स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य देश में जनजातीय समुदायों के मातृ और शिशु स्वास्थ्य की अनदेखी चुनौतियां

देश में जनजातीय समुदायों के मातृ और शिशु स्वास्थ्य की अनदेखी चुनौतियां

भारत में जनजातीय समुदायों में मातृ और शिशु स्वास्थ्य आज भी एक गंभीर सामाजिक चुनौती है। ये समुदाय अक्सर दूरस्थ और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं। जहां आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, प्रशिक्षित दवाइयां और प्रसव सेवाएं सीमित हैं।

भारत में जनजातीय समुदायों में मातृ और शिशु स्वास्थ्य आज भी एक गंभीर सामाजिक चुनौती है। ये समुदाय अक्सर दूरस्थ और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं, जहां आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, प्रशिक्षित दवाइयां और प्रसव सेवाएं सीमित हैं। इसके अलावा इन जनजातीय समूहों में पोषण संबंधी संसाधन और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता की भी बहुत कमी होती है जिस कारण उनकी स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण बनी रहती है। नतीजन जनजातीय महिलाओं और बच्चों में मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। इसके अलावा महिला और बच्चों में पोषण की भी बेहद कमी देखी जाती है। इसके साथ ही पारंपरिक मान्यताएं और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता की कमी इन समस्याओं को और गहरा करती हैं।

जनजातीय समुदायों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और मातृत्व मृत्यु दर 

भारत की साल 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियां कुल जनसंख्या का लगभग 8.6 प्रतिशत हैं, यानी लगभग 10.4 करोड़ लोग। ये आबादी विभिन्न राज्यों और भौगोलिक क्षेत्रों में फैली हुई है और अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति और जीवन शैली के साथ जीवन जी रही हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद, इन समुदायों की सामाजिक और स्वास्थ्य स्थिति अब भी चिंता का विषय बनी हुई है। मुख्यधारा की विकास नीतियों और सरकारी योजनाओं में इनकी पर्याप्त भागीदारी और पहुंच अक्सर अब भी सीमित हैं।

भारत में जनजातीय समुदायों में मातृ और शिशु स्वास्थ्य आज भी एक गंभीर सामाजिक चुनौती है। ये समुदाय अक्सर दूरस्थ और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं। जहां आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, प्रशिक्षित दवाइयां और प्रसव सेवाएं सीमित हैं।

भारत में वैसे तो मातृ मृत्यु दर घटाने में प्रगति की है। सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के साल 2020–22 की रिपोर्ट अनुसार, हालिया एमएमआर लगभग 88 है, यानी प्रति एक लाख जीवित जन्म पर 88 महिलाओं की मौत होती है। यह पहले की तुलना में बेहतर है। लेकिन विभिन्न राज्यों और समुदायों के बीच यह दर अभी भी असमान बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के तहत इसे साल 2030 तक 70 से नीचे लाने का लक्ष्य अभी चुनौतीपूर्ण मालूम होता है। हालांकि, जनजातीय महिलाओं के लिए अलग राष्ट्रीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन क्षेत्रीय अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि इन क्षेत्रों में मातृ मृत्यु दर आम आबादी की तुलना में कहीं अधिक है।

मातृत्व स्वास्थ्य की स्थिति और चुनौतियां 

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन के मुताबिक, छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में किए गए एक पांच वर्षीय अध्ययन में पाया गया कि अस्पताल में इलाज के लिए पहुंची प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर 1611 महिलाओं की मृत्यु हुई। इसका मुख्य कारण यह है कि महिलाएं तब तक अस्पताल नहीं पहुंच पाती हैं, जब तक स्थिति गंभीर न हो जाए। इस उच्च मातृत्व मृत्यु दर के पीछे एनीमिया, कुपोषण, पर्याप्त जांच की कमी, प्रशिक्षित दाइयों की अनुपलब्धता और दूरस्थ स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच न होना जैसे कारण जिम्मेदार हैं। इसलिए गर्भावस्था और प्रसव जनजातीय महिलाओं के लिए ज्यादा जोखिमपूर्ण हो जाता है।

सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के साल 2020–22 की रिपोर्ट अनुसार, हालिया एमएमआर लगभग 88 है, यानी प्रति एक लाख जीवित जन्म पर 88 महिलाओं की मौत होती है। यह पहले की तुलना में बेहतर है। लेकिन विभिन्न राज्यों और समुदायों के बीच यह दर अभी भी असमान बनी हुई है।

गर्भावस्था से पहले और गर्भावस्था के दौरान कई कठिनाइयां होती हैं। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ के मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले में बैगा जनजाति पर किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि पहले महिलाओं में गर्भावस्था जांच की प्रवृत्ति बहुत कम थी। लेकिन जागरूकता और जानकारी से जुड़ी पहल के बाद यह दर 82.3 प्रतिशत तक बढ़ी गई है। कई महिलाएं गर्भ के शुरुआती महीनों में जांच के लिए नहीं जाती हैं। अस्पताल की दूरी, सीमित परिवहन और आर्थिक तंगी के साथ-साथ पारंपरिक धारणाएं उन्हें अस्पताल तक पहुंचने में बाधा बनती हैं। इसके अलावा, एनीमिया, कुपोषण, पोषण और देखभाल से जुड़ी जानकारी की कमी भी उनमें बेहद आम है। कई समुदायों में यह मान्यता अब भी बनी हुई है कि गर्भावस्था के दौरान अधिक खाना नुकसानदेह है या सिजेरियन डिलीवरी के बाद महिला सामान्य काम नहीं कर पाएगी। ये धारणाएं महिलाओं के स्वास्थ्य को कमजोर करती हैं।

प्रसव और उसके की कठिनाइयां 

जनजातीय समुदाय की महिलाओं में प्रसव और प्रसव के बाद स्वास्थ्य की स्थिति भी चुनौतीपूर्ण होती है। अधिकांश जनजातीय महिलाएं अपने बच्चों को घर पर जन्म देती हैं, और प्रसव में बुजुर्ग महिलाएं या दाईयां मदद करती हैं। कठिन प्रसव में ही पैरामेडिकल स्टाफ की सेवाएं ली जाती हैं, जिसके कारण संक्रमण और अन्य जटिलताएं बढ़ जाती हैं। रिसर्च गेट के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 29 फीसदी आदिवासी माताओं को गर्भावस्था के दौरान कोई भी प्रसवपूर्व (एएनसी) जांच या देखभाल मिली। इसके अलावा, केवल 25 फीसदी आदिवासी महिलाओं ने स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में बच्चे को जन्म दिया। 

मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले में बैगा जनजाति पर किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि पहले महिलाओं में गर्भावस्था जांच की प्रवृत्ति बहुत कम थी। लेकिन जागरूकता और जानकारी से जुड़ी पहल के बाद यह दर 82.3 प्रतिशत तक बढ़ी गई है।

बाकी 67 प्रतिशत प्रसव घर पर हुए, जिनमें अप्रशिक्षित दाइयों या पारंपरिक सहायकों ने मदद की। समुदाय में प्रसवोपरांत खून की कमी, उच्च रक्तचाप और नवजात शिशु के विकास में रुकावट जैसी समस्याएं आम होती हैं। जनजातीय महिलाओं में स्वास्थ्य संबंधी जानकारी और जागरूकता की कमी मातृत्व स्वास्थ्य की बड़ी चुनौतियों में शामिल है। कई अध्ययन बताते हैं कि जागरूकता अभियानों और सूचना-शिक्षा-प्रचार (आईईसी) पहल के बाद ही महिलाओं की गर्भावस्था के दौरान जांच और देखभाल लेने की दर बढ़ी है। फिर भी, कई महिलाएं अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र तक नहीं पहुंच पातीं। पारंपरिक मान्यताएं और सामाजिक विश्वास महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं से दूर रखती हैं।

अधूरी स्वास्थ्य सेवाएं और आदिवासी बच्चों में मृत्यु दर

जनजातीय इलाकों की दुर्गम भौगोलिक स्थिति भी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने  में बड़ी बाधा बनती हैं। पहाड़, जंगल और नदियां अक्सर स्वास्थ्य केंद्रों तक जाने की राह में मुश्किलें खड़ी कर देती हैं। इंडिया स्पेंड में छपे विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 7 चिकित्सक हैं और अधिकांश नागरिकों को अस्पताल पहुंचने के लिए लगभग 20 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव और परिवहन की कमी के कारण, कमज़ोर जनजातियां  समय पर स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं। कई आदिवासी महिलाएं गर्भावस्था के दौरान सही पोषण नहीं लेतीं हैं। आयरन, कैल्शियम और विटामिन का सेवन कम होता है। कुछ महिलाएं ‘बच्चा छोटा रहे’ जैसी धारणाओं के कारण खाना कम कर देती हैं। गर्भावस्था के दौरान शराब पीने की आदत भी समुदाय में कहीं-कहीं देखी गई है।

इंडिया स्पेंड में छपे विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 7 चिकित्सक हैं और अधिकांश नागरिकों को अस्पताल पहुंचने के लिए लगभग 20 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है।

सॉशियो हेल्थ में छपी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासी समुदायों में शिशु मृत्यु दर गैर-आदिवासी आबादी की तुलना में लगभग 27 फीसदी ज्यादा है। हालांकि भारत की औसत शिशु मृत्यु दर घटकर 1,000 जीवित जन्मों पर लगभग 32 रह गई है, लेकिन आदिवासी इलाकों में यह दर अब भी 44 से 50 मृत्यु प्रति 1,000 जीवित जन्म के बीच पाई जाती है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में आदिवासी और गैर-आदिवासी बच्चों के बीच और भी बड़ा अंतर दिखाई देता है। भारत में आदिवासी बच्चों की मृत्यु दर लगभग 1.5 गुना अधिक है। यानी आदिवासी समुदायों में 1,000 जीवित जन्मों पर लगभग 57-62 बच्चे मरते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत लगभग 39 प्रति 1,000 जीवित जन्म है। पोषण की कमी और अधूरा टीकाकरण इस स्थिति को और गंभीर बनाते हैं। स्वच्छ वातावरण की कमी, दूषित पानी और संक्रमण के खतरे बच्चों की मृत्यु दर बढ़ाते हैं।

स्वास्थ्य योजनाएं और जनजातीय इलाकों की हकीकत

जनजातीय समुदाय के माताओं और बच्चों के लिए लिए सरकार ने कई योजनाएं लागू की हैं। जैसे जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) ,जो संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देती है। प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना जिसके तहत गर्भवती महिलाओं को नकद सहायता दी जाती है। आंगनवाड़ी और आईसीडीएस  सेवाएं ,जो माताओं और बच्चों को पोषण, स्वास्थ्य जांच और शिक्षा मुहैया कराती हैं। वहीं मिशन इंद्रधनुष टीकाकरण कवरेज बढ़ाने का कार्य करता है, और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम ) ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं  पहुंचाने का प्रयास करता है। इन पहलों से मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य में सुधार तो हुआ है, लेकिन मुश्किलें अब भी बाक़ी हैं।

आदिवासी समुदायों में शिशु मृत्यु दर गैर-आदिवासी आबादी की तुलना में लगभग 27 फीसदी ज्यादा है। हालांकि भारत की औसत शिशु मृत्यु दर घटकर 1,000 जीवित जन्मों पर लगभग 32 रह गई है, लेकिन आदिवासी इलाकों में यह दर अब भी 44 से 50 मृत्यु प्रति 1,000 जीवित जन्म के बीच पाई जाती है।

समावेशी स्वास्थ्य की दिशा में क्या हो पहल

सुदूर इलाके में रहने वाले जनजातीय इलाकों में स्वास्थ्य केंद्र और कर्मचारी की पहुंच बेहद मुश्किल होती हैं। साथ ही सामुदायिक के बीच विद्यमान रूढ़िवादिता और आधुनिकता के विरुद्ध अविश्वास और पारंपरिक चिकित्सा पर निर्भरता लोगों को सरकारी सुविधाओं से दूर रखती है। इसके अलावा भाषा और सांस्कृतिक असंवेदनशीलता, दवाओं और उपकरणों की कमी और प्रशासनिक कमज़ोरी भी बड़ी बाधाएं हैं। इन समुदायों में महिला को आजादी की कमी और सामाजिक दबाव भी महिलाओं को निर्णय लेने से रोकते हैं। जनजातीय समूह के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं को और अधिक समावेशी बनाने के लिए नीतियों को समुदायों की भाषा, संस्कृति और जीवनशैली के अनुरूप बनानी चाहिए। स्थानीय भाषा में स्वास्थ्य शिक्षा, मोबाइल स्वास्थ्य सेवाएं, टेलीमेडिसिन, पर्याप्त डॉक्टर और नर्स से सुसज्जित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, प्रशिक्षित आशा और एएनएम कार्यकर्ता उपलब्ध  करवानी चाहिए।

साथ ही साथ डिजिटल माध्यमों से समय पर जानकारी जैसी पहलें प्रभावी साबित हो सकती हैं। नियमित डेटा संग्रह और शोध से यह समझा जा सकता है कि कौन-सी योजनाएं सफल हैं ,और कहां  सुधार की आवश्यकता है। स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं को जोड़कर  एक समेकित नीति अपनाने से ही जनजातीय क्षेत्रों में समावेशी स्वास्थ्य संभव हो पाएगा। भारत में जनजातीय समुदायों की मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य स्थिति अब भी चिंताजनक है। ऊंची मातृ मृत्यु दर, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी इनकी सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। सरकार की योजनाएं होने के बावजूद उनकी पहुंच और असर सीमित हैं। समावेशी नीतियों, स्थानीय भागीदारी और नियमित निगरानी से ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि कोई माँ और बच्चा पीछे न रह जाए।

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