प्राकृतिक आपदा के समय खाना-पानी, स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़ी सुविधाओं की कमी हो जाती है। ऐसे में न तो स्वच्छता से जुड़े प्रॉडक्ट आसानी से मिलते हैं न ही मेडिकल की सुविधा मुहैया हो पाती है। यही नहीं किसी भी तरह के ख़तरे की आशंका होने पर क़ानूनी मदद मिल पाना भी मुश्किल होता है, जिस वजह से सेहत के साथ-साथ सुरक्षा से जुड़े डर और आशंकाएं चिंता बढ़ाने का काम करती हैं। जलवायु संकट की परिस्थिति में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की चुनौतियां और संघर्ष कई गुना बढ़ जाते हैं।

क्या कहते हैं हालिया आंकड़ें

तस्वीर साभारः Natural History Museum

येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन (वाईपीसीसीसी)के सर्वेक्षण मुताबिक,  96 फीसद लोग वैश्विक तापमान में वृद्धि को एक समस्या के तौर पर देख रहे हैं और लगभग 90 फीसद लोग इसको लेकर चिंतित हैं। सर्वे में शामिल 89 फीसद मानते हैं कि वैश्विक तापमान के बढ़ने से आने वाली पीढ़ियों को नुकसान पहुंचेगा जबकि 88 फीसद का मानना है कि इससे पौधों और जानवरों के लिए ख़तरा है। साथ ही 81 फीसद लोगों ने ग्लोबल वॉर्मिंग से उन्हें और उनके परिवार को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई। इसके अलावा 66 फीसद लोगों की राय में भारत में लोगों को ग्लोबल वॉर्मिंग से पहले से ही नुकसान पहुंच रहा है। सर्वे में शामिल ज़्यादातर लोगों का मानना है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि की वजह से हीट वेव की आशंका है। इससे पौधे और जानवरों की बहुत सारी प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती हैं। सूखा और पानी की कमी होने की आशंका है, फसलों को होने वाली बीमारियां बढ़ सकती हैं। बाढ़ और चक्रवात जैसी घटनाएं बढ़ सकती हैं। इन सब की वजह से प्रदूषण, बेरोजगारी, मंहगाई और भोजन का संकट भी गंभीर हो सकता है। सर्वे में शामिल 86 फीसद लोग 2070 तक भारत के कार्बन प्रदूषण को लगभग जीरो तक करने की भारत सरकार के प्रतिबद्धता के साथ हैं।

96 फीसद लोग वैश्विक तापमान में वृद्धि को एक समस्या के तौर पर देख रहे हैं और लगभग 90 फीसद लोग इसको लेकर चिंतित हैं। सर्वे में शामिल 89 फीसद मानते हैं कि वैश्विक तापमान के बढ़ने से आने वाली पीढ़ियों को नुकसान पहुंचेगा जबकि 88 फीसद का मानना है कि इससे पौधों और जानवरों के लिए ख़तरा है।

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी में पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की भूमिका

तस्वीर साभार : The New Humanitarian

आज भी पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में परिवार के लिए खाना-पानी, स्वास्थ्य देखभाल, घर और पशुधन की ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं की ही मानी जाती है। ऐसे में जब किसी प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा या हीट वेव की वजह से रोज़मर्रा के कामों में दिक्कत होती है या संसाधनों की उपलब्धता में कमी आती है। ऐसे में एक महिला के सामने सबसे बड़ी चिंता यह हो जाती है कि वह घर-परिवार की देखभाल किस तरह से करे । कंडीशनिंग के चलते जब संसाधन सीमित होते हैं तो महिलाएं पहले दूसरों की ज़रूरतों का ख़याल करती हैं और ख़ुद को सबसे आख़िर में रखती हैं। ऐसा न कर पाने या ख़ुद को पहले रखने पर अक्सर उनमें अपराध बोध की भावना जन्म लेती है जो तनाव की वजह बनती है। जिससे नींद में कठिनाई, चिड़चिड़ापन, एंग्ज़ायटी और डिप्रेशन का जोख़िम कई गुना बढ़ जाता है। भारत में जेंडर के आधार पर घर-परिवार और खाना-पानी की ज़िम्मेदारी जैसे काम ज़्यादातर महिलाओं के ऊपर डाल दिए जाते हैं। इसमें पानी लाना, ईंधन जुटाना, बच्चों, बुजुर्गों बीमार और मेहमानों की देखभाल जैसे काम  एक्सट्रीम वेदर(असामान्य मौसम ) जैसी स्थितियां चुनौतियों को और बढ़ाती हैं। 

सूखा पड़ने पर पानी का इंतज़ाम करना, बाढ़ आने पर परिवार समेत घर के सामानों की सुरक्षा रोज़मर्रा की चिंता होती है। ऐसे में महिलाओं में शारीरिक थकान के साथ-साथ सुरक्षा की चिंता एंग्ज़ायटी को कई गुना बढ़ा देती है। कम आमदनी वाले परिवारों में महिलाओं को खेती या मजदूरी करनी पड़ती है। घर और बाहर दोनों जगह काम करने के बावजूद उनकी ख़ुद की आमदनी पर अधिकार कम ही मिल पाता है। ऐसे में किसी तरह की आपदा आने पर उन पर मानसिक दबाव भी बढ़ जाता है। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ और लू जैसी घटनाओं ने लोगों में, ख़ासकर संवेदनशील और हाशिए पर रह रहे समुदाय में चिंता, अवसाद और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी ) के मामले बढ़ा दिए हैं। देश में महिलाओं की स्थिति सामाजिक तौर पर अभी भी दोयम दर्ज़े की ही बनी हुई है, जिसमें संसाधनों और सुविधाओं तक उनकी पहुंच सबसे आख़िर में होती है। आपदा के बाद भीड़भाड़ वाली जगहों, पानी की लाइन और शौचालयों की कमी महिलाओं में ‘हाइपर विजिलेंस यानी हर समय चौकन्ने रहने की आदत को बढ़ा देती है जो कि क्लाइमेट एंग्ज़ायटी का ही एक रूप है।

जब किसी प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा या हीट वेव की वजह से रोज़मर्रा के कामों में दिक्कत होती है या संसाधनों की उपलब्धता में कमी आती है। ऐसे में एक महिला के सामने सबसे बड़ी चिंता यह हो जाती है कि वह घर-परिवार की देखभाल किस तरह से करे ।

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी पर परिवेश और सामाजिक-आर्थिक स्थिति का असर

तस्वीर साभार : News.UN

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी का सीधा संबंध सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। गांव में रहने वाले ऐसे परिवार जो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खेती पर निर्भर हैं उन पर जलवायु परिवर्तन से शारीरिक और मानसिक चुनौतियों के साथ-साथ आर्थिक बोझ भी बढ़ता है। ख़ासकर वे महिलाएं जो घर और खेत दोनों जगह काम कर रही होती हैं उनके लिए ऐसी स्थिति में अपने परिवार के लिए भोजन जुटाना, बच्चों की पढ़ाई और पशुधन की देखभाल बेहद मुश्किल हो जाता है। ज़्यादा बारिश, ओले या सूखा पड़ने की स्थिति में फसलों पर बुरा असर पड़ता है इससे एक अलग सा दबाव बना रहता है, जो चिंता की वज़ह बनता है। न सिर्फ़ गांव में रहने वाली बल्कि शहर के मलिन बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को हीट वेव, बारिश और ठंड का सामना करना पड़ता है।

इसमें उनको खाना-पानी और आवास के साथ ही सुरक्षा की चिंता भी करनी पड़ती है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ ही जाति, धर्म और जेंडर क्लाइमेट एंग्ज़ायटी में अहम भूमिका निभाता है। बहुत बार जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदाएं खेती को प्रभावित करती हैं। जिसकी वजह से आजीविका के लिए शहरों की ओर पलायन करना पड़ता है। ऐसे में घर और ज़मीन छूट जाने का डर और आशंका ख़ासतौर पर महिलाओं को भावनात्मक रूप से तनाव में ला देती है। महिलाओं की मानसिक सेहत को लेकर समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों की वजह से सही समय पर प्रोफेशनल मदद नहीं मिल पाती है। इसके अलावा काउंसलिंग सेवाएं महंगी और सीमित होने से कम ही महिलाएं इस तक पहुंच नहीं बना पातीं हैं।

क्लाइमेट एंग्ज़ायटी का सीधा संबंध सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। गांव में रहने वाले ऐसे परिवार जो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खेती पर निर्भर हैं उन पर जलवायु परिवर्तन से शारीरिक और मानसिक चुनौतियों के साथ-साथ आर्थिक बोझ भी बढ़ता है।

क्या हो सकता है समाधान

तस्वीर साभार : News.UN

महिलाओं के लिए क्लाइमेट एंग्ज़ायटी एक बड़ी चुनौती है। इसे कम करने के लिए बहुत काम करने की जरूरत है। सरकार को ऐसी सार्वजनिक सुविधाएं बनानी चाहिए जो जलवायु बदलाव सहने में सक्षम हों, जैसे अस्पताल, ठंडक के लिए कूलिंग सेंटर, पानी के कूलर,  शौचालय और सेनेटरी प्रोडक्ट। इसके अलावा, जेंडर बजटिंग भी एक अच्छी पहल साबित हो सकता है।  इसके तहत आशा कार्यकर्ताओं को बेसिक मेंटल हेल्थ काउंसलिंग ट्रेनिंग भी दी जा सकती है या फिर अलग से काउंसलिंग सेंटर्स भी बनाए जाने चाहिए । क्लाइमेट चेंज के हिसाब से जोख़िम वाले क्षेत्रों के लिए अलग से भोजन-पानी, सुरक्षा समेत रोज़मर्रा की चीजों के लिए इंतज़ाम किया जाना चाहिए। 

नीतियां बनाने में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर काम किया जाना ज़रूरी है। खराब मौसम की स्थिति में फसल बीमा और रोजगार सुनिश्चित करना भी क्लाइमेट एंग्ज़ायटी को कम करने में योगदान दे सकता है। राहत शिविरों में सुरक्षा और जवाब दे ही सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है। इन सबके साथ ही सबसे ज़रूरी है ग़ैरबराबरी पर आधारित पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे को ख़त्म कर समानता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज की स्थापना जिसमें सभी नागरिकों को स्वतंत्रता समानता और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार मिल सके। क्लाइमेट एंग्ज़ायटी सिर्फ़ महिलाओं का मसला नहीं बल्कि यह हमारे समाज के लिए सामाजिक न्याय और गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है।

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