भारतीय इतिहास में विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार इतिहास लेखन के अलग-अलग स्कूलों की विचारधाराओं के हिसाब से इतिहासकारों ने हर समय लिखना जारी रखा है। प्रारंभिक दौर के भारतीय इतिहास लेखन में नैशनलिस्ट स्कूल के इतिहासकारों की एक अहम भूमिका रही है। अगर हम भारतीय इतिहास लेखन के अन्य स्कूलों जैसे मार्क्सवादी स्कूल और सबऑल्टर्न स्कूल की बात करें तो इन सभी में एक लंबे समय तक पुरुष इतिहासकारों का ही वर्चस्व रहा है। प्रारंभिक इतिहास लेखन मुख्य रूप से पुरुषों ने पुरुषों के संदर्भ में लिखा, जिसमें युद्धों, राजाओं और सेनाओं को केंद्र में रखकर लेखन कार्य हुआ। इतिहास के विभिन्न कालों में महिलाओं और हाशिए के समुदायों के लोगों की भूमिका, उनके योगदान और विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में उनकी वास्तविक स्थिति को लेकर शुरुआती दौर में इतिहास लेखन के इन स्कूलों के इतिहासकारों ने बहुत कम ही लिखा है।
इतिहास लेखन में कुछ ऐसी महिला इतिहासकार उभरीं, जिन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों को एक नए दृष्टिकोण से देखकर और समझ कर इतिहास को लिखा। इस दृष्टिकोण को इतिहास लेखन का नारीवादी दृष्टिकोण कहा गया, जिसके आधार पर इतिहास को दोबारा एक अलग ढंग से लिखा गया। इस प्रकार के लेखन ने न केवल भारतीय इतिहास लेखन को नया आयाम दिया, बल्कि वैश्विक इतिहास लेखन में भी एक विशेष पहचान बनाई। भारतीय इतिहास को इस नए दृष्टिकोण से लिखने में 1970 के दशक के नारीवादी आंदोलनों की भी अहम भूमिका रही है। इस लेख में हम ऐसी ही भारतीय नारीवादी महिला इतिहासकारों और उनके योगदान पर चर्चा करेंगे, जिन्होंने प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के इतिहास को धर्म, जाति, जेंडर और वर्ग के दृष्टिकोण से देखा और एक नए नजरिए से इतिहास लेखन की शुरुआत की। इस पद्धति को इतिहास लेखन में जेंडर लेंस के माध्यम से लिखना भी कहा जाता है।
इतिहास लेखन में कुछ ऐसी महिला इतिहासकार उभरीं, जिन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों को एक नए दृष्टिकोण से देखकर और समझ कर इतिहास को लिखा। इस दृष्टिकोण को इतिहास लेखन का नारीवादी दृष्टिकोण कहा गया, जिसके आधार पर इतिहास को दोबारा एक अलग ढंग से लिखा गया।
कुमकुम रॉय
प्रोफेसर कुमकुम रॉय प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में प्राचीन इतिहास की साल 1999 से 2007 तक प्रोफेसर रह चुकी हैं। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से संबंधित कई प्रतिष्ठित संस्थानों में भी अध्यापन कार्य किया है। इन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेष रूप से सामाजिक इतिहास के विषय में जेंडर, राजनीतिक संस्थानों और हाशिए के समुदायों पर गहन शोध किया है। इनके प्रमुख लेखन कार्यों में किताब द एमर्जेन्स ऑफ मोनार्की इन नॉर्थ इंडिया, विमेन इन अर्ली इंडियन सोसाइटीज़ और किताब द पावर ऑफ जेंडर एण्ड द जेंडर ऑफ पावर आदि शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने पांच से अधिक किताबों का लेखन और संपादन किया है और अनेक शोध पत्र और लेख भी लिखे हैं।
उन्होंने अपनी बैचलर और मास्टर्स दोनों की पढ़ाई भारतीय इतिहास विषय में दिल्ली यूनिवर्सिटी से की है। इसके साथ ही जेएनयू से अपनी पीएचडी की डिग्री हासिल की। प्रोफेसर रॉय को उनकी पीएचडी थीसिस जिसका मुख्य विषय, द एमर्जेन्स ऑफ मोनार्की इन नॉर्थ इंडिया (1994), के लिए साल 1991 में सम्मानित भी किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त इन्हें अपनी पोस्ट- डॉक्टोरल शोध कार्य के लिए स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़, लंदन में साल 1994-1995 में कॉमनवेल्थ अकादमिक स्टाफ फैलोशिप से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही उन्हें शिमला के इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी में भी साल 1998 में फैलोशिप मिली। आज भी प्रोफेसर रॉय सामाजिक इतिहास और जेंडर अध्ययन जैसे विषयों पर शोध कर रही हैं।
प्रोफेसर कुमकुम रॉय प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में प्राचीन इतिहास की साल 1999 से 2007 तक प्रोफेसर रह चुकी हैं। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से संबंधित कई प्रतिष्ठित संस्थानों में भी अध्यापन कार्य किया है।
सुवीरा जायसवाल
इतिहासकार सुवीरा जायसवाल ने अपना शोध प्राचीन भारतीय इतिहास में धर्म, जाति और जेंडर जैसे विषयों पर केंद्रित करके किया है। इनका जन्म 1934 में हुआ था। उन्होंने साल 1953 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की थी। पटना विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा के मार्गदर्शन में अपनी पीएचडी की डिग्री पूरी की। इसके बाद साल 1962 से 1971 तक पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया है। उसके बाद वह साल 1971 से 1999 में अपनी सेवानिवृत्ति तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर रहीं। उन्होंने भारतीय समाज में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति, विभिन्न जातियों के निर्माण और उनके सामाजिक कामों को ऐतिहासिक साक्ष्यों के माध्यम से स्पष्ट किया है।
इनके मुख्य कार्यों में साल 1998 की किताब कास्ट: ऑरिजिन, फंक्शन एण्ड डाइमेंशनस ऑफ चेंज, द मेकिंग आफ ब्राह्ममनिक हेजेमनी: स्टडीज इन कास्ट, जेंडर एंड वैष्णव थियोलॉजी आदि शामिल हैं। इसके अलावा इन्होंने बहुत से लेखन कार्य प्राचीन भारतीय इतिहास के सामाजिक इतिहास के विषय में किये हैं। जिसमें उन्होंने प्राचीन काल से जाति व्यवस्था के उद्भव और उसके सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रभावों का विश्लेषण किया है। उन्होंने अपने इतिहास लेखन के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि जाति और जेंडर केवल सामाजिक संरचना नहीं हैं, बल्कि सत्ता और वर्चस्व से जुड़ी संस्थाएं भी हैं। उनके शोध से जुड़े कामों ने भारतीय सामाजिक इतिहास में जेंडर, जाति और धर्म के अंतर्संबंधों को उजागर किया है। वह साल 2007 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस की जनरल प्रेसिडेंट भी रह चुकी हैं।
अपने इतिहास लेखन के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि जाति और जेंडर केवल सामाजिक संरचना नहीं हैं, बल्कि सत्ता और वर्चस्व से जुड़ी संस्थाएं भी हैं। उनके शोध से जुड़े कामों ने भारतीय सामाजिक इतिहास में जेंडर, जाति और धर्म के अंतर्संबंधों को उजागर किया है। वह साल 2007 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस की जनरल प्रेसिडेंट भी रह चुकी हैं।
शिरीन मूसवी
प्रोफेसर शिरीन मूसवी मध्यकालीन भारत इतिहास की जानी-मानी इतिहासकार हैं। वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के इतिहास विभाग में मध्यकालीन भारतीय इतिहास की प्रोफेसर रह चुकी हैं। इतिहास लेखन के क्षेत्र में उनका काम मुख्य रूप से मध्यकालीन भारत में मुग़ल साम्राज्य के समय के आर्थिक इतिहास के शोध में हैं। उन्होंने मध्यकालीन समय के भारत इतिहास के आर्थिक इतिहास के बारे में किताबें भी लिखी हैं। जिनमें द इकोनॉमी ऑफ द मुगल एम्पायर,सी. 1595: ए स्टैटिस्टिकल स्टडी और पीपल, टैक्सेशन, एंड ट्रेड इन मुगल इंडिया आदि हैं। शिरीन ने इन सब के साथ मुग़ल सम्राज्य में महिलाओं की भूमिका के बारे में भी अपने शोध पत्रों के माध्यम से काम किया है। उन्होंने अपने कामों के लिए बहुत से फेलोशिप और सम्मान भी प्राप्त किये हैं। साल 1983-1984 में संयुक्त राज्य अमेरिका में सीनियर फुलब्राइट फैलो रही हैं, जहां उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अकादमिक जगत से संवाद किया।
साल 1990-91 में उन्हें इटली के मिलान स्थित बेलाजियो सेंटर में रॉकफेलर फाउंडेशन के तहत रेज़िडेंट फैलो के रूप में आमंत्रित किया गया। साल 1986 से 1989 तक वे यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) के नेशनल करियर अवार्ड से सम्मानित की गईं। इस प्रकार उन्होंने विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में विज़िटिंग फेलो के रूप में भी काम किया है। वह इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस से दशकों तक जुड़ी रही हैं। साथ ही साल 1996 में सेक्शनल प्रेसिडेंट बनी और साल 2016-17 में जनरल प्रेसिडेंट के रूप में निर्वाचित हुईं। उन्होंने साल 2005 से 2019 तक केंद्रीय पुरातत्व सलाहकार बोर्ड की सदस्य के रूप में तीन कार्यकालों तक काम किया है। प्रोफेसर मूसवी भारतीय इतिहास के सांप्रदायिक व्याख्याओं का खंडन करने और धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए भी सक्रिय रही हैं। साथ ही वे अलीगढ़ हिस्टोरियंस सोसाइटी की सचिव भी हैं।
प्रोफेसर शिरीन मूसवी मध्यकालीन भारत इतिहास की जानी-मानी इतिहासकार हैं। वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ के इतिहास विभाग में मध्यकालीन भारतीय इतिहास की प्रोफेसर रह चुकी हैं। इतिहास लेखन के क्षेत्र में उनका काम मुख्य रूप से मध्यकालीन भारत में मुग़ल साम्राज्य के समय के आर्थिक इतिहास के शोध में हैं।
शैलजा पाइक
डॉक्टर शैलजा पाइक आधुनिक इतिहास की एक विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। महाराष्ट्र एक छोटे से गांव में जन्मी शैलजा ने एक दलित महिला होने के कारण सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के बावजूद भी साल 1994 में पुणे विश्वविद्यालय से बीए और साल 1996 में एमए की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने साल 2007 में वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की। अपने शैक्षणिक कार्यों के माध्यम से प्रतिष्ठित संस्थानों में अध्यापन कार्य किया। उन्होंने यूनियन कॉलेज में विज़िटिंग असिस्टेंट प्रोफेसर और येल विश्वविद्यालय में पोस्टडॉक्टोरल एसोसिएट के रूप में भी कार्य किया। वह इतिहास, अकादमिक जगत और सामाजिक सक्रियता के क्षेत्र में एक जाना माना चेहरा हैं। उन्होंने कथित तौर पर दलित महिलाओं को शीर्ष में रख इतिहास लेखन में गहन शोध किया है। दलित महिलाओं के बारे में इनका बहु-चर्चित शोध कार्य जैसे आधुनिक भारत में दलित महिला शिक्षा: दोहरा भेदभाव (राउटलेज, 2014), किताब द वल्गैरिटी ऑफ़ कास्ट: दलित्स, सेक्सुअलिटी, एंड ह्यूमैनिटी इन मॉडर्न इंडिया ( स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2022) आदि हैं।
इसके अतिरिक्त शैलजा ने दलित और अफ्रीकी-अमेरिकी महिलाओं, कथित दलित महिला शिक्षा, नई दलित महिला अस्मिता, और औपनिवेशिक भारत में सामान्यीकृत यौनिकता जैसे विविध विषयों पर अनेक शोध लेख लिखे हैं जो विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। हाल ही में डॉक्टर शैलजा को उनके जाति, जेंडर और सेक्सुअलिटी के इन्टरसेक्शन में किये गहन शोध कार्य के लिए प्रतिष्ठित मैकआर्थर फेलोशिप सम्मान मिला हैं। वह मैकआर्थर फेलोशिप प्राप्त करने वाली पहली दलित भारतीय महिला इतिहासकार हैं। इस फेलोशिप के तहत उन्हें 800,000 डॉलर की धनराशि भी मिली है। साल 2010 से शैलजा सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। वर्तमान में वह वहां इतिहास की चार्ल्स फेल्प्स टैफ्ट विशिष्ट शोध प्रोफेसर के रूप में कार्य कर रही हैं। इसके साथ ही वह महिला, जेंडर और सेक्सुअलिटी के एशियाई अध्ययन कार्यक्रमों से भी एक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं।
हाल ही में डॉक्टर शैलजा को उनके जाति, जेंडर और सेक्सुअलिटी के इन्टरसेक्शन में किये गहन शोध कार्य के लिए प्रतिष्ठित मैकआर्थर फेलोशिप सम्मान मिला हैं। वह मैकआर्थर फेलोशिप प्राप्त करने वाली पहली दलित भारतीय महिला इतिहासकार हैं। इस फेलोशिप के तहत उन्हें 800,000 डॉलर की धनराशि भी मिली है।
सीमा बावा
प्रोफेसर सीमा बावा प्राचीन भारतीय कला इतिहास की एक प्रतिष्ठित इतिहासकार हैं। उन्होंने प्रारंभिक भारतीय कला जैसे मूर्तिकला और वास्तुकला आदि में जेंडर और सेक्सुअलिटी के परिप्रेक्ष्य से गहन शोध कार्य किया है। उनका काम प्रारंभिक भारत में धर्म, जेंडर और कला के अंतर्संबंधों की गहराई से पड़ताल करता है। उनका शोध यह दिखाता है कि प्राचीन भारतीय मूर्तियों में पुरुष और महिला की यौन अभिव्यक्ति किस प्रकार भिन्न है। प्राचीन कला में लैंगिक और यौन अभिव्यक्तियों के माध्यम वह यह दिखाती हैं कि आज के समाज में भी ये बातें मौजूद हैं, और महिलाएं, चाहे किसी भी पेशे में हों, पुरुषों की तुलना में अलग-अलग तरीक़ों से यौनिक रूप में देखी जाती रही हैं। प्रोफेसर बावा ने भारतीय कला इतिहास को जेंडर के दृष्टिकोण से समझाने के लिए कई महत्वपूर्ण लेखन काम किए हैं।
उनकी प्रमुख किताबें, गॉड्स, मेन एंड वूमन: जेंडर एंड सेक्शुअलिटी इन अर्ली इंडियन आर्ट,लोकेटिंग प्लेज़र इन इंडियन हिस्ट्री: प्रिस्क्राइब्ड एंड प्रोसक्राइब्ड इन विज़ुअल एंड लिटरेरी कल्चर्स और रिलिज़न एंड आर्ट ऑफ़ द चंबा वैली आदि हैं। प्रोफेसर बावा को बॉन विश्वविद्यालय, जर्मनी में अध्ययन के लिए डीएएडी फेलोशिप से सम्मानित किया जा चुका है। वह अखबारों और विशिष्ट पत्रिकाओं के लिए लिखती हैं और उन्होंने ललित कला अकादमी में “शतद्रु: भारतीय कला में स्त्री संवेदनाएं ” जैसी प्रदर्शनियों का संयोजन किया है, जिसे ललित कला अकादमी में प्रस्तुत किया गया था। उन्होंने कला पत्रिका ‘एआरटाइम्स’ का संपादन भी किया है। वर्तमान में वह दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्राचीन भारतीय कला इतिहास की असोशीएट प्रोफेसर हैं और इससे पहले वह विभागाध्यक्ष भी रह चुकी हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध कई प्रमुख कॉलेजों में अनेक सालों तक अध्यापन किया है। वह आज भी कला, जेंडर और इतिहास के बीच संबंधों पर शोध कर रही हैं।

