मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, दुनिया का सबसे बड़ा रोज़गार गारंटी कार्यक्रम माना जाता है। मनरेगा को साल 2005 में लागू किया गया था, ताकि देश में रोजगार की समस्या कम हो सके। इस योजना के तहत, हर ग्रामीण परिवार को उनके गांव या घर से पांच किलोमीटर के दायरे में हर साल 100 दिनों के लिए वेतन सहित काम मिलना सुनिश्चित किया गया है, जिसमें पुरुषों और महिलाओं के लिए समान वेतन के साथ महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण है। मनरेगा में मजदूरों को पीने का पानी, छाया, बच्चों की देखभाल और स्वास्थ्य देखभाल जैसी सुरक्षित कार्यस्थल सुविधाओं मिलना भी शामिल है। मनरेगा में युवा अकुशल मजदूर शारीरिक मेहनत करते हैं। अक्सर भारतीय अर्थव्यवस्था में इन मजदूरों के योगदान को सही तरीके से नहीं माना जाता और उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन मनरेगा योजना में इनके काम को पहचान मिली है और उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर महत्व दिया गया है।
अगर इसे महिलाओं से जोड़कर देखा जाए, तो उनकी भागीदारी और भी कम है। वैसे तो संवैधानिक अधिकारों के तहत पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं, जिन्हें कई तरह के नियमों और कानून से संरक्षित किया जाता है। इसके बावजूद, महिलाएं, खासकर वे जो विशेष रूप से हाशिए पर हैं, अभी भी पुरुषों से बहुत पीछे हैं। इंडियन एक्स्प्रेस के मुताबिक, मनरेगा में साल 2023-24 के दौरान महिलाओं की भागीदारी पिछले 10 सालों में सबसे ज्यादा रही। दिसंबर 2024 तक कुल मनरेगा सदस्यों में 59.25 फीसदी महिलाएं थीं। पिछले 10 सालों में सबसे कम भागीदारी साल 2020-21 में यह 53.19 फीसदी थी। वहीं साल 2022-23 में कुल 56.19 फीसदी महिलाओं की हिस्सेदारी थी, जिसमें 19.75 फीसदी दलित और 17.47 फीसदी आदिवासी महिलाएं शामिल थी। ग्रामीण दलित महिलाओं का मनरेगा जैसी रोजगार योजनाओं में बढ़ती निर्भरता उनके आर्थिक आत्मनिर्भर होने को दिखाता है। लेकिन यह समाज में मौजूद लिंग, जाति और वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव और असमानता को भी सामने लाता है।
इंडियन एक्स्प्रेस के मुताबिक, मनरेगा में साल 2023-24 के दौरान महिलाओं की भागीदारी पिछले 10 सालों में सबसे ज्यादा रही। दिसंबर 2024 तक कुल मनरेगा सदस्यों में 59.25 फीसदी महिलाएं थीं।
बुंदेलखंड की महिलाओं के लिए मनरेगा है सहारा

बुंदेलखंड भौगौलिक तौर पर उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश दोनों राज्यों के अंतर्गत फ़ैला हुआ है। यहां पानी की समस्या के साथ आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन आज भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। रोजगार की कमी के चलते बुंदेलखंड में दलित महिलाएं मनरेगा के तहत मजदूरी करती हैं। अभी बहुत सी महिला मजदूर जंगल में पौधारोपण का काम कर रही हैं । ये महिलाएं बताती हैं कि कैसे मनरेगा में मजदूरी उनकी आर्थिक मजबूती और परिवार के भरण-पोषण का एक जरूरी और महत्वपूर्ण साधन है। बुंदेलखंड की रहने वाली 35 वर्षीय सुनीता अहिरवार जोकि शादी के बाद से मनरेगा मजदूर के तौर पर काम कर रही हैं। वह बताती हैं, “ज़मीन हमारे पास पुरखों से ही नहीं है। इसके चलते मैं और मेरे पति दोनों ही मनरेगा मजदूर और खेतिहर मजदूर के तौर पर साल भर काम करते हैं। ज़मीन ना होने के कारण सीजन के हिसाब से काम करना पड़ता है। अभी जैसे मनरेगा में पेड़ लगाने का काम कर रही हूं।”
आगे वह कहती हैं, “फिर कुछ दिन बाद खेतों में बांध डालने का काम शुरू होगा उसमें काम करूंगी। जब मनरेगा में काम नहीं होता तो दूसरों के खेतों में कटाई का काम करेंगे। इस तरीके से मनरेगा और दूसरों के खेतों में फसल कटाई आदि का काम करके घर चल जाता है। खुद की ज़मीन हो तो शयाद इतनी दिक्कत ना होती।” वहीं 39 वर्षीय की माया अहिरवार का कहना है, “ज़मीन तो है लेकिन इतनी कम की घर नहीं चलाया जा सकता है। कहने को तीन बीघा है लेकिन उसमें दो और देवरों (पति के भाई)का हिस्सा है, जिसके चलते मनरेगा हम जैसी औरतों के लिए अपने गांव में रोजगार का एकमात्र साधन है। खुद की ज़मीन से मुश्किल में खाने भर का पैदा होता है और कभी- कभी वो भी नहीं होता है। पति नहीं है तो मुझे अकेले ही चार बच्चों की पढ़ाई, देखभाल और शादी के लिए करना पड़ रहा है।”
ज़मीन हमारे पास पुरखों से ही नहीं है। इसके चलते मैं और मेरे पति दोनों ही मनरेगा मजदूर और खेतिहर मजदूर के तौर पर साल भर काम करते हैं। ज़मीन ना होने के कारण सीजन के हिसाब से काम करना पड़ता है। अभी जैसे मनरेगा में पेड़ लगाने का कम कर रही हूं।
मनरेगा में कम मजदूरी और वेतन से संबंधित अन्य समस्याएं

देश में मनरेगा के तहत मजदूरों को मिलने वाला मेहनताना यानी मजदूरी और वेतन राज्यों के हिसाब से अलग-अलग हैं। नरेगा जॉब कार्ड लिस्ट के मुताबिक, बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन के हिसाब से 237 रूपए मेहनताना मिलता है। वहीं, मध्यप्रदेश में यह मेहनताना 243 रूपए है। इंडियन एक्सप्रेस की मार्च 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2025-26 के लिए मनरेगा मजदूरी में बढ़ोतरी की है। इसके तहत मजदूरी 7 रुपये से 26 रुपये प्रतिदिन तक बढ़ाई गई है, जो अलग-अलग राज्यों में अलग है। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में मजदूरी 237 रुपये से बढ़ाकर 252 रुपये की गई है, जबकि मध्य प्रदेश में इसे 243 रुपये से बढ़ाकर 261 रुपये किया गया है। इस बार सबसे कम बढ़ोतरी उत्तर प्रदेश में हुई है, जहां यह केवल 3.04 फीसदी है।
बढ़ती मंहगाई के बावजूद कम वेतन और मजदूरी को लेकर बुंदेलखंड की 30 वर्षीय सुमन धानुक कहती हैं, “सिर्फ दो सौ रूपए मजदूरी से आज के जमाने में कुछ नहीं होता है, तमाम खर्च है। खेत तो मेरे पास है नहीं बस यह मनरेगा और पांच पसेरी कोटा के अनाज से घर चल रहा है। उसी से तीन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और खान-पान बस चल जाता है।” वहीं बुंदेलखंड की 55 वर्षीय मीरा अहिरवार कहती हैं, “8-8 घंटे दिन भर कम करने के बाद बस दो सौ रुपए मिल पाते हैं। कभी-कभी तो यह रूपए भी समय पर खाते में नहीं आते है। इसके अलावा कुछ और रोजगार नहीं है तो कम मजदूरी और समस्या के होते भी करना पड़ता है।” एक तरफ सरकारी आंकड़ें मनरेगा की सफलता को बताते हैं तो दूसरी ओर ऐसे पहलू भी हैं, जो इस में मौजूद भ्रष्टाचार की समस्या को उजागर करते हैं। नैशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, मनरेगा में ग्रामीण गरीबों की हिस्सेदारी 30 फीसदी है यानी अभी भी 70 फीसदी गरीब मनरेगा से वंचित हैं। मनरेगा में मजदूरों के वेतन में देरी के साथ फर्जी हाजिरी रजिस्टर बनाने जैसे काम भी होते हैं।
सिर्फ दो सौ रूपए मजदूरी से आज के जमाने में कुछ नहीं होता है ,तमाम खर्च है। खेत तो मेरे पास है नहीं बस यह मनरेगा और पांच पसेरी कोटा के अनाज से घर चल रहा है । उसी से तीन बच्चों की पढ़ाई- लिखाई और खान- पान बस चल जाता है।
जागरूकता से दूर बुंदेलखंड की महिलाएं
भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के तहत महिलाओं को सशक्त करने के उद्देश्य से दीनदयाल अंत्योदय योजना यानी राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जैसी कई अन्य योजनओं को भी लागू किया हैं। लेकिन कम शिक्षा और सामाजिक- आर्थिक रूप से हाशिए पर होने की वजह से बुंदेलखंड की दलित महिलाओं में बिल्कुल भी इनको लेकर जागरूकता नहीं है। सरकार की हर महीने मुफ़्त राशन योजना को लेकर 50 वर्षीय सुखबाई अहिरवार कहती हैं , “प्रधान हमें कुछ भी नहीं बताता है हम लोग तो पढे- लिखे नहीं हैं । तो राशन कार्ड बनाने में बहुत समय लग गया अब अनाज मिलता है, तो उसमें दो किलो कम मिलता है। यह पता नहीं कि ऐसा क्यों करते हैं।”
कार्यस्थल पर महिला मजदूरों की चुनौतियां

कार्यस्थल पर महिलाओं को लेकर हर जगह आज भी असमानता, असुरक्षा और लैंगिक भेदभाव, जैसी समस्याएं मौजूद हैं। यहां मनरेगा के कठोर शारीरिक श्रम में इन महिला मजदूरों की समस्याएं कुछ अलग हैं। हालांकि मनरेगा में स्वास्थ्य देखभाल का प्रावधान है, लेकिन 40 वर्षीय मीरा धानुक बताती हैं, “अभी जंगल में पौधारोपण का काम करते-करते पैर में खुती (बड़ा कांटा) घुस गई थी उसका इलाज करवा रही हूं । इस सबका पैसा नहीं मिलता है, काम पर ना आओ तो पैसा कट जाएगा बोलते हैं । कुछ दिन पहले एक महिला को यही जंगल में काम करते हुए, जंगली मधुमक्खियों ने काट लिया था वो उसका इलाज करवा रही हैं यही सब समस्याएं हैं।”महिलाओं की पीरियड्स की समस्या को लेकर 45 वर्षीय राजन देवी कहती हैं, “ जैसे अभी हम बरसात में पौधारोपण का काम कर रहे हैं । इस समय जब पीरियड होता तो सब कपड़ा भीग जाता है। जब वहां का कपड़ा भीगता है तो बाद में जलन होती है लेकिन क्या करें काम तो करना पड़ता है।”
तमाम सामाजिक और शारीरिक चुनौतियों से जूझते हुए बुंदेलखंड की निडर कथित दलित महिलाएं खेतों और मज़दूरी के काम करके न सिर्फ़ अपने परिवार की आर्थिक मदद कर रही हैं, बल्कि यह साबित भी कर रही हैं कि वे शारीरिक और आर्थिक रूप से मज़बूत हैं। रोज़गार की इस जद्दोजहद के साथ वे जेंडर, जाति और वर्ग के आधार पर बने भेदभावपूर्ण सामाजिक ढांचे को भी चुनौती देती हैं और सवाल उठाती हैं कि इतनी असमानता क्यों बनी हुई है। बुंदेलखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में ऐसी हज़ारों भूमिहीन दलित महिलाएं हैं जो हर मुश्किल का सामना करते हुए अपने परिवार के लिए मज़बूत आधारस्तंभ बनी हुई हैं। उनकी कहानी यह दिखाती है कि सशक्त महिलाओं की मौजूदगी ही ग्रामीण समाज की असमानता और भेदभाव को चुनौती देने का सबसे बड़ा माध्यम है।


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