नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए ) के विरोध में उठी आवाज़ें सिर्फ एक कानून के खिलाफ नहीं थीं, बल्कि उस भारत की कल्पना के पक्ष में थीं, जहां नागरिकता का आधार धर्म नहीं बल्कि बराबरी और इंसाफ हो। दिसम्बर 2019 से शुरू हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को नई ताकत दी। शाहीन बाग़ की सर्द रातों में बुज़ुर्ग महिलाओं का धरना, विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के नारे, और गांव -कस्बों में लोगों की बैठकों ने यह दिखाया कि संविधान में लिखी बुनियादी बातों के लिए आम नागरिक किस तरह खड़े हो सकते हैं। लेकिन इस संघर्ष की कीमत बहुत भारी पड़ी। आंदोलन के दौरान कई विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
उनमें से कई लोग आज भी जेलों में बंद हैं । पांच साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद उनकी सुनवाई अधूरी है। लोकतंत्र में लोगों को अपनी राय रखने और सरकार से असहमति जताने का पूरा हक होना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या कानून और सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ सही और न्यायपूर्ण व्यवहार किया? बीते दिनों जब दिल्ली की सड़कों पर ‘फ़्रीडम मार्च’ निकला, तो यह केवल अतीत की याद भर नहीं था। यह उन परिवारों का गुस्सा और उम्मीद थी जिनके अपने आज भी सलाखों के पीछे हैं। यह उन विद्यार्थियों की पुकार थी जो मानते हैं कि बिना न्याय और समानता के लोकतंत्र अधूरा है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए ) के विरोध में उठी आवाज़ें सिर्फ एक कानून के खिलाफ नहीं थीं, बल्कि उस भारत की कल्पना के पक्ष में थीं, जहां नागरिकता का आधार धर्म नहीं बल्कि बराबरी और इंसाफ हो।
दिल्ली में छात्रों का आज़ादी मार्च

मकतूब मीडिया के मुताबिक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ ने शनिवार को ‘आज़ादी मार्च’ निकाला। यह मार्च उन सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं के समर्थन में था, जो पिछले पांच साल से ज़्यादा समय से जेल में बंद हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में उनकी जमानत की अपील खारिज कर दी और वे सभी कठोर यूएपीए कानून के तहत जेल में क़ैद हैं। विद्यार्थियों और कार्यकर्ताओं के रिश्तेदारों सहित प्रदर्शनकारियों ने ‘रिहा करो, रिहा करो’ (“उन्हें रिहा करो, उन्हें रिहा करो”), ‘यूएपीए नहीं चलेगा’, और ‘सीएए नहीं चलेगा’ जैसे नारे लगाए, और उन्हें रिहा किए जाने तक अपना संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया।
जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष नितेश ने कहा, इस मार्च के माध्यम से, हम कह रहे हैं कि वे अकेले नहीं हैं। यह एक सामूहिक संघर्ष है। हम संविधान की आत्मा को बचाने के लिए मार्च कर रहे हैं । वे सभी केवल सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे थे । वे केवल अपने लिए नहीं लड़ रहे थे, वे संविधान की रक्षा करते हुए सभी के लिए लड़ रहे थे। हम यह लड़ाई तब तक जारी रखेंगे जब तक वे रिहा नहीं हो जाते। मार्च के अंत में कई छात्रों और सामाजिक संगठनों ने भी कहा कि यह आंदोलन सिर्फ़ कैद कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ ने शनिवार को ‘आज़ादी मार्च’ निकाला। यह मार्च उन सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं के समर्थन में था, जो पिछले पांच साल से ज़्यादा समय से जेल में बंद हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में उनकी जमानत की अपील खारिज कर दी थी ।
सीएए का विरोध क्यों किया गया था

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए ) साल 2019 भारतीय संसद में पारित किया गया एक कानून है, जिसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसम्बर 2014 तक भारत आए शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस कानून को लेकर विवाद इसलिए हुआ क्योंकि इस कानून में मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है। जिसे कई लोगों ने संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना और समानता के सिद्धांत के खिलाफ माना।
सरकार का कहना है कि सीएए का उद्देश्य पड़ोसी देशों में धार्मिक हिंसा झेल रहे अल्पसंख्यकों को राहत देना है । बीबीसी के मुताबिक आलोचकों का कहना है कि अगर यह विधेयक(कानून ) वाकई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए है, तो इसमें उन मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी शामिल किया जाना चाहिए था, जिन्हें अपने ही देशों में हिंसा का सामना करना पड़ा है । इस कारण साल 2019–20 में देशभर में बहुत ज्यादा विरोध प्रदर्शन हुए ।
सीएए 2019 भारतीय संसद में पारित किया गया एक कानून है, जिसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसम्बर 2014 तक भारत आए शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस कानून को लेकर विवाद इसलिए हुआ क्योंकि इसमें मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है ।
शाहीन बाग़ धरना, गिरफ्तारी और लोकतंत्र पर सवाल

साल 2020 दिल्ली के शाहीन बाग़ में महिलाओं ने सीएए के विरोध में धरना शुरू किया। महिलाएं बिना किसी हिंसा के सड़कों पर बैठीं और लगातार सरकार से कानून वापस लेने की मांग करती रहीं। यह धरना पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय बन गया। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस आईसीजे की रिपोर्ट के मुताबिक, फरवरी 2020 में, दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद, सीएए विरोध प्रदर्शनों के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें 53 लोग मारे गए। जिनमें से 38 लोग मुस्लिम समुदाय से थे । इस दौरान सेंकड़ों की संख्या में लोग घायल हुए।
दिल्ली पुलिस प्रभावी जांच करने और अपराधियों को सजा दिलाने में विफल रही, जिससे उन्हें सजा नहीं मिल पाई । इसके बजाय, उन्होंने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया । इस कथित साज़िश के सिलसिले में, पुलिस ने 18 लोगों के खिलाफ आतंकवाद, राजद्रोह और हत्या के आरोप दर्ज किए हैं, जिनमें से 16 मुस्लिम समुदाय से हैं। यह पूरी घटना न केवल सीएए के विरोध आंदोलन की जटिलताओं को सामने लाती है, बल्कि लोकतंत्र और कानून की प्रक्रिया पर उठते सवालों को भी सामने लाती है।
फरवरी 2020 में, दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद, विरोध प्रदर्शनों के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें 53 लोग मारे गए। जिनमें से 38 लोग मुस्लिम समुदाय से थे । इस दौरान सेंकड़ों की संख्या में लोग घायल हुए।
धीमी न्यायिक प्रक्रिया और कार्यकर्ताओं का हाल

साल 2020 से 2021 में कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के दौरान कोर्ट की धीमी कार्यवाही के कारण, कई कार्यकर्ताओं की जमानत याचिकाएं लंबित रहीं। न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति ने कई कार्यकर्ताओं को लंबे समय तक जेल में रहने के लिए मजबूर किया। इन्हीं में से एक हैं शादाब आलम जिनको बेल मिलने में 80 दिन लग गए और खुद को निर्दोष साबित करने में 4 साल लग गए । पिछले साल मार्च में यानी साल 2024 में दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट ने फैसला दिया कि शादाब और उनके साथ 10 अन्य आरोपियों के खिलाफ पुलिस के पास कोई ठोस सबूत नहीं हैं।
इसलिए कोर्ट ने सभी को डिस्चार्ज कर दिया, यानी उन पर लगे आरोपों से उन्हें बरी कर दिया गया। बीबीसी में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, शादाब का कहना है कि उन्हें इंसाफ़ तो मिला पर उसमें बहुत वक्त लग गया । चार साल तक तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही । उनके पिता का कहना है, “हमें इंसाफ़ मिला लेकिन पूरा नहीं मिला । किसी ने अगर ग़लत केस बनाया तो उनके ख़िलाफ़ भी कुछ होना चाहिए था न?” आंदोलन को पांच साल बीत चुके हैं लेकिन इनमें से कुछ लोग बिना किसी अपराध के अब भी जेल में कैद हैं । यह मामला सिर्फ़ एक व्यक्ति या एक परिवार की तकलीफ़ नहीं बताता, बल्कि पूरी न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाता है। अदालत का काम है कि आरोपियों को समय पर न्याय मिले, लेकिन लंबे समय तक जेल में रखना और सुनवाई में देरी करना लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बुनियादी भावना को नुकसान पहुंचाता है।
शादाब का कहना है कि उन्हें इंसाफ़ तो मिला पर उसमें बहुत वक्त लग गया । चार साल तक तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही । उनके पिता का कहना है, “हमें इंसाफ़ मिला लेकिन पूरा नहीं मिला । किसी ने अगर ग़लत केस बनाया तो उनके ख़िलाफ़ भी कुछ होना चाहिए था न?”
पांच साल बाद न्याय का इंतज़ार

द फेडरल के मुताबिक, दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार 2 सितंबर को फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों के पीछे कथित साजिश से जुड़े यूएपीए मामले में 9 कार्यकर्ताओं की जमानत याचिका खारिज कर दी। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति शालिंदर कौर की खंडपीठ ने खालिद, इमाम, मोहम्मद सलीम खान , शिफा उर रहमान, अतहर खान, मीरान हैदर, अब्दुल खालिद सैफी, गुलफिशा फातिमा और शादाब अहमद की दायर याचिकाओं पर फैसला सुनाया। पीठ ने कहा, ‘सभी अपीलें खारिज की जाती हैं।’ साथ ही पीठ ने कहा कि इस पर विस्तृत आदेश दिया जाएगा। द इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने कथित साजिश से जुड़े यूएपीए मामले में कार्यकर्ता उमर खालिद, शरजील इमाम , गुलफिशा फातिमा और मीरान हैदर अन्य कार्यकर्ताओं की जमानत याचिकाओं पर सुनवाई 19 सितंबर तक के लिए स्थगित कर दी। न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और एन.वी. अंजारिया की पीठ ने कहा कि वे मामले के रिकॉर्ड की जांच नहीं कर पाए क्योंकि फाइलें आधी रात के बाद ही उनके पास पहुंची। पीठ ने कार्यवाही एक हफ़्ते के लिए स्थगित करते हुए कहा कि उन्हें इन मामलों की फाइलें सुबह 2.30 बजे मिली थीं।
हालांकि उच्च न्यायालय ने कहा कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने और जनसभाओं में भाषण देने का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित है और इसे बेरहमी से सीमित नहीं किया जा सकता, लेकिन उसने यह भी कहा कि यह अधिकार पूर्ण नहीं है और उचित प्रतिबंधों के अधीन है। ज़मानत अस्वीकृति आदेश में कहा गया है, ‘अगर विरोध प्रदर्शन के अप्रतिबंधित अधिकार के प्रयोग की अनुमति दी गई, तो यह संवैधानिक ढांचे को नुकसान पहुंचाएगा और देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित करेगा।’ ,कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि लंबी हिरासत और ज़मानत से इनकार न्याय के बुनियादी सिद्धांतों को कमजोर करते हैं, जबकि सरकार का दावा है कि यह क़दम हिंसा रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने के लिए ज़रूरी है।
पांच साल बाद भी ‘फ़्रीडम मार्च’ और जेल में बंद आंदोलनकारियों की स्थिति यह याद दिलाती है कि लोकतंत्र सिर्फ़ संविधान में लिखे शब्दों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे आम लोगों की ज़िंदगी में उतारना भी उतना ही ज़रूरी है। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ उठी आवाज़ें सिर्फ़ कानून के विरोध में नहीं थीं, बल्कि समानता, न्याय और संविधान की असली भावना के लिए थीं। शाहीन बाग़ का धरना और छात्रों का आजादी मार्च यह दिखाता है कि आम लोग अपने अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए कितने मजबूत और हिम्मत वाले हैं। लेकिन न्याय मिलने में देर और लंबे समय तक जेल में रहना यह दिखाता है कि असहमति जताने वालों के साथ कई बार न्याय और उनके संवैधानिक अधिकारों का सही तरीके से पालन नहीं हुआ। इसलिए यह सिर्फ़ अतीत की कहानी नहीं है, बल्कि आज और भविष्य के लिए चेतावनी भी है । जब तक न्याय समय पर और सही ढंग से नहीं मिलेगा, लोकतंत्र अधूरा रहेगा।

