इंटरसेक्शनलजेंडर माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के शिकंजे में फंसती महिलाओं की सुध आखिर कौन लेगा?

माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के शिकंजे में फंसती महिलाओं की सुध आखिर कौन लेगा?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में 617 महिलाओं की कथित तौर पर कर्ज के बोझ से तंग आकर आत्महत्या से मौत हुई थी। यह संख्या केवल आधिकारिक रिकॉर्ड है। हकीकत कहीं ज्यादा भयावह है क्योंकि हर आत्महत्या से होती मौत और उसके कारण की सूचना एनसीआरबी तक नहीं पहुंच पाती।

“सोचिए, बीस हज़ार रुपये के कर्ज़ के लिए अगर मेरी आत्महत्या से मौत होती है तो मेरे बच्चों को कौन संभालेगा,” यह सवाल झांसी की रहने वाली पूजा का है। पूजा बताती हैं कि समस्ता माइक्रो फाइनेंस के एक मैनेजर ने उनसे कथित तौर पर कहा कि वह उन्हें रस्सी दे देंगे और वह बगल वाले कमरे में जाकर फांसी लगा ले। वे उनकी मौत के बाद बीमा से मिलने वाले पैसों से कर्ज़ वसूल कर लेंगे। इसके बाद उनके पति ने फोन करके पुलिस को बुलाया। पुलिस ने उन्हें छुड़ाया और थाने ले गई। पूजा कहती हैं, “अगर 2–3 लाख का कर्ज़ होता, तब भी शायद कोई आदमी आत्महत्या से मौत का सोचे। लेकिन बीस हज़ार रुपये के लिए कौन अपने बच्चों को अनाथ करेगा?” कुछ साल पहले पूजा के पति ने ई-रिक्शा चलाना शुरू किया था। रिक्शे की मरम्मत के लिए परिवार ने मजबूरी में आईआईएफएल समस्ता फाइनेंस लिमिटेड से 40,000 रुपये का कर्ज़ लिया। यह कर्ज़ 24 किस्तों में चुकाना था। पूजा ने अब तक 11 किस्तें जमा की हैं। लेकिन बैंक की ओर से केवल 7 किस्तें ही दर्ज की गईं।

पूजा बताती हैं, “एक दिन सुबह करीब 9 बजे, जब मैं बच्चों के साथ अकेली घर पर थी, तो रिकवरी एजेंट किस्त वसूलने आ गए। वे लगातार दोपहर 12 बजे तक दबाव डालते रहे। मैंने उनसे कहा कि घर पर कोई नहीं है। मैं अभी कहां से पैसे लाऊँ  इस पर एजेंट ने जवाब दिया कि अपने पति को ढूंढकर लाओ।” थोड़ी देर बाद उनकी सास घर लौटीं, जो मिड-डे मील वर्कर हैं। एजेंट ने उन्हें भी परेशान करना शुरू कर दिया और ज़बरदस्ती पैसे लाने को कहा। कुछ समय बाद जब उनके पति घर पहुंचे, तो एजेंट ने बोला कि अगर पैसे नहीं दे सकते तो बैंक चलो, वहीं बात करेंगे। बैंक में पूजा और उनके पति को बैंक कर्मियों ने लगभग पांच घंटे तक बैठाए रखा। वह कहती हैं, “उन्होंने मेरे पति से पैसे लाने कहा और कहा कि पैसे लाने पर ही अपनी बीवी को ले जाना। मेरे पति ने समझाया कि त्योहार के बाद किस्त जमा कर देंगे, लेकिन फिलहाल हमें जाने दें। इसके बावजूद बैंक वालों ने हमें जाने नहीं दिया। बाद में जब परिवार के अन्य लोग बैंक पहुंचे तो उन्हें भी बाहर कर दिया गया। बैंक कर्मियों ने साफ कह दिया कि जब तक पैसे जमा नहीं करोगे, इन्हें नहीं छोड़ा जाएगा”

कुछ दिन बाद एक पुलिसकर्मी मेरे घर आया और बैंक में पैसे जमा करने का दबाव बनाने लगा। वह रात तकरीबन ढाई बजे तक घर में बैठा रहा। उसने धमकी दी कि अगर पैसे जमा नहीं किए गए और शिकायत करने की कोशिश की गई, तो उनका वीडियो वायरल कर दिया जाएगा।

बैंक एजेंट और प्रसाशन के बीच फंसी जनता

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झांसी ज़िले के मोंठ थाने में बैंक एजेंटों और पुलिस के बीच बातचीत के दौरान हालात और बिगड़ गए। पूजा बताती हैं कि पुलिस ने उनसे जबरन खाली कागज़ पर हस्ताक्षर करवा लिए। बाद में उसी कागज़ पर यह लिख दिया गया कि वे झूठ बोलकर बैंक को बदनाम कर रही थीं और अपनी मर्ज़ी से बैंक में बैठी थीं। लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। वह कहती हैं, “कुछ दिन बाद एक पुलिसकर्मी मेरे घर आया और बैंक में पैसे जमा करने का दबाव बनाने लगा। वह रात तकरीबन ढाई बजे तक घर में बैठा रहा। उसने धमकी दी कि अगर पैसे जमा नहीं किए गए और शिकायत करने की कोशिश की गई, तो उनका वीडियो वायरल कर दिया जाएगा। साथ ही, खाली कागज़ पर लिए गए हस्ताक्षरों का इस्तेमाल कर उनके खिलाफ झूठा केस दर्ज कर दिया जाएगा।” वह आगे बताती हैं, “मेरा अनुभव इन प्राइवेट माइक्रोफाइनेंस संस्थानों के साथ बेहद बुरा रहा है। ये लोग जबरन दबाव बनाते हैं। हमें मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। कर्ज़ चुकाने की मजबूरी को हमारी कमज़ोरी बना दिया जाता है।”

माइक्रोफाइनैन्स के जंजाल में फंसी महिलाएं

यह कहानी केवल पूजा तक सीमित नहीं है। देश भर में करोड़ों महिलाएं ऐसे ही कर्ज़ और शोषण के बोझ तले दब रही हैं। हाल ही में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस एसोसिएशन (AIDWA) ने 21 राज्यों और 100 जिलों की 9,000 महिलाओं पर एक सर्वे किया। नतीजे बेहद चौंकाने वाले और चिंताजनक हैं। सर्वे में सामने आया कि लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं कम से कम दो अलग-अलग कंपनियों से कर्ज़ ले चुकी हैं। 32 प्रतिशत महिलाएं तीन से ज्यादा कंपनियों के कर्ज़ के मामले में फंसी हुई हैं। वहीं 40 से 50 प्रतिशत महिलाएं पुराने कर्ज़ को चुकाने के लिए नया कर्ज़ लेने पर मजबूर हैं। मध्य प्रदेश की राधा सिंह राठौर की कहानी इस दर्द को और गहराई से दिखाती है। राधा बताती हैं कि उनके गांव की एक महिला, माया राठौर, गांव-गांव घूमकर महिलाओं को कर्ज़ लेने के लिए उत्साहित करती थी। वह कहती थी, “अगर तुम्हें अभी पैसों की ज़रूरत नहीं है, तो भी मैं तुम्हारे नाम से कर्ज़ ले लूं। इससे तुम्हारा सिबिल स्कोर अच्छा रहेगा और आगे चलकर अगर तुम्हें किसी बड़ी ज़रूरत के लिए कर्ज़ चाहिए होगा, तो आसानी से मिल जाएगा।”

रिक्शे की मरम्मत के लिए परिवार ने मजबूरी में आईआईएफएल समस्ता फाइनेंस लिमिटेड से 40,000 रुपये का कर्ज़ लिया। यह कर्ज़ 24 किस्तों में चुकाना था। पूजा ने अब तक 11 किस्तें जमा की हैं। लेकिन बैंक की ओर से केवल 7 किस्तें ही दर्ज की गईं।

कम पढ़ी-लिखी होने की वजह से राधा को यह सलाह भरोसेमंद लगी। लेकिन इसी बहाने उन्होंने कई महिलाओं को कर्ज के मामले में डाल दिया। आज राधा के ऊपर तीन लाख रुपये से ज़्यादा का कर्ज़ है। माया शहर छोड़कर भाग गई और पूरा बोझ राधा पर है।

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उन्होंने कई बार शिकायत दर्ज कराई, गांव की महिलाओं ने सामूहिक आंदोलन भी किया, लेकिन सुनवाई नहीं हुई। सबसे अमानवीय पहलू यह है कि कई एजेंट खुले तौर पर महिलाओं से कहते हैं कि कर्ज़ सिर्फ एक ही शर्त पर माफ हो सकता है कि अगर कर्ज़दार की मौत आत्महत्या से हो जाए। वे साफ़ कहते हैं कि पॉलिसी के हिसाब से जिसने कर्ज़ लिया है, अगर उसकी मौत आत्महत्या से होती है तो कर्ज़ माफ़ हो जाता है।

माइक्रोफाइनेंस और हालिया आंकड़ा   

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में 617 महिलाओं की कथित तौर पर कर्ज के बोझ से तंग आकर आत्महत्या से मौत हुई थी। यह संख्या केवल आधिकारिक रिकॉर्ड है। हकीकत कहीं ज्यादा भयावह है क्योंकि हर आत्महत्या से होती मौत और उसके कारण की सूचना एनसीआरबी तक नहीं पहुंच पाती। कर्नाटक में कथित तौर पर पिछले तीन सालों में माइक्रो फाइनेंस उत्पीड़न के कारण 32 लोगों की आत्महत्या से मौत हुई है। माइक्रोफाइनेंस छोटे पैमाने पर वित्तीय सहायता देने की प्रक्रिया है। इसका मूल उद्देश्य गरीब और कम आय वाले लोगों, खासकर महिलाओं, को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना था। ये संस्थान छोटे-छोटे ऋण देकर लोगों को अपने छोटे व्यवसाय बढ़ाने में मदद करते थे। सिलाई का काम हो या किराने का स्टॉल, कुटीर उद्योग हो या खेती, माइक्रोफाइनेंस ने गरीबों को उम्मीद दी थी। लेकिन समय के साथ यह व्यवस्था एक नए किस्म की साहूकारी प्रथा में तब्दील हो गई है।

महिलाएं और माइक्रोफाइनेंस की समस्याएं

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माइक्रोफाइनेंस कंपनियां अधिकतर कर्ज़ महिलाओं को ही देती हैं। एक ओर कंपनियों को पता है कि महिलाएं पैसों को लौटाने में ईमानदार और जिम्मेदार होती हैं। लेकिन, चूंकि अधिकतर महिलाएं कम पढ़ी-लिखी होती हैं,  जटिल ब्याज दरें और कागजी प्रक्रियाएं वे पूरी तरह नहीं समझ पातीं। कंपनियां इसी कमजोरी का अक्सर फायदा उठाती हैं। शुरुआत में कर्ज़ आसानी से दिया जाता है, लेकिन बाद में वसूली की शर्तें बेहद कठोर हो जाती हैं। ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वीमेंस एसोसिएशन (AIDWA) के एक सर्वे से यह बात सामने आई कि महिलाएं कर्ज़ लेने के लिए सबसे ज़्यादा तीन वजहें बताती हैं। इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास शामिल है। अधिकांश महिलाओं के पास बीपीएल कार्ड है, फिर भी उन्हें न छात्रवृत्ति मिली, न आयुष्मान भारत योजना का लाभ और न ही किसी आवास योजना से मदद। मजबूरी में उन्हें ऐसे छोटे-छोटे कर्ज़ लेने पड़ते हैं। बुनियादी ज़रूरतों जैसे इलाज, बच्चों की पढ़ाई या घर बनाने के लिए कर्ज़ लेना किसी भी समाज और सरकार की सबसे बड़ी नाकामी को दिखाता है। स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास हर नागरिक का बुनियादी अधिकार है। इन्हें उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। जब महिलाएं इन अधिकारों से वंचित होकर माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के चंगुल में फंस जाती हैं, तो यह बताता है कि ज़मीन पर योजनाओं की हालत कितनी कमजोर है।

माइक्रोफाइनेंस कंपनियां अधिकतर कर्ज़ महिलाओं को ही देती हैं। एक ओर कंपनियों को पता है कि महिलाएं पैसों को लौटाने में ईमानदार और जिम्मेदार होती हैं। लेकिन, चूंकि अधिकतर महिलाएं कम पढ़ी-लिखी होती हैं,  जटिल ब्याज दरें और कागजी प्रक्रियाएं वे पूरी तरह नहीं समझ पातीं।

क्यों सामाजिक योजनाएं असफल हो रही हैं

सीएमआईई (CMIE) के साल 2024 के आंकड़े बताते हैं कि साल 2019 से साल 2023–24 के बीच दैनिक खर्च पूरे करने के लिए कर्ज़ लेने वाले छोटे उधारकर्ताओं की संख्या में 5.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह आंकड़ा बताता है कि हमारी नीतियां और सामाजिक योजनाएं कितनी असफल हो रही हैं। AIDWA के हालिया सर्वेक्षण में 15 राज्यों की 6,685 महिलाओं में से एक-तिहाई ने बताया कि किस्त वसूली के दौरान उन्हें सार्वजनिक अपमान झेलना पड़ा, जबकि लगभग 5 प्रतिशत ने शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव साझा किया। कई महिलाओं ने बताया कि कैसे छोटे-छोटे कर्ज़ धीरे-धीरे भारी बोझ में बदल गए और उनकी ज़िंदगी पर गहरा असर पड़ा। इस दबाव ने न सिर्फ उनके परिवार और आजीविका को प्रभावित किया, बल्कि उनकी मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया। लोन वसूली एजेंटों के डर, धमकी और अपमान ने उनके लिए घर और समाज दोनों जगह असुरक्षा की स्थिति पैदा कर दी है।

हालिया स्थिति को देखते हुए ये कहना गलत नहीं कि माइक्रोफाइनेंस व्यवस्था महिलाओं को राहत देने के बजाय उनके लिए नया बोझ बन गई है। आरबीआई ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर एमएफआई और एनबीएफसी को मनमानी करने देना सबसे बड़ी समस्या है। AIDWA का मानना है कि गरीबी से बाहर निकलने के लिए केवल माइक्रो क्रेडिट काफी नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भोजन जैसी बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित करनी होंगी। उनके सुझावों में महिला मुखिया या अकेली महिलाओं को कम ब्याज दर पर बिना जटिल कागजी प्रक्रिया के लोन उपलब्ध कराना, कर्ज़ की सीमा तय करना, ब्याज दरों पर सख्ती से निगरानी करना और वसूली के नाम पर डराने-धमकाने को कानूनी अपराध घोषित करना शामिल था। साथ ही, मनरेगा और शहरी रोजगार मिशन को मजबूत करने, वित्तीय साक्षरता कार्यक्रम चलाने और बैंकों को अधिक जिम्मेदार बनाने पर ज़ोर दिया गया। आज भी किसी पूजा या राधा जैसी लाखों महिलाएं छोटे-छोटे कर्ज़ के बोझ तले दबकर चिंता में डूबी हैं। यह सिर्फ़ आंकड़ों की नहीं, बल्कि उन महिलाओं की कहानी है जिनकी ज़िंदगियां इस व्यवस्था में रोज़ उलझ रही हैं। इसलिए, इस दिशा में सरकार और नागरिक समाज को तेजी से काम करना होगा।

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