इंटरसेक्शनलजेंडर भारतीय महिलाओं के लिए सुरक्षित अबॉर्शन अब भी चुनौतीपूर्ण क्यों है?

भारतीय महिलाओं के लिए सुरक्षित अबॉर्शन अब भी चुनौतीपूर्ण क्यों है?

अबॉर्शन के मामलों में भारतीय अदालतें अक्सर अनावश्यक देरी करती हैं। कुछ मामलों में यह देरी तीन महीने तक हो जाती है, जिससे समय पर अबॉर्शन कराने और सुरक्षित देखभाल पाने में मुश्किल होती है।

भारत में अबॉर्शन सिर्फ स्वास्थ्य से जुड़ी बात नहीं है, यह महिलाओं की आज़ादी और मानवाधिकार का भी हिस्सा है। यहां इसकी सुविधा तो है, लेकिन उसे पाने में कानूनी और संस्थागत रुकावटों का सामना करना पड़ता है। ये दिक्कतें महिलाओं को समय पर और सुरक्षित प्रजनन स्वास्थ्य सेवा से वंचित कर देती हैं। इंडियन लॉ सोसाइटी, पुणे के स्वास्थ्य समानता, कानून और नीति केंद्र ने अपनी रिपोर्ट, “द बेंच एंड द बॉडी: एन एनालिसिस ऑफ अबॉर्शन ज्यूरिसप्रूडेंस इन इंडिया साल 2019-2024” प्रकाशित की, जिसमें गर्भ का चिकित्सीय समापन (एमटीपी) अधिनियम  1971 और इसके 2021 के संशोधनों के तहत उच्च न्यायालयों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में तय किए गए 1126 मामलों की जांच की गई। 

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इन पांच सालों में भारतीय अदालतों ने अबॉर्शन संबंधी लगभग 10 में से 1 याचिका को खारिज कर दिया। इस अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में सुरक्षित अबॉर्शन महिलाओं के बुनियादी अधिकार के रूप में माना गया है। यह सिर्फ़ स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि बराबरी, अपने शरीर पर हक़ और न्याय का सवाल भी माना गया है। लेकिन क्या यह अधिकार आसानी से भारतीय महिलाओं को मिल पा रहे हैं? यह सोचने वाली बात है क्योंकि सामाजिक भेदभाव, जानकारी की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच में बाधाएं और कभी-कभी न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी महिलाओं के लिए इसे हासिल करना मुश्किल बना देती हैं। जिस कारण कई महिलाएं असुरक्षित तरीके अपनाने को मजबूर हो जाती हैं, जिससे उनकी जान और स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा होता है।

द बेंच एंड द बॉडी: एन एनालिसिस ऑफ अबॉर्शन ज्यूरिसप्रूडेंस इन इंडिया साल 2019-2024” प्रकाशित की, जिसमें गर्भ का चिकित्सीय समापन (एमटीपी) अधिनियम  1971 और इसके 2021 के संशोधनों के तहत उच्च न्यायालयों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में तय किए गए 1126 मामलों की जांच की गई। 

अबॉर्शन मामलों में अदालतों की देरी और नाबालिगों की चुनौतियां  

तस्वीर साभार : India Today

रिपोर्ट के मुताबिक, शोधकर्ताओं का कहना है कि अबॉर्शन के मामलों में भारतीय अदालतें अक्सर अनावश्यक देरी करती हैं। कुछ मामलों में यह देरी तीन महीने तक हो जाती है, जिससे समय पर अबॉर्शन कराने और सुरक्षित देखभाल पाने में मुश्किल होती है। इसमें ऐसे मामले भी बताए गए हैं जहां अदालत ने पतियों को निर्णय में शामिल किया, जबकि कानून के अनुसार केवल गर्भवती महिला की सहमति ही जरूरी है। अदालत में आने वाली अबॉर्शन की 80 फीसदी याचिकाओं को मंज़ूरी मिल गई, लेकिन इनमें से कई महिलाएं पहले से ही कानूनी तौर पर अबॉर्शन कराने की हकदार थीं और उन्हें न्यायिक हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं थी। खास तौर पर, नाबालिग और यौन हिंसा के शिकार लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है, जिन्हें डॉक्टरों का डर और कानूनी नियमों की अस्पष्टता के कारण अदालतों में जाना पड़ता है। उदाहरण के लिए, साल  2023 में एक 16 साल की लड़की का अबॉर्शन सभी सरकारी और निजी अस्पतालों ने पुलिस को बताए बिना करने से मना कर दिया। जबकि लड़की और उसकी माँ ने कहा कि यह गर्भावस्था उनके आपसी सहमति से हुई थी। 

यह मामला दिखाता है कि कभी-कभी अस्पताल और डॉक्टर कड़े नियमों और सीमित सेवाओं का हवाला देकर ऐसे फैसले लेते हैं, जिससे नाबालिग लड़कियों के लिए असुरक्षित अबॉर्शन का खतरा बढ़ जाता है। इस तरह की देरी से गर्भधारण चिकित्सीय अबॉर्शन की सीमा से आगे बढ़ सकता है , जिसके परिणामस्वरूप नाबालिगों को गर्भधारण की अवधि पूरी करनी पड़ सकती है या अदालती आदेश लेने पड़ सकते हैं। भारत में नाबालिगों से जुड़े सभी यौन कृत्यों को अपराध माना जाता है, चाहे वे सहमति से ही क्यों न हों। इसे यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो) के तहत तय किया गया है। इस कानून के अनुसार, सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता (डॉक्टर, क्लिनिक आदि) को ऐसे मामलों में पुलिस को तुरंत सूचित करना पड़ता है। गर्भधारण से पहले लिंग चयन रोकने के लिए लाया गया पीसीपीएनडीटी अधिनियम प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के गलत इस्तेमाल पर रोक लगाता है। इसके उल्लंघन पर डॉक्टर को जुर्माना, जेल या लाइसेंस रद्द होने का खतरा हो सकता है।इस वजह से कई डॉक्टरों में अबॉर्शन कराने या मरीजों को सहायता देने में डर पैदा होता है, जिससे महिलाओं के लिए सुरक्षित अबॉर्शन तक पहुंच मुश्किल हो जाती है।

अबॉर्शन के मामलों में भारतीय अदालतें अक्सर अनावश्यक देरी करती हैं। कुछ मामलों में यह देरी तीन महीने तक हो जाती है, जिससे समय पर अबॉर्शन कराने और सुरक्षित देखभाल पाने में मुश्किल होती है।

गर्भवती महिलाओं के अधिकारों की अनदेखी और लिंग आधारित दृष्टिकोण 

तस्वीर साभार : गांव कनेक्शन

अध्ययन में पाया गया कि अदालतों ने अबॉर्शन की 11.28फीसदी याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें से लगभग 82 फीसदी मेडिकल बोर्ड की राय से मेल खाती थीं। रिपोर्ट के लेखक कहते हैं कि न्यायाधीश अक्सर  भ्रूण या अजन्मे बच्चे के अधिकारों के विचार का हवाला देते थे, जो कानून में नहीं हैं, और इसे खारिज करने का आधार बनाते थे। जांच किए गए मामलों में से 52 फीसदी नाबालिग बलात्कार सर्वाइवर्स के थे, 32 फीसदी में भ्रूण में गंभीर समस्या थी, और लगभग 9 फीसदी वयस्क बलात्कार सर्वाइवर के थे। अदालतों ने 24-सप्ताह की कानूनी सीमा से आगे 180 अबॉर्शन की मंजूरी दी, लेकिन एक जैसे मामलों में अलग-अलग अदालतों के फैसले भी अलग-अलग थे।

अध्ययन में पाया गया कि एक भी फैसले में पुरुष साथी की ज़िम्मेदारी या पुरुषों का गर्भनिरोधक के इस्तेमाल पर टिप्पणी नहीं की गई। हालांकि, कानून में यह स्पष्ट होने के बावजूद कि अबॉर्शन के लिए केवल गर्भवती महिला की सहमति आवश्यक है, अदालतों ने कम से कम दो मामलों में पतियों को पक्षकार बनाया। कई फैसलों में, अजन्मे बच्चे या समय से पहले जन्मे बच्चे जैसे वाक्यांशों और गर्भाशय सप्ताह का है और अजन्मे बच्चे का भ्रूण जैसे जैविक रूप से गलत वाक्यांशों का इस्तेमाल किया गया है, जो महिला जीव विज्ञान और शरीर क्रिया विज्ञान के बारे में अदालतों की सीमित समझ को दिखाता है।

अदालतों ने अबॉर्शन की 11.28फीसदी याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें से लगभग 82 फीसदी मेडिकल बोर्ड की राय से मेल खाती थीं। रिपोर्ट के लेखक कहते हैं कि न्यायाधीश अक्सर  भ्रूण या अजन्मे बच्चे के अधिकारों के विचार का हवाला देते थे, जो कानून में नहीं हैं

महिलाओं की जरूरतें बनाम कानूनी पाबंदियां 

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की रिपोर्ट के मुताबिक,  भारत में किए गए अध्ययन में पाया गया कि लगभग 67 फीसदी अबॉर्शन असुरक्षित थे, हालांकि यह प्रतिशत राज्यों के अनुसार काफी अलग-अलग था । जो 45.1 फीसदी से 78.3 फीसदी के बीच था। 15-19 साल की युवा महिलाओं में अबॉर्शन से संबंधित समस्याओं के कारण मृत्यु का खतरा सबसे अधिक था, लगभग 8 प्रतिशत मातृ मृत्यु दर असुरक्षित गर्भपात के कारण होती है। स्वास्थ्य देखभाल की जरूरत होने के बावजूद, अबॉर्शन कराना भारत में एक दंडनीय अपराध है और इसका लाभ केवल एमटीपी अधिनियम के तहत उठाया जा सकता है, जिसे आपराधिक कानून के अपवाद के रूप में पेश किया गया था। लेकिन इसके तहत भी अबॉर्शन एक सम्पूर्ण अधिकार नहीं है।इसे केवल सशर्त रूप से अनुमति दी जाती है। स्वास्थ्य उपाय के रूप में अबॉर्शन की अनुमति तब दी जाती है जब गर्भावस्था जारी रखने से महिला के जीवन को खतरा हो ।

 तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

गर्भावस्था के 20 से 24 हफ्ते के बीच, अबॉर्शन तब किया जा सकता है। जब दो डॉक्टर इसकी सलाह दें और किसी विशेष स्थिति का होना जरूरी हो जैसे, महिला का शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य खतरे में होना या गर्भवती महिला नाबालिग हो हालांकि, 24 सप्ताह से पहले अबॉर्शन केवल दो मामलों में ही हो सकता है।  महिला के जीवन को बचाने के लिए या भ्रूण में गंभीर परिस्थिति के मामले में। इस तरह की रूपरेखा महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में नहीं रखती। नतीजतन, महिलाएं अक्सर अदालत का सहारा लेने के लिए मजबूर होती हैं। जब महिलाओं को अबॉर्शन से इनकार किया जाता है तो उनकी अपनी मर्ज़ी से फैसला लेने का हक़ छिन जाता है। असल में यह महिला का अधिकार है कि वह तय करे गर्भावस्था चाही हुई है या नहीं। लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि अदालतें इसे ऐसे नहीं मानतीं। वे महिला की इच्छा के बजाय मेडिकल बोर्ड की राय और कानूनी आकलन को ज़्यादा अहमियत देती हैं।

मेडिकल बोर्ड भी अक्सर महिला की स्थिति पर ध्यान देने के बजाय भ्रूण के स्वास्थ्य पर केंद्रित रहते हैं।इस वजह से उनकी रिपोर्टों में खतरों का सही आकलन नहीं हो पाता और महिला की परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। अदालत और मेडिकल बोर्ड गर्भावस्था को सिर्फ़ एक जैविक प्रक्रिया मानते हैं, जबकि यह महिला के पूरे व्यक्तित्व और जीवन से जुड़ा विषय है। किसी महिला को जबरन बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर करना उसके जीवन, भावनाओं और भविष्य पर गहरा असर डालता है। यह आघात बच्चे के जन्म के बाद भी ख़त्म नहीं होता, बल्कि उसके व्यक्तित्व पर आजीवन प्रभाव छोड़ सकता है। महिलाओं को अपने शरीर और बच्चा पैदा करने या न करने के अधिकार से वंचित करना, खासकर तब जब वे बच्चे की देखभाल नहीं कर सकतीं, यह दिखाता है कि समाज उन्हें सिर्फ़ जन्म देने वाली इकाई मानता है। यह सोच महिलाओं के प्रति छिपे भेदभाव को उजागर करती है। बच्चे को जन्म देने से महिला के शरीर पर असर पड़ सकता है, लेकिन अदालतें ज़्यादातर भ्रूण की सुरक्षा पर ध्यान देती हैं, महिलाओं की इच्छा और स्वास्थ्य पर कम। इस तरह महिलाओं को उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मजबूर किया जाता है।

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