इंटरसेक्शनलजेंडर भारत में आपदा प्रबंधन का विकास और इसमें महिलाओं की भूमिका

भारत में आपदा प्रबंधन का विकास और इसमें महिलाओं की भूमिका

आपदा के बाद महिलाओं पर परिवार और बच्चों की देखभाल का दबाव बढ़ जाता है, जबकि पुनर्वास संसाधनों तक उनकी पहुंच सीमित रहती है। निर्णय लेने में उनकी भागीदारी कम होने से वे और अधिक असुरक्षित हो जाती हैं। ग्रामीण और घरेलू कामों में जुड़ी महिलाएं समुदाय को मजबूत बनाने में अहम योगदान देती हैं, लेकिन उनकी ज़रूरतों को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

भारत प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से बेहद संवेदनशील देश है। यहां बाढ़, भूकंप, चक्रवात, सूखा और भारी बारिश जैसी आपदाएं अक्सर आती रहती हैं। पहले आपदा प्रबंधन केवल राहत और बचाव तक सीमित था, लेकिन अब इसका दायरा पुनर्वास, समुदाय की भागीदारी और लचीलापन बढ़ाने तक फैल गया है। इस प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। हालांकि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने उन्हें अधिक असुरक्षित बनाया है, फिर भी उन्होंने राहत, पुनर्निर्माण और सामुदायिक सहयोग में सक्रिय भागीदारी कर अपनी क्षमता साबित की है।

भारत में साल 1980 के दशक से पहले आपदा प्रबंधन सिर्फ़ राहत और पुनर्वास तक सीमित था। बाढ़, सूखा या भूकंप जैसी आपदाओं में सरकार भोजन, दवाइयां और अस्थायी सहायता देती थी, लेकिन आपदा पूर्व तैयारी और न्यूनीकरण पर ध्यान नहीं था। साल 1966-67 का बिहार अकाल राहत प्रणाली की कमियों को उजागर करता है। साल 1980 के बाद धीरे-धीरे बदलाव शुरू हुआ। पर्यावरण विभाग का गठन हुआ और आपदा को पर्यावरणीय चुनौतियों से जोड़ा गया। साल 1984 की भोपाल गैस त्रासदी ने औद्योगिक सुरक्षा नियमों की गंभीर कमी सामने रखी और उन्हें कड़ा बनाने की ज़रूरत को रेखांकित किया।

साक्ष्य बताते हैं कि आपदाओं में मौत के मामले में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, साल 2004 के भारतीय महासागर सूनामी में तमिलनाडु के तटीय राज्य में हुई मौतों में 70 फीसद महिलाएं थीं।

आपदा प्रबंधन से जुड़े क़ानून 

भारत में आपदा प्रबंधन का विकास कई चरणों से गुज़रा है। साल 1990 में चक्रवात चेतावनी निदेशालय बना, जिसने पूर्वानुमान और तैयारी को मज़बूत किया। 1993 का लातूर भूकंप शहरी आपदाओं के प्रति चेतावनी साबित हुआ। 2001 का भुज भूकंप आपदा प्रतिक्रिया और शहरी नियोजन सुधार की ज़रूरत दिखाता है। साल 2004 की हिंद महासागर सुनामी एक निर्णायक मोड़ रही। इसके बाद 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बने और चार स्तंभ तय किए गए–शमन, तैयारी, त्वरित प्रतिक्रिया और पुनर्प्राप्ति। साथ ही राष्ट्रीय आपदा मोचन बल की स्थापना हुई।

वहीं साल 2010 के बाद भारत ने आधुनिक दृष्टिकोण अपनाया और 2015 में सेंडाइ रूपरेखा के तहत दीर्घकालिक रणनीतियों पर ज़ोर दिया। इस प्रकार भारत का आपदा प्रबंधन अब और अधिक संगठित, सक्रिय और वैश्विक मानकों से जुड़ा हुआ है। भारत में आपदा प्रबंधन में अब आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल बढ़ गया है। डॉप्लर रडार और बाढ़ पूर्वानुमान तंत्र जैसी प्रणालियों से समय रहते चेतावनी दी जा सकती है। सामुदायिक स्तर पर आपदा मित्र कार्यक्रम के तहत स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। साथ ही, भारत ने आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन जैसी वैश्विक पहल में भाग लेकर सहयोग को बढ़ावा दिया है। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को देखते हुए अब रणनीतियों में जलवायु लचीलापन भी शामिल किया जा रहा है।

आपदा का असर सभी पर पड़ता है, लेकिन समाज में असमानताओं के कारण महिलाओं पर इसका बोझ अधिक होता है।विस्थापन की स्थिति में महिलाओं को सुरक्षित आश्रय, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी का सामना करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है।

प्राकृतिक आपदा और महिलाओं की स्थिति 

आपदा का असर सभी पर पड़ता है, लेकिन समाज में असमानताओं के कारण महिलाओं पर इसका बोझ अधिक होता है।विस्थापन की स्थिति में महिलाओं को सुरक्षित आश्रय, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी का सामना करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं पर खतरा और बढ़ जाता है। साथ ही, यौन हिंसा और शोषण का जोखिम भी बढ़ता है। आपदा के बाद महिलाओं पर परिवार और बच्चों की देखभाल का दबाव बढ़ जाता है, जबकि पुनर्वास संसाधनों तक उनकी पहुंच सीमित रहती है। निर्णय लेने में उनकी भागीदारी कम होने से वे और अधिक असुरक्षित हो जाती हैं। ग्रामीण और घरेलू कामों में जुड़ी महिलाएं समुदाय को मजबूत बनाने में अहम योगदान देती हैं, लेकिन उनकी ज़रूरतों को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इसलिए, आपदा प्रबंधन में महिलाओं की स्थिति और भूमिका को समझना और उन्हें बराबरी का हिस्सा देना बेहद ज़रूरी है।

आपदा में महिलाओं की भूमिका की अहमियत

आपदा केवल शारीरिक या आर्थिक नुकसान नहीं देती, बल्कि महिलाओं पर मानसिक और भावनात्मक असर भी गहरा होता है। घर, परिवार और आश्रय खोने का बोझ उनके कंधों पर पड़ता है, फिर भी वे बच्चों और परिवार की देखभाल में लगी रहती हैं। भारत में महिला-पुरुष अनुपात और रोज़मर्रा की चुनौतियों जैसे कुपोषण, मातृ मृत्यु, शिक्षा की कमी और कन्या भ्रूण हत्या इस असुरक्षा को बढ़ाते हैं। इसलिए आपदा प्रबंधन में महिलाओं की भूमिका और उनकी विशिष्ट ज़रूरतों को प्राथमिकता देना जरूरी है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत की एक अरब से अधिक जनसंख्या कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं के खतरे के संपर्क में रहती है। इसके अलावा, गरीब आर्थिक और सामाजिक स्थिति, कमजोर मानव बस्तियां, असुरक्षित निर्माण प्रथाएं और जागरूकता की कमी इस जनसंख्या को आपदा और जलवायु जोखिम के प्रति बहुत संवेदनशील बनाती हैं। भारत के कुल 7,500 किलोमीटर तट में लगभग 5,700 किलोमीटर हिस्सा गंभीर चक्रवातों के खतरे में है। इसके अलावा, कुल आबादी का लगभग 40 फीसद हिस्सा समुद्र तट से 100 किलोमीटर के भीतर रहता है, जिससे तटीय क्षेत्रों में आपदाओं के प्रभाव और भी विनाशकारी हो जाते हैं।

वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत की एक अरब से अधिक जनसंख्या कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं के खतरे के संपर्क में रहती है। इसके अलावा, गरीब आर्थिक और सामाजिक स्थिति, कमजोर मानव बस्तियां, असुरक्षित निर्माण प्रथाएं और जागरूकता की कमी इस जनसंख्या को आपदा और जलवायु जोखिम के प्रति बहुत संवेदनशील बनाती हैं।

महिलाओं और पुरुषों की आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता अलग होती है। लेकिन, साक्ष्य बताते हैं कि आपदाओं में मौत के मामले में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, साल 2004 के भारतीय महासागर सूनामी में तमिलनाडु के तटीय राज्य में हुई मौतों में 70 फीसद महिलाएं थीं। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन (डीआरएम) में महिलाओं की कम भागीदारी उनकी संवेदनशीलता को और बढ़ा देती है और उन्हें नेतृत्व वाली भूमिकाएं निभाने से रोकती है। भारत में, पारंपरिक रूप से महिलाओं को केवल घर संभालने वाली माना जाता है, इसलिए उन्हें आपदा की तैयारी और योजना बनाने की प्रक्रिया से अक्सर बाहर रखा जाता है। नतीजन, महिलाओं को आपदा आने पर क्या करना चाहिए, इसकी जानकारी कम होती है और अपनी जरूरतें या प्राथमिकताएं साझा करने के अवसर भी कम मिलते हैं।

आपदा प्रबंधन में महिलाओं का विकास

स्वतंत्रता के बाद 1947 से 1980 के दशक तक आपदा प्रबंधन का ध्यान मुख्य रूप से राहत और पुनर्वास पर था। इस दौर में भी महिलाओं को आपदा पीड़ित के रूप में देखा गया, न कि आपदा प्रबंधन की साझेदार के रूप में। 1999 के ओडिशा सुपर चक्रवात और 2001 के गुजरात भूकंप ने दिखाया कि महिलाएं राहत शिविरों और पुनर्वास कार्यों में सामुदायिक नेतृत्व की भूमिका निभा सकती हैं। साल 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम लागू हुआ, जिसने संस्थागत स्तर पर आपदा प्रबंधन को मज़बूत किया। इसके बाद आपदा योजनाओं में लैंगिक दृष्टिकोण शामिल करने की चर्चा शुरू हुई। विशेष रूप से 2004 की सुनामी और 2013 की उत्तराखंड बाढ़ ने साबित किया कि महिलाओं की भागीदारी के बिना आपदा प्रबंधन अधूरा है।

महाराष्ट्र और गुजरात में आए भूकंपों के बाद कई गैर-सरकारी संगठनों ने भी महिलाओं को राहत और पुनर्वास कामों में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया। इनमें स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) संगठन का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा।

संशोधित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (एनडीएमपी), 2019 में महिला सशक्तिकरण और उनकी नेतृत्वकारी भूमिका को प्रमुखता दी गई है। आपदा मित्र योजना के अंतर्गत महिलाओं को ‘आपदा सखी’ के रूप में प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिसके तहत लगभग एक लाख प्रशिक्षित आपदा मित्र स्वयंसेवकों में 20 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। देश में चक्रवात आश्रय प्रबंधन और रखरखाव समितियों (सीएसएमएमसी) में महिलाओं की 50 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित की गई है। आपदा तैयारी, बचाव और प्रशिक्षण में महिलाओं को अब प्रमुख भूमिकाएं दी जा रही हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) ने महिलाओं की भूमिका पर प्रशिक्षण और सर्वोत्तम प्रथाओं का संकलन तैयार किया है। केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की महिला टुकड़ियों को एनडीआरएफ में राहत और बचाव कामों के लिए प्रशिक्षित किया गया है।

महाराष्ट्र और गुजरात में आए भूकंपों के बाद कई गैर-सरकारी संगठनों ने भी महिलाओं को राहत और पुनर्वास कामों में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया। इनमें स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) संगठन का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। साल 1993 के लातूर भूकंप में महिलाओं ने क्षतिग्रस्त मकानों की मरम्मत और मजबूती के कार्यों में सक्रिय भाग लिया। समय के साथ, इन महिलाओं ने आत्मविश्वास और कौशल अर्जित किया और सामुदायिक विकास की मध्यस्थ बनकर काम किया। उन्होंने स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, पानी, स्वच्छता और स्थानीय शासन में महिलाओं की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को प्रमुखता दी। एसएसपी के प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएं न केवल आपदा के दौरान राहत और पुनर्वास काम कर सकती हैं, बल्कि समुदाय को आपदा-प्रतिरोधक बनाने में भी सक्षम हैं।

एसएसपी के प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएं न केवल आपदा के दौरान राहत और पुनर्वास काम कर सकती हैं, बल्कि समुदाय को आपदा-प्रतिरोधक बनाने में भी सक्षम हैं।

जनवरी 2001 में गुजरात के भुज भूकंप ने लगभग दस लाख परिवारों को बेघर कर दिया। इस दौरान स्थानीय महिलाओं ने महाराष्ट्र की महिला समूहों की मदद से घर-घर जाकर भूकंप-सुरक्षित निर्माण के तरीकों की जागरूकता फैलाई और सामूहिक व्यवस्थाओं में सहयोग किया। आईआईटी कानपुर के सर्वेक्षण के अनुसार, आपदा के बाद महिलाएं विधवा हुईं, यौन और घरेलू हिंसा का सामना किया, कानूनी सहायता नहीं मिली और आजीविका के साधन छिन गए। इसके बावजूद महिलाओं ने स्वयं-सहायता समूह बनाए, छोटे व्यवसाय शुरू किए और समुदाय के पुनर्वास में सक्रिय भूमिका निभाई। कोविड-19 महामारी में भी महिलाओं ने स्वास्थ्य सेवाओं, जन-जागरूकता और सामुदायिक समन्वय में अहम योगदान दिया। आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने घर-घर सर्वे, जागरूकता अभियान और संक्रमण रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, साथ ही नई तकनीकों का उपयोग कर सरकारी स्वास्थ्य तंत्र और समुदाय के बीच कड़ी बनाई।

महिलाओं की आपदा प्रबंधन में भूमिका क्यों अहम है

महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति उन्हें आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है। भारत में महिलाएं खाद्य, पानी और ईंधन जैसी सामुदायिक ज़रूरतों की रीढ़ हैं और आपदा के समय राहत, आश्रय और सहयोग सेवाओं में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। हालांकि उनकी मेहनत अक्सर अदृश्य रहती है, क्योंकि राहत और पुनर्वास योजनाओं में महिलाओं को प्राथमिकता नहीं मिलती। आपदा प्रबंधन को प्रभावी बनाने के लिए महिलाओं को नीति और योजना में शामिल करना जरूरी है। उन्हें आधुनिक आपदा प्रबंधन, पूर्व चेतावनी प्रणाली और स्वास्थ्य सेवाओं में प्रशिक्षित करना चाहिए। सामुदायिक स्तर पर महिला स्वयं सहायता समूह और स्थानीय संस्थाएं राहत कामों में सक्रिय हों। साथ ही, स्कूल और कॉलेज शिक्षा में लैंगिक दृष्टिकोण शामिल करना जरूरी है ताकि नई पीढ़ी महिलाओं की भूमिका और योगदान को समझ सके। भारत में आपदा प्रबंधन अब सिर्फ़ राहत और पुनर्वास तक सीमित नहीं है, बल्कि जोखिम कम करने, पूर्व तैयारी और सामुदायिक भागीदारी पर केंद्रित है। इस प्रक्रिया में महिलाएं केवल प्रभावित नहीं, बल्कि समाधान और नेतृत्व में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। राहत शिविरों, स्वयं सहायता समूहों और आपदा प्रशिक्षण में उनकी भागीदारी निर्णायक होती है। प्रभावी और टिकाऊ आपदा प्रबंधन तभी संभव है जब महिलाओं की समान और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो।

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