ग्राउंड ज़ीरो से क्यों महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल एक संघर्ष है?

क्यों महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल एक संघर्ष है?

दिल्ली जैसे शहर में शौचालय कागज़ों पर मौजूद हैं, पर ज़मीनी स्तर पर वे अक्सर बंद या असुरक्षित होते हैं। यह स्थिति दिखाती है कि सार्वजनिक ढांचे का डिज़ाइन अब भी महिलाओं की ज़रूरतों और सुरक्षा को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है।

पानी और स्वच्छता हर इंसान का बुनियादी अधिकार है, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने साल 2010 में मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी थी। लेकिन भारत में अब भी करोड़ों लोग इस अधिकार से वंचित हैं। यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में 55.5 करोड़ लोग अब भी असुरक्षित सुविधाओं पर निर्भर हैं और 35.4 करोड़ लोग अब भी खुले में शौच करने को मजबूर हैं। भारत की बात की जाए तो, बिहार में लगभग 40 फीसदी  घरों में शौचालय का उपयोग नहीं होता है। इसके बाद झारखंड और ओडिशा का स्थान आता है, जहां लगभग हर तीन में से एक घर शौचालय का उपयोग नहीं करता। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान में भी 5 में से 1 से ज़्यादा घरों में शौचालय का उपयोग नहीं होता है।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, दुनिया भर में करीब 2 अरब 20 करोड़ लोगों के पास अब भी घर पर सुरक्षित पीने के पानी का अभाव है। रिपोर्ट में पाया गया कि घरों के लिए पानी लाने की सबसे अधिक ज़िम्मेदारी, महिलाओं पर होती है और इस काम में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या लगभग दोगुनी है। महिलाओं और लड़कियों को आमतौर पर पानी लाने के लिए लम्बी यात्रा करनी पड़ती है, जिससे उनकी शिक्षा, काम और ख़ाली समय का नुक़सान होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब देशभर में यह स्थिति बनी हुई है, तो राजधानी दिल्ली जैसी जगह पर हालात कैसे हैं? 

यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में 55.5 करोड़ लोग अब भी असुरक्षित सुविधाओं पर निर्भर हैं और 35.4 करोड़ लोग अब भी खुले में शौच करने को मजबूर हैं। भारत की बात की जाए तो, बिहार में लगभग 40 फीसदी  घरों में शौचालय का उपयोग नहीं होता है ।

महिलाओं के लिए शौचालय सुविधा सिर्फ कागज़ों में

तस्वीर साभार : नाज़नीन

दिल्ली जैसे शहर में शौचालय कागज़ों पर मौजूद हैं, पर ज़मीनी स्तर पर वे अक्सर बंद या असुरक्षित होते हैं। यह स्थिति दिखाती है कि सार्वजनिक ढांचे का डिज़ाइन अब भी महिलाओं की ज़रूरतों और सुरक्षा को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है। दिल्ली में मेट्रो के आने से लोगों को कई सुविधाएं मिली हैं, अब उन्हें बसों का लंबा इंतज़ार नहीं करना पड़ता और काम, कॉलेज या स्कूल जाने के लिए मेट्रो एक सुविधाजनक विकल्प बन चुकी है। लेकिन आज भी शहर का एक बड़ा हिस्सा बसों पर निर्भर है। खासकर कई मध्यमवर्गीय महिलाएं आर्थिक मजबूरियों के कारण घंटों बसों का इंतज़ार करती हैं। इसी इंतज़ार के दौरान उनके सामने एक और चुनौती खड़ी होती है ‘सार्वजनिक शौचालय’।

दिल्ली की बस रूटों पर महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय ढूंढना उतना ही कठिन है, जितना किसी खुले शौचालय को साफ़-सुथरा पाना। ये दोनों ही सुविधाएं अक्सर महिलाओं की पहुंच और उम्मीद से बाहर रह जाती हैं। एक्शनएड इंडिया के साल  2018 की सर्वे में यह पाया गया था कि दिल्ली के लगभग 35 फ़ीसदी सार्वजनिक शौचालय में महिलाओं के लिए अलग सेक्शन नहीं था। ऐसे शौचालय जिनमें सेक्शन था उनमें 66 फ़ीसदी में फ्लश काम नहीं करता था, 53 फ़ीसदी  में पानी नहीं था, 51 फ़ीसदी  में हाथ धोने की सुविधा बिल्कुल भी नहीं थी, और 28 फ़ीसदी  में दरवाज़े तक नहीं थे। यह आंकड़ा अब आठ साल पुराना है, लेकिन आज भी महिलाओं के सामने लगभग वही जैसी कठिनाइयां बनी हुई हैं।

मेरा मेट्रो से रोज़ का आना-जाना है, पर इतने सालों के सफर में मैंने बहुत कम ही साफ़ शौचालय देखे हैं मेट्रो में। कई बार तो उनमें पानी ही नहीं होता, और कभी शौचालय का गेट भी सही से बंद नहीं होता। पैसे चार्ज लेने के बावजूद भी सही सुविधा नहीं मिलती।

पीरियड्स के दौरान शौचालय की कमी और समस्याएं

तस्वीर साभार : नाज़नीन

पीरियड्स के दौरान महिलाओं को और भी मुश्किल होती है, जब एक दिन में महिलाओं को कम से कम 2-3 बार पैड बदलना ही पड़ता है। अगर वह ऑफिस में हैं, स्कूल या कॉलेज में हैं तो कोई समस्या नहीं होती, लेकिन यात्रा के दौरान एक साफ शौचालय ढूंढना उनके लिए एक और चुनौती है। दिल्ली के हकरेश नगर, ओखला की रहने वाली नेहा बताती हैं, “मैंने कई बार मेट्रो के ऐड में देखा है कि पैड मशीन लगी है, लेकिन जब भी ज़रूरत हुई, मशीन हमेशा ख़राब मिली।” वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, कई देशों में 75 फ़ीसदी से अधिक महिलाएं साबुन और पानी जैसी बुनियादी स्वच्छता सामग्री से वंचित हैं।

इसका मतलब यह है कि पीरियड्स के दौरान न तो उनके पास सुरक्षित तरीके से पैड बदलने की जगह होती है, और न ही हाथ धोने जैसी सुविधा। ऐसे में संक्रमण और प्रजनन संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। सार्वजनिक जगहों पर शौचालय  और साफ पानी न होने के कारण महिलाएं कई बार समय पर पैड नहीं बदल पातीं, जिससे संक्रमण का ख़तरा बढ़ जाता है | इसके साथ ही, स्कूल या कार्यस्थल पर लड़कियों और महिलाओं को अक्सर झिझक और असुविधा झेलनी पड़ती है, जिसकी वजह से उनकी पढ़ाई और नौकरी दोनों प्रभावित होती हैं | 

एक बार तो मैंने वहां  एक आदमी को अंदर सोते हुए देखा, जिससे माहौल बेहद असुरक्षित लगा। जामा मस्जिद स्टेशन पर 10 रुपये शुल्क लिया गया, लेकिन शौचालय मुश्किल से साफ़ था और वहां हाथ धोने के लिए न तो लिक्विड था और न ही साबुन था ।

महिलाओं की सुरक्षा के लिए जरूरी है सुरक्षित शौचालय

दिल्ली मेट्रो में दिन भर लाखों महिलाएं सफ़र करती हैं, पर शौचालय हर मेट्रो स्टेशन पर मौजूद नहीं होता। जहां शौचालय हैं, उनमें सफाई की कमी, पानी न होना या दरवाज़े ख़राब होने जैसी समस्याएं आम मिलती हैं। दिल्ली की रहने वाली पूजा बताती हैं, “मेरा मेट्रो से रोज़ का आना-जाना है, पर इतने सालों के सफर में मैंने बहुत कम ही साफ़ शौचालय देखे हैं मेट्रो में। कई बार तो उनमें पानी ही नहीं होता, और कभी शौचालय का गेट भी सही से बंद नहीं होता। पैसे चार्ज लेने के बावजूद भी सही सुविधा नहीं मिलती।” इसी बात पर नेहा बताती हैं, “दिल्ली में मेट्रो स्टेशनों के शौचालय ही सबसे सुविधाजनक विकल्प लगते हैं, लेकिन ये भी हर जगह सही हालत में नहीं होते। उदाहरण के लिए, हौज़ ख़ास स्टेशन पर शौचालय साफ़ रहते हैं, जबकि विश्वविद्यालय स्टेशन पर शौचालय गंदे थे और वहां धुएं जैसी बदबू थी। एक बार तो मैंने वहां एक आदमी को अंदर सोते हुए देखा, जिससे माहौल बेहद असुरक्षित लगा। जामा मस्जिद स्टेशन पर 10 रुपये शुल्क लिया गया, लेकिन शौचालय मुश्किल से साफ़ था और वहां हाथ धोने के लिए न तो लिक्विड था और न ही साबुन।”

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

दिल्ली शहर में कभी-कभी वॉशरूम जैसी बुनियादी चीज़ भी डर और असहजता से भरी लगती है, खासकर तब जब आप अकेली हों। जामिया नगर की रहने वाली रुम्माना बताती हैं, “एक बार मुझे मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन के बाहर बने सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ा क्योंकि मैं ऑफिस के लिए जल्दी में थी और बारिश हो रही थी। वहां एक नशे में सफाई कर्मी बैठा था, जो मुझसे अजीब-अजीब निजी सवाल पूछ रहा था,  जैसे मैं कहां रहती हूं और क्या आसपास कोई होटल है। उसने कहा कि उसे होटल और एक लड़की चाहिए। मैं बहुत असहज महसूस कर रही थी, लेकिन सिर्फ इसलिए उस शौचालय का इस्तेमाल किया क्योंकि मुझे बहुत ज़रूरत थी। अगर और कोई विकल्प होता, तो मैं वहां कभी नहीं जाती।” हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में सार्वजनिक शौचालय की हालत इतनी असुरक्षित है कि महिलाएं अक्सर डर या असहजता के कारण इनका इस्तेमाल नहीं कर पातीं ,और कई बार मजबूरी में उन्हें खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।

एक बार मुझे मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन के बाहर बने सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करना पड़ा क्योंकि मैं ऑफिस के लिए जल्दी में थी और बारिश हो रही थी। वहां एक नशे में सफाई कर्मी बैठा था, जो मुझसे अजीब-अजीब निजी सवाल पूछ रहा था,  जैसे मैं कहां रहती हूं और क्या आसपास कोई होटल है। उसने कहा कि उसे होटल और एक लड़की चाहिए। मैं बहुत असहज महसूस कर रही थी ।

काम बराबर लेकिन सुविधाएं अधूरी

तस्वीर साभार : नाज़नीन

महिलाएं पुरुषों की तरह बराबर मेहनत करती हैं, लेकिन कई बार उनके लिए ज़रूरी  सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं होती हैं। कई ऐसे काम और पेशे हैं, जैसे महिला मज़दूर, पत्रकार, पुलिसकर्मी, नर्स या सामाजिक कार्यकर्ता, और ख़ासकर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली हाशिये पर रह रही महिलाएं  जिन्हें पूरे समय फील्ड पर रहकर काम करना पड़ता है। वहां पर तो सार्वजनिक शौचालय एक बहुत जरुरी सुविधा बन जाती है। फरीदाबाद की रहने वाली अंकिता मिश्रा बताती हैं, “मैं और मेरी टीम चुनाव कवरेज के लिए फील्ड पर तैनात थे। हमें 15 दिन लगातार मतदान स्थलों और आस-पास के इलाकों में रिपोर्टिंग करनी थी।”

वह आगे बताती हैं, “यह समय हमारे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि वहां कोई शौचालय की सुविधा नहीं थी। सुबह से शाम तक फील्ड में रहने के दौरान फ्रेश होने का कोई तरीका नहीं था। जबकि पुरुष टीम मेंबर कहीं भी जाकर फ्रेश हो जाते थे, हमारे लिए यह करना मुश्किल था। यह 15 दिन हमने बहुत कठिनाई में गुज़ारे।” हिंदुस्तान टाइम्स  के मुताबिक,  230 करोड़ रुपये सिर्फ महिलाओं के लिए शौचालय बनाने के लिए तय किए गए हैं। इसके अलावा, पानी और सफाई व्यवस्था के लिए 9,000 करोड़ रुपये अलग से रखे गए हैं। इतनी बड़ी रकम होने के बावजूद दिल्ली में महिलाओं के लिए साफ और सुरक्षित शौचालय अब भी बड़ी चुनौती बने हुए हैं।

हमें 15 दिन लगातार मतदान स्थलों और आस-पास के इलाकों में रिपोर्टिंग करनी थी।यह समय हमारे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि वहां कोई शौचालय की सुविधा नहीं थी। सुबह से शाम तक फील्ड में रहने के दौरान फ्रेश होने का कोई तरीका नहीं था। जबकि पुरुष टीम मेंबर कहीं भी जाकर फ्रेश हो जाते थे।

स्वच्छ शौचालय महिलाओं का मौलिक अधिकार

जब भी शहरीकरण की बात होती है, तो सुविधाओं की लंबी सूची बनाई जाती है, सड़क, स्कूल, कॉलेज, पार्क, अस्पताल। लेकिन सार्वजनिक शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरत अक्सर छूट जाती है। क्या योजना बनाने की टेबल पर महिलाएं शामिल होती हैं? जब तक निर्णय लेने में महिलाएं नहीं होंगी, उनकी ज़रूरतें भी योजना में दिखाई नहीं देंगी। सार्वजनिक शौचालयों की कमी सभी नागरिकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या है, लेकिन यह महिलाओं के लिए विशेष रूप से ख़तरनाक है। अक्सर, महिलाओं के पास अस्वच्छ सुविधाओं का उपयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, जिससे संक्रमण का खतरा रहता है, या उन्हें तब तक पेशाब रोककर रखना पड़ता है जब तक कि वे कोई साफ विकल्प नहीं खोज लेतीं, जो अपने आप में स्वास्थ्य जोखिम बनाता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन की साल 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के शहरी इलाकों में सार्वजनिक टॉयलेट इस्तेमाल करने वाली 53.9 फ़ीसदी  महिलाओं ने अपने जीवन में कम से कम एक बार मूत्र संक्रमण (यूटीआई) का अनुभव किया है।

यह आंकड़ा साफ दिखाता है कि स्वच्छ और सुरक्षित टॉयलेट केवल एक सुविधा नहीं, बल्कि महिलाओं के स्वास्थ्य, सुरक्षा, सम्मान और मानवाधिकार से जुड़ा एक मूलभूत अधिकार है।भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां हर नागरिक को गरिमामय जीवन का अधिकार है, महिलाओं को साफ़, सुरक्षित और सुलभ सार्वजनिक शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा से वंचित रखना सिर्फ प्रशासनिक कमी नहीं है, बल्कि समाज की असमानता को भी दिखाता है। बहुत जगह 5–10 रुपये का चार्ज लिया जाता है, जो आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के लिए मुश्किल बन सकता है। इसलिए जरूरी है कि सार्वजनिक शौचालय सभी के लिए आसानी से पहुंचने योग्य, भरोसेमंद और साफ़-सुथरे हों। केवल तभी हर महिला अपनी ज़रूरत बिना परेशानी के पूरी कर पाएगी और हम असल  में समान और विकसित समाज की ओर बढ़ पाएंगे।

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