संस्कृतिख़ास बात खास बात: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र की प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव से

खास बात: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र की प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव से

अभी तक हमारा हिंदी समाज इतना प्रबुद्ध नहीं हुआ कि वो महिलाओं के लिखे हुए को ठीक से समझ सके। महिलाओं का बोलना अपने आप में एक राजनीति है। महिलाएं जब बात करती हैं या अपने आप को पुरुष समकक्ष के सामने या साथ खड़ा करने की कोशिश करती है, तो उनकी आवाज़ को दबाया जाता है।

इतिहास की किताबें अक्सर तलवार थामे विजेताओं का गुणगान करती हैं, लेकिन उन महिलाओं की कहानियां कहीं कोनों में दबी रह जाती हैं, जो युद्ध में तो नहीं लड़ीं, पर उसकी सबसे बड़ी मार शारीरिक शोषण और यौन उत्पीड़न के रूप उन्होंने सामना किया। महिलाओं का युद्धस्थल से भले ही कोई सीधा संबंध न हो, लेकिन युद्ध के दौरान शारीरिक शोषण का सामना सबसे पहले वही करती हैं। ये शब्द हैं लेखिका गरिमा श्रीवास्तव के, जिन्होंने उन महिलाओं की आवाज़ों को दर्ज किया जो युद्धस्थल से बाहर होने के बावजूद भी युद्ध में हो रहे हिंसा का सामना की। गरिमा श्रीवास्तव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर हैं और समकालीन स्त्री-विमर्श की उन मुखर आवाज़ों में शामिल हैं, जिन्होंने महिलाओं के अनुभवों को साहित्य में गंभीरता और संवेदना के साथ दर्ज किया है। उनकी लेखनी पितृसत्तात्मक ढांचों को चुनौती देती है। स्त्री-विमर्श की जटिल परतों, युद्ध और सामाजिक ढांचे में महिला की स्थिति पर उनकी दृष्टि को और गहराई से समझने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने उनसे विस्तार से बातचीत की जिसका हिस्सा यहां दिया जा रहा है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आपके लिए नारीवाद का असली मतलब क्या है?

गरिमा श्रीवास्तव: मैं नारीवाद को स्त्रीवाद कहना चाहूंगी। स्त्रीवाद वो है जो स्त्री को मनुष्य मानने में विश्वास रखता है। अगर हम अपने समाज में अपने समुदाय में स्त्रियों के प्रति असमानता का व्यवहार करते हैं, या स्त्रियों को उनके अधिकार नहीं देते तो हम स्त्रीवादी नहीं हो सकते हैं। एक व्यक्ति जो मनुष्यता में विश्वास रखता है वह ही स्त्रीवादी हो सकता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आपकी किताबों में स्त्री-अस्मिता और पितृसत्ता की गहरी पड़ताल मिलती है। क्या आपको लगता है कि हिंदी साहित्य में स्त्रीवादी दृष्टिकोण को अभी भी हाशिए पर रखा जाता है? 

गरिमा श्रीवास्तव: हां, इस बात से मैं सहमत हूं क्योंकि अभी तक हमारा हिंदी समाज इतना प्रबुद्ध नहीं हुआ कि वो महिलाओं के लिखे हुए को ठीक से समझ सके। महिलाओं का बोलना अपने आप में एक राजनीति है। महिलाएं जब बात करती हैं या अपने आप को पुरुष समकक्ष के सामने या साथ खड़ा करने की कोशिश करती है, तो उनकी आवाज़ को दबाया जाता है। उन्हें नेतृत्व के अवसर नहीं दिए जाते। उन्हें अवसर देने की आवश्यकता है। हां हो सकता है कि वे डगमगायेंगी, लेकिन वे नेतृत्व करेंगी। जब आप उन्हें अवसर ही नहीं देंगे, तो वे नेतृत्व कैसे कर पाएंगी? यहां एक और बात है। आप (पितृसत्तात्मक समाज) पहले से ही यह मान कर चलते हैं कि अगर कोई स्त्री है तो वह दीन-हीन होगी, उसे कुछ नहीं आता होगा। आप उनके निर्णय पर संदेह करेंगे, जगह-जगह निर्देश देंगे, और आप ही बताएंगे कि उन्हें जीवन कैसे जीना है, घर कैसे संभालना है। ये सारे निर्देश आप ही देते हैं।

अभी तक हमारा हिंदी समाज इतना प्रबुद्ध नहीं हुआ कि वो महिलाओं के लिखे हुए को ठीक से समझ सके। महिलाओं का बोलना अपने आप में एक राजनीति है। महिलाएं जब बात करती हैं या अपने आप को पुरुष समकक्ष के सामने या साथ खड़ा करने की कोशिश करती है, तो उनकी आवाज़ को दबाया जाता है।

पितृसत्तात्मक समाज को अपने अहम को एक तरफ रखकर महिलाओं पर विश्वास करना सीखना चाहिए। जब किसी पुरुष को चोट लगती है तो वह आहत होता है। तो आप यह क्यों नहीं सोचते कि अगर किसी महिला को चोट लगेगी, तो वह भी आहत होगी? और हिंदी पट्टी में शिक्षा बहुत देर से पहुंची है, उसका भी गहरा प्रभाव पड़ा है। यहां पितृसत्तात्मक मानसिक अनुकूलन बहुत अधिक है। घरों में जो महिलाएं हैं, वे भी मानसिक रूप से इतनी अनुकूलित हो चुकी हैं कि उन्हें यह तक समझ नहीं आता कि वे पितृसत्ता के उपक्रम के रूप में काम कर रही हैं। लेकिन इन सालों में बहुत फर्क आया है। जैसे पहले केवल बेटा ही होना चाहिए, यह धारणा थी। पर अब, ख़ासकर महानगरों में, यदि एक ही संतान है और वह लड़की है, तब भी परिवार संतुष्ट रह रहे हैं। हालांकि राजस्थान जैसे इलाक़ों में आज भी जिनके केवल बेटियां होती हैं, उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है। 

फेमिनिज़म इन इंडिया: लेखन के दौरान आपको किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ा? विशेष रूप से एक महिला राइटर के रूप में? 

गरिमा श्रीवास्तव:  मुझे लगता है कि मैं एक राइटर से ज्यादा शोधार्थी हूं। एक शोधार्थी को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वैसी ही समस्याओं का सामना मैंने भी किया है। और अब भी करती हूं। खासकर जब हम अपने शोध-प्रश्न तैयार करते हैं, पढ़ते हैं, तो यह सवाल सबसे पहले आता है कि मेरी यह रिसर्च ‘बॉडी ऑफ नॉलेज’ में क्या योगदान देगी? इसी से जुड़ी बात यह है कि मैं अपने काम को समाज के हक़ में कैसे इस्तेमाल कर सकती हूं। या समाज की समझ को बेहतर बनाने में उसका योगदान कैसे हो सकता है। मैं इसी की कोशिश करती हूं। कभी-कभी इस कोशिश में मैं खुद को अकेला भी महसूस करती हूं।

तस्वीर साभार: Hindi samay

 अकेला इसलिए क्योंकि हम दूसरों को अपना काम समझा नहीं पाते। जैसे, अगर आपको हाशिए पर रह रही महिलाओं के जीवन-नैरेटिव्स लेने हैं, तो आपको वहां जाना होगा। उन परिस्थितियों में उतरना होगा। कई दफा पुलिस की सुरक्षा भी लेनी पड़ती है। और अगर कड़ी दोपहर में, जब कोई इंटरव्यू देने को तैयार होता है, तो हमें सब कुछ छोड़कर निकल जाना होता है। और जब वह इंटरव्यू मिल जाता है  तो लगता है कि यस, दिस इस माई अचीव्मन्ट।

कई बार व्यस्तता इतनी होती है कि खाने-पीने तक का ध्यान नहीं रह पाता, और उसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है। इस प्रक्रिया में हम और अकेले होते जाते हैं। समाज की जो व्यवस्था है, वह भी आपको और अकेला बना देती है। आपके काम को जो सराहना मिलनी चाहिए, वह अक्सर नहीं मिलती। बल्कि उल्टा लोग यह भी कह देते हैं कि क्या ज़रूरत है इतनी मेहनत की? कुछ आलोचक तो यहां तक कह देते हैं कि आप तो एक प्रतिष्ठित संस्थान में प्रोफेसर हैं। आपको किताबें लिखने की क्या ज़रूरत?

मुझे लगता है कि मैं एक राइटर से ज्यादा शोधार्थी हूं। एक शोधार्थी को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, वैसी ही समस्याओं का सामना मैंने भी किया है। और अब भी करती हूं। खासकर जब हम अपने शोध-प्रश्न तैयार करते हैं, पढ़ते हैं, तो यह सवाल सबसे पहले आता है कि मेरी यह रिसर्च ‘बॉडी ऑफ नॉलेज’ में क्या योगदान देगी? 

फेमिनिज़म इन इंडिया: आपका लेखन मुख्य रूप से स्त्री-विमर्श पर केंद्रित रहा है। आप खुद इस दिशा में कब और कैसे रुचि लेने लगीं? क्या किसी किताब, लेखक या अनुभव ने आपको खास तौर पर प्रभावित किया? 

गरिमा श्रीवास्तव: हां, सिल्विया प्लाथ, कृष्णा सोबती, चंद्रकिरण सौनरेक्सा इन सभी लोगों का ख़ास तौर पर असर पड़ा है। मैं जिस परिवार से आती हूं वो एक घोर पितृसत्तात्मक परिवार रहा है। जब मेरी माँ ने सिर्फ बेटियों को जन्म दिया,तो वे इस एकमात्र अधूरी महत्वाकांक्षा के साथ संसार से गईं कि उन्हें पुत्र नहीं हुआ। माँ के जाने के बाद जिंदगी जैसे सड़क हो जाती है। एक अजीब सा सन्नाटा महसूस होता है। ऐसा लगता है कि आप इस धरती पर है पर आपका कोई वजूद नहीं है; सिर्फ इसीलिए क्योंकि आप पुरुष नहीं है। मुझे लगता है, महिलाओं को अपने जीवन में स्त्री से ज़्यादा पुरुष की भूमिका निभानी पड़ती है और उन पर दोहरा दायित्व भी आता है।

मैंने कृष्णा सोबती पर एमफ़िल किया था और मैं उनके काफ़ी क़रीब रही हूं। वे हमेशा मुझे समझाती थीं कि सबसे पहले अपना काज संवारना सीखो। जिसने अपना नहीं संभाला, वो किसी और का क्या ही संभालेगा। मैंने देश और विदेश, दोनों जगहों पर पढ़ाया है। इन अनुभवों ने मुझे एक नया नज़रिया दिया है। वो नजरिया मुझे इस समाज में जेंडर के आधार पर जो विभाजन है उसके बारे में बताता है। एक स्त्री या तो अपना स्त्रीत्व छोड़ दे और नहीं तो दुपट्टे से अपने आँसू पोंछती रह जाए और अगर वह जरा सी बोल्ड होती है, तो समाज उसे चुनौती की तरह देखता है मित्र की तरह नहीं।

फेमिनिज़म इन इंडिया: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तो क्या आपको लगता है कि हिंदी साहित्य या दुनिया के तमाम साहित्यों में उनके संघर्षों को ठीक से जगह मिली है? क्या अब भी साहित्य में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण हावी हो रहा है? 

गरिमा श्रीवास्तव: बिलकुल, महिलाओं के लिखे हुए को आज भी सही आलोचक की दरकार है। अगर हम हिंदी साहित्य की बात करें, तो वहां भी महिलाओं के लेखन को लंबे समय तक उपेक्षित किया गया है। रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास में मीरा बाई, सहजो बाई और ताज जैसी कुछ कवयित्रियों का नाम गिनाने भर के लिए आता है। जैसे लगता है वे सिर्फ ‘फुटकर’ कवयित्रियां थीं। जबकि बाद के शोधों ने यह स्पष्ट किया है कि ऐसा बहुत सारा साहित्य जो उसी समय महिलाएं लिख रही थी।  रामचंद्र शुक्ल का इतिहास साल 1929 में प्रकाशित हुआ, जबकि उससे 25 साल पहले, साल 1904 में मुंशी देवी प्रसाद ने महिला मृदुवाणी का संपादन कर लिया था, जिसमें उन्होंने अनेक स्त्रियों के लेखन को स्थान दिया था।

अब सवाल ये उठता है कि क्या रामचंद्र शुक्ल जैसे बड़े आलोचक को महिलाओं का लेखन नहीं मिला? या उन्होंने जानबूझकर उसे दरकिनार किया? दरअसल, महिलाओं के लिखे को हमेशा से हाशिए पर रखा गया है। अक्सर यह कहा जाता है कि महिलाओं ने अब लिखना शुरू किया है। जबकि यह सच नहीं है।

अब सवाल ये उठता है कि क्या रामचंद्र शुक्ल जैसे बड़े आलोचक को महिलाओं का लेखन नहीं मिला? या उन्होंने जानबूझकर उसे दरकिनार किया? दरअसल, महिलाओं के लिखे को हमेशा से हाशिए पर रखा गया है। अक्सर यह कहा जाता है कि महिलाओं ने अब लिखना शुरू किया है। जबकि यह सच नहीं है। महिलाएं पहले भी लिख रही थीं, लेकिन उनके पास न तो प्रकाशन के साधन थे, न ही सामाजिक स्वीकृति। वे जानती थीं कि अगर उन्होंने लिख दिया, और उनका लिखा पुरुषों ने पढ़ लिया, तो दिक्कत आ सकती है। तब ये परिवार जैसी संस्था चलेगी नहीं। आज भी पुरुषों को वही महिलाएं पसंद आती हैं जो मासूम और ‘मूर्ख’ दिखाई देती हैं। अगर कोई स्त्री बुद्धिमान हो, अपने विचारों में स्पष्ट और स्वतंत्र हो, तो पुरुष अक्सर उसकी बुद्धिमता  से डरता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आपने अपनी किताब ‘देह ही देश’ में ‘देह’ को ‘देश’ के रूप में संदर्भित किया है। इसका क्या अर्थ है? क्या आपने देह को ‘देश’ की संज्ञा दी है?

गरिमा श्रीवास्तव: नहीं, मैंने देह को देश की संज्ञा नहीं दी है। किताब के शीर्षक का ये मतलब है कि युद्ध कहीं भी हो, युद्ध का निर्णय महिलाएं नहीं करतीं, न ही वे युद्ध का नेतृत्व करती हैं। लेकिन जब रौंदने की बारी आती है, तो सबसे पहले निशाना महिलाएं बनती हैं। महिलाओं के देह पर हमला करना सबसे आसान समझा जाता है क्योंकि स्त्री देह शोषण की सबसे बड़ी साइट है। वह गर्भवती हो सकती है, उसके पास एक कोख है और वो आपके चंगुल से भाग नहीं सकती है इसीलिए उसका शरीर युद्ध की सबसे क्रूर रणनीति का हिस्सा बना दिया जाता है।

तस्वीर साभार: Rajkamal Prakashan

जब संयुक्त यूगोस्लाविया का विघटन हुआ और वह छह देशों में बंटा तो ये निर्णय तो पुरुषों ने किया था। लेकिन जब सेनाएं आगे बढ़ीं, तो सबसे पहले उन्होंने स्त्रियों को निशाना बनाया। उनके साथ बलात्कार किए गए। यह देह तो पहले कहीं थी ही नहीं लेकिन जैसे ही देश का बंटवारा होने लगता है, सीमाएं खिंचने लगती हैं, तो सारे खेल देह पर ही खेले जाते हैं। अभी समकालीन  देशों में जहां भी युद्ध हो रहे हैं, वहां की स्त्रियों की स्थिति देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि सत्ता और सैन्य हिंसा में उनका क्या स्थान है। जब देश का विभाजन होता है, जब दंगे होते हैं, तो सबसे ज़्यादा विस्थापित महिलाएं होती हैं।  

जब मेरी माँ ने सिर्फ बेटियों को जन्म दिया,तो वे इस एकमात्र अधूरी महत्वाकांक्षा के साथ संसार से गईं कि उन्हें पुत्र नहीं हुआ। माँ के जाने के बाद जिंदगी जैसे सड़क हो जाती है। एक अजीब सा सन्नाटा महसूस होता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: पुस्तक चुप्पियां और दरारें में जगहों पर यह झलकता है कि धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक ढांचे महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करते हैं। क्या आपको लगता है कि मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष, बाकी समाज की महिलाओं से मूलभूत रूप से अलग है या पितृसत्ता का स्वरूप भले ही अलग हो, लेकिन मूल समस्या एक ही है?

गरिमा श्रीवास्तव: मैं समझती हूं कि बांग्लादेश और हिंदुस्तान की मुस्लिम महिलाओं दोनों के संघर्ष अलग रहे है। हालांकि दोनों समुदायों में शिक्षा की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से हुई और धर्म का हस्तक्षेप भी दोनों में अलग-अलग रूपों में मौजूद रहा लेकिन ये भी बात है कि मुस्लमान महिलाओं ने धर्म की आलोचना जितने कड़े तरीकों से की है वैसी आलोचना हिंदी साहित्य में नहीं मिलती है। हिन्दू स्त्रियों में धर्म और पितृसत्ता की आलोचना उतने कड़े तरीके से नहीं मिलती है। हालांकि मुस्लिम महिलाओं के लेखन में धर्म के उस ढांचे पर भी तीखा प्रहार है जो महिलाओं को पर्दे में रहने, प्रेम न करने और कई बार अनिच्छित संबंधों को भी स्वीकारने के लिए बाध्य करता है। पर अपेक्षाकृत कन्नड़ और मलयालम की आत्मकथाएं ज्यादा मुखर है। 

फेमिनिज़म इन इंडिया: क्या आपको लगता है कि डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से हिंदी साहित्य के स्वरूप में कोई बदलाव आया है? 

गरिमा श्रीवास्तव: हां, बिल्कुल। नई-नई विधाएं सामने आई हैं। ख़ासतौर पर यह सदी स्त्रियों की सदी है। ऐसी स्त्रियाँ जो अब अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रकाशकों की मोहताज नहीं रहीं। ऐसी स्त्री है जो गृहिणी हैं पर कविता लिखना चाह रही है या फिर दूसरों को पढ़ाना चाहती है तो वह  अब बिना कोई ख़र्च किए अपने पाठकों तक पहुँच पा रही है। और यही उसकी अभिव्यक्ति है मुझे लगता है कि आज विधाओं का जो सम्मेलन और टकराहटें हो रही हैं इन शैलियों का मिलन सोशल मीडिया के जरिए हो रहा है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: क्या शैक्षणिक संस्थानों में लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देने के लिए कोई ठोस बदलाव देखे जा रहे हैं, या यह सिर्फ एक बौद्धिक विमर्श तक सीमित है? 

 गरिमा श्रीवास्तव: लैंगिक समानता की दिशा में पहल करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर और शैक्षणिक संस्थानों में कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट (CASH) जैसी आंतरिक शिकायत समितियों का गठन किया गया है। इसके साथ ही कई सख्त कानून भी बनाए गए हैं, जिनके चलते कार्यस्थलों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं के लिए एक अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल तैयार होने लगा है। हालांकि यह एक सकारात्मक शुरुआत है, लेकिन सामाजिक और मानसिक स्तर पर जो गहरे व्यातरण (संरचनात्मक असमानताएं और पूर्वग्रह) हैं, उन्हें समाप्त होने में अभी समय लगेगा।

नहीं, मैंने देह को देश की संज्ञा नहीं दी है। किताब के शीर्षक का ये मतलब है कि युद्ध कहीं भी हो, युद्ध का निर्णय महिलाएं नहीं करतीं, न ही वे युद्ध का नेतृत्व करती हैं। लेकिन जब रौंदने की बारी आती है, तो सबसे पहले निशाना महिलाएं बनती हैं। महिलाओं के देह पर हमला करना सबसे आसान समझा जाता है क्योंकि स्त्री देह शोषण की सबसे बड़ी साइट है।

फेमिनिज़म इन इंडिया: युद्धों का जिक्र होने पर आमतौर पर यह चर्चा होती है कि कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है। इतिहास में भी युद्धों को पुरुषों की वीरता और पराक्रम के नजरिए से ही देखा गया है। लेकिन क्या आपको लगता है कि युद्धों के दौरान जिन महिलाओं ने अत्यधिक हिंसा, शोषण और अन्याय सहा, उनके अनुभवों को इतिहास और समाज ने दर्ज किया या नहीं किया?

गरिमा श्रीवास्तव:  नहीं, ये दर्ज नहीं किया गया है क्योंकि इतिहास हमेशा विजेताओं द्वारा लिखा जाता है। जो हार जाते हैं, वो इतिहास नहीं लिखते है। जैसे कि बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को ही देखिए उसमें जिन महिलाओं ने भाग लिया, जिन्होंने बलात्कार और यौन शोषण झेला और फिर भी बचीं, उन्होंने उस संघर्ष में हिस्सा लिया, बांग्लादेश को स्वतंत्रता दिलाने में योगदान दिया। उन्हें वीरांगना की उपाधियाँ दी गईं, स्मारक बने, गोल्ड मेडल दिए गए। लेकिन परिवारों की जो आंतरिक संरचना है उसमें उन स्त्रियों का जिनका बलात्कार हुआ था उनको स्वीकार नहीं किया गया। उनके बर्तन अलग कर दिए गए उनके साथ बैठना-खाना मना हो गया। ऐसी सामाजिक अस्वीकृति की वजह से कई महिलाओं की आत्महत्या से मौत हो गई।

युद्ध पुरुष करते हैं, निर्णय पुरुष लेते हैं। लेकिन उसकी गाज सबसे ज्यादा स्त्री देह पर पड़ती है। युद्धों में जैसे यह मान लिया जाता है कि युद्ध और संघर्ष हुआ है तो स्त्रियों का बलात्कार तो स्वाभाविक है। इसमें क्या कोई खास बात है। पुरुषों के लिए अक्सर महिलाओं का बलात्कार किसी छेड़खानी जैसा होता है, जैसे कोई आपका दुपट्टा खींच के चला गया, चुटकी काट गया। और अगर ऐसा हो गया तो वे कहते हैं इतना क्यों रो पीट क्यों रही हो? लेकिन सवाल ये है कि यदि आपकी इच्छा के बिना कोई आपके शरीर से संबंध बनाता है, तो वह कैसे सही हो सकता है? जैसे आपको ये अधिकार है कि आपके घर के सोफ़े पर कौन बैठे, कौन नहीं। वैसे ही आपको ये निर्णय लेने का पूरा अधिकार है कि आपकी देह को कौन छूए, और कौन नहीं।

फेमिनिज़म इन इंडिया: क्या डिजिटल माध्यमों की वजह से स्त्रीवादी विचारधारा और लेखन को अधिक व्यापक पाठक वर्ग मिला है या फिर ट्रोलिंग और गलत सूचना के कारण यह एक नई चुनौती भी बन गया है?

गरिमा श्रीवास्तव: ट्रोलिंग,गलत सूचना और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण महिलाओं के अस्तित्व पर एक नया संकट मंडरा रहा है। डीपफेक वीडियो जैसी तकनीकों के चलते अब महिलाओं को अपनी तस्वीरें साझा करते समय ज्यादा सतर्क रहना होगा। जैसे कि प्रोफाइल लॉक करना, गोपनीयता बढ़ाना आदि सावधानियां जरूरी हो गई हैं। स्त्री देह पहले से ही उपभोग की वस्तु रही है, और अब डिजिटल माध्यमों में यह शोषण और भी गंभीर रूप ले रहा है। ऐसे समय में स्त्रियों को यह भी तय करना होगा कि वे अपनी बौद्धिकता के माध्यम से समाज में अपना स्थान स्थापित करेंगी या फिर पितृसत्तात्मक निगाहों की मांग के अनुसार देह के जरिए पहचान बनाएंगी।

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