इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे सोशल मीडिया ने नारीवाद को दिया नया रूप और किया विस्तार

कैसे सोशल मीडिया ने नारीवाद को दिया नया रूप और किया विस्तार

सोशल मीडिया ने भारत में नारीवादी आंदोलन को कई तरीके से बदल दिया है, अब यह कक्षाओं और सड़कों के किनारों से निकलकर हमारी स्क्रीन तक पहुंच गया है। #MeToo, पिंजरा तोड़, और हैप्पी टू ब्लीड जैसे अभियानों ने सिर्फ़ ट्रेंड नहीं किया, बल्कि भारत में सुरक्षा, शर्म और शक्ति को देखने का नज़रिया भी बदल दिया।

सोशल मीडिया ने न केवल हमारी बातचीत, मनोरंजन और सामाजिक दायरे को बदलने का काम किया है बल्कि समय के साथ यह हमारी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा बनता जा रहा है। इसकी भूमिका इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि आज का दौर सोशल मीडिया का दौर कहा जा सकता है। हमारे खाने-पीने, घूमने यहां तक की सरकार बनाने तक में सोशल मीडिया का असर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में नारीवादी आंदोलनों पर भी इसका अच्छा ख़ासा असर देखा जा सकता है। पहले जहां ऐसे आंदोलन स्थानीय संगठनों, अख़बार, पत्रिकाओं और साहित्यिक मंचों तक सीमित थे वे आज इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, ट्विटर (एक्स), यूट्यूब के माध्यम से देश दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रहे हैं। इसका असर यह हुआ है कि छोटे शहरों, कस्बों और गांवों की महिलाएं भी अब अपने विचार, संघर्ष और कहानियां इन डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स के सहारे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों पहुंचा रही हैं। इससे न सिर्फ़ समाज में तेजी जागरूकता फैल रही है बल्कि बदलाव की दिशा में समावेशिता भी बढ़ रही है।

डिजिटल युग में नारीवादी आंदोलन

ग्लोबलाइजेशन ने पूरी दुनिया को एक साथ लाने के लिए साझा मंच दिया है और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स इसके लिए सशक्त माध्यम का काम कर रहे हैं। सोशल मीडिया ने नारीवादी आंदोलन को आसान बनाया है। अब इसमें शहरी उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोगों का ही प्रभुत्व नहीं रहा बल्कि समाज के हर तबके ख़ासकर हाशिए पर मौजूद लोगों को भी अपनी बात रखने का मौका मिल रहा है। प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के अनुसार देश में लगभग 100 करोड़ (1002.85 मिलियन) से ज़्यादा इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं।  सोशल मीडिया ने इन आंदोलन को और लोकतांत्रिक बनाने का काम किया है जहां सब की आवाज़ सुनी जा सके। सोशल मीडिया ने देश और समाज की सीमाओं को ख़त्म कर अंतर्राष्ट्रीय नारीवादी नेटवर्क को बढ़ावा दिया है। जिससे इन डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स का इस्तेमाल कर एकजुटता बढ़ाई जा सके।

इस डिजिटल युग की एक और ख़ास बात है जेंडर बाइनरी के पार फैली एकजुटता। अब कई पुरुष और गैर-बाइनरी क्रिएटर्स भी नारीवादी विमर्श में शामिल हो रहे हैं, अपने प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल पितृसत्ता को चुनौती देने, सुनने और सहयोग करने के लिए कर रहे हैं। यह सहयोग दिखाता है कि नारीवाद अब न्याय और समानता की साझा भाषा बन चुका है।

सोशल मीडिया आंदोलन को बड़े जैन समूह तक पहुंचने में अहम भूमिका निभा रहा है। 2014 में जब अमेरिका में #FeministsAreUgly हैशटैग चलाया गया तो यह उस मानसिकता पर व्यंग्य था जिसके तहत यह माना जाता है कि नारीवादी सुंदर नहीं होते। इसके माध्यम से दुनिया भर में सुंदरता के प्रचलित मापदंडों पर बड़े पैमाने पर विमर्श शुरू हो गया और बॉडी शमिंग के ख़िलाफ़ जागरूकता भी बढ़ी। इसी तरह साल 2017 में अमेरिकी कार्यकर्ता तराना बर्क के द्वारा शुरू किया गया #Metoo आंदोलन ने ट्विटर (अब एक्स) के ज़रिए पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। फिर बहुत सारी महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन हिंसा के ख़िलाफ़ खुल कर बोलना और लिखना शुरू किया तो बहुत सारे जाने माने सेलिब्रिटीज के नाम सामने आने लगे। सोशल मीडिया के माध्यम से सक्रिय #Whyloiter आन्दोलन ने सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की उपस्थिति और भागीदारी की बात की। इसी तरह हॉस्टल और पीजी में महिला छात्राओं के साथ भेदभावपूर्ण सख़्त नियमों के ख़िलाफ़ #Pinjratod आन्दोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही देश भर में फैल सका। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इनके बारे में विमर्श शुरू हुआ।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रकाशित प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के अनुसार 39 फ़ीसद इंटरनेट यूजर सोशल मीडिया पर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर सक्रिय हैं, जिसमें से 45 फ़ीसद यूजर्स 18 से 29 साल की आयु वर्ग के बीच के हैं। शुरुआत में नारीवादी आंदोलनों में पश्चिमी देशों का दबदबा था और भारत जैसे थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज की महिलाओं को कमज़ोर माना जाता था। लेकिन जैसे-जैसे इन विकासशील देशों की महिलाओं तक डिजिटल पहुंच बढ़ी नारीवादी आंदोलनों का स्वरूप और व्यापक होता गया। अब अलग-अलग देशों, नस्लों, वर्गों, समुदायों और संस्कृतियों की महिलाओं की आवाज़ें भी नारीवादी विमर्श का हिस्सा बन रही हैं। सोशल मीडिया जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स का इस्तेमाल करने वाले नारीवादी आंदोलनों को फोर्थ वेव ऑफ़ फेमिनिज्म (नारीवाद की चौथी लहर) कहा जाता है, जो डिजिटल भागीदारी, समावेशिता और इंटरसेक्शनैलिटी पर आधारित है। यानी इसमें जेंडर बाइनरी से ऊपर उठकर सभी जेंडर्स और सेक्शुअल ओरिएंटेशन वाले लोगों को भी शामिल किया गया है।

साल 2017 में अमेरिकी कार्यकर्ता तराना बर्क के द्वारा शुरू किया गया #Metoo आंदोलन ने ट्विटर (अब एक्स) के ज़रिए पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। फिर बहुत सारी महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन हिंसा के ख़िलाफ़ खुल कर बोलना और लिखना शुरू किया तो बहुत सारे जाने माने सेलिब्रिटीज के नाम सामने आने लगे।

सोशल मीडिया और नारीवाद के बारे में इनफ्लुएंसर मानसी सिंह का कहना है, “सोशल मीडिया ने भारत में नारीवादी आंदोलन को कई तरीके से बदल दिया है, अब यह कक्षाओं और सड़कों के किनारों से निकलकर हमारी स्क्रीन तक पहुंच गया है। #MeToo, पिंजरा तोड़, और हैप्पी टू ब्लीड जैसे अभियानों ने सिर्फ़ ट्रेंड नहीं किया, बल्कि भारत में सुरक्षा, शर्म और शक्ति को देखने का नज़रिया भी बदल दिया। साथ ही यह बदलाव अब सिर्फ़ शहरी या पढ़े-लिखे वर्ग तक सीमित नहीं है। इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के साथ अब छोटे शहरों और गाँवों की महिलाएं भी अपनी आवाज़ उठा रही हैं। वे अपने अनुभव सोशल मीडिया पर साझा कर रही हैं। वह जगह जो पहले अंग्रेज़ी बोलने वाले ऊँची जाति के समूहों तक ही सीमित थी। हालांकि पहुंच अब भी जाति और वर्ग से प्रभावित तो होती ही है, फिर भी यह एक बड़ा बदलाव है। यह फैलाव हमें उस ऐतिहासिक दौर की याद दिलाता है, जब ‘स्वतंत्रता’ और ‘लोकतंत्र’ जैसे विचार यूरोप से निकलकर भारत पहुंचे थे और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा दी थी। उसी तरह आज इंटरनेट ने नारीवादी सोच को सीमाओं से बाहर निकालकर छोटे कस्बों और स्थानीय भाषाओं तक पहुंचा दिया है।”

वह आगे कहती हैं, “जैसाकि निवेदिता मेनन कहती हैं, नारीवाद कोई एक क्षण नहीं बल्कि देखने का एक तरीका है। अब इंटरनेट ने इस नज़र को और व्यापक बना दिया है. इसमें वह ग्रामीण लड़की भी शामिल है जो स्मार्टफ़ोन से बोल रही है, वह दलित छात्रा जो रील्स के ज़रिए सवाल पूछ रही है और वह गृहिणी जो अपने श्रम की कहानी साझा कर रही है। इस डिजिटल युग की एक और ख़ास बात है जेंडर बाइनरी के पार फैली एकजुटता। अब कई पुरुष और गैर-बाइनरी क्रिएटर्स भी नारीवादी विमर्श में शामिल हो रहे हैं, अपने प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल पितृसत्ता को चुनौती देने, सुनने और सहयोग करने के लिए कर रहे हैं। यह सहयोग दिखाता है कि नारीवाद अब न्याय और समानता की साझा भाषा बन चुका है। हालांकि इस नए सार्वजनिक स्थान की अपनी चुनौतियां भी हैं। बढ़ते ट्रोल्स, ऑनलाइन हिंसा और निगरानी पर इस सबके बीच भी महिलाएं बोल रही हैं और डटी हुई हैं। सोशल मीडिया अब सड़क की राजनीति का अंत नहीं, बल्कि उसका नया रूप है। पहले से कहीं ज़्यादा व्यापक, बहुभाषी और परिवर्तनकारी है।”

सोशल मीडिया के फ़ेमिनिस्ट इन्फ्लुएंसर्स और कॉन्टेंट क्रिएटर 

इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स महिलाओं के अधिकार लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे उठाने के लिए सशक्त माध्यम का काम कर रहे हैं। अब सोशल मीडिया सिर्फ़ मनोरंजन और कनेक्टिविटी तक सीमित नहीं है बल्कि लोगों के विचारों अनुभवों और भावनाओं को घर-घर तक पहुंचाने का काम कर रहा है। ऐसे में ये कॉन्टेंट क्रिएटर अपने पोस्ट्स, रील्स, वीडियोज, पॉडकास्ट और व्लॉग के ज़रिए लैंगिक भेदभाव, हिंसा और पितृसत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं। ख़ासतौर पर आज की जेनरेशन जो प्रिंट मीडिया से ज़्यादा डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स का इस्तेमाल करती है। रील्स और शॉर्ट वीडियोज की लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे में फ़ेमिनिस्ट इन्फ्लुएंसर्स और कॉन्टेंट क्रिएटर्स इसका इस्तेमाल लोगों तक जागरूकता फैलाने के लिए कर रहे हैं।

भारत में बहुत से फेमिनिस्ट इन्फ्लुएंसर्स जैसे कुषा कपिला, रेंटिंग गोला की शमिता यादव, मुस्कान मदान, निष्ठा बेरी, रिया, मानसी सिंह, विभूति भूषण और विपिन यादव ने अपने अनोखे और चुटीले अंदाज़ से न सिर्फ़ नारीवादी आंदोलन को नया रूप दिया है बल्कि ये फ़ेमिनिज़्म को आम जनता तक पहुंचाने का काम भी कर रहे हैं। टेक्नो सेवी जेन ज़ी तो ख़ासतौर पर इनके अनोखे अंदाज़ का कायल है। कभी मज़ाक़िया अंदाज़ में तो कभी गंभीर तरीके से इन्होंने लैंगिक भेदभाव, यौन उत्पीड़न, पितृसत्ता और ग़ैरबराबरी जैसे मुद्दों को सामने लाने का काम किया है। आम बोलचाल की भाषा में गंभीर मुद्दों को भी ये जिस क्रिएटिविटी से पेश करते हैं वह काफी असरदार होता है जो लोगों के दिल में उतर जाता है।

इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स महिलाओं के अधिकार लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे उठाने के लिए सशक्त माध्यम का काम कर रहे हैं। अब सोशल मीडिया सिर्फ़ मनोरंजन और कनेक्टिविटी तक सीमित नहीं है बल्कि लोगों के विचारों अनुभवों और भावनाओं को घर-घर तक पहुंचाने का काम कर रहा है।

इस बारे में समाज का सच नाम के यूट्यूब चैनल के माध्यम से सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय फ़ेमिनिस्ट एक्टिविस्ट शशि कुशवाहा कहती हैं, “डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने एक्टिविज़्म को सिर्फ़ शहरी या पढ़े-लिखे वर्ग तक सीमित नहीं रखा। छोटे शहरों और गाँवों से भी लोग अब ऑनलाइन अभियानों का हिस्सा बन रहे हैं। सोशल मीडिया के वीडियो फॉर्मेट्स, हैशटैग कैंपेन और लाइव सेशंस ने युवाओं को अपने-अपने मुद्दों पर सीधी भागीदारी का मौका दिया है। भारत में करीब 95 करोड़ इंटरनेट यूजर हैं और इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। यही डिजिटल आबादी किसी भी सामाजिक मुद्दे को वायरल बना देती है। ये मीडिया अब केवल ख़बरें नहीं दिखाता, यह आंदोलन खड़ा करता है, सोच बदलता है। जलवायु संकट से लेकर महिला सुरक्षा, मानसिक स्वास्थ्य, पशु अधिकार या एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों जैसे विषय अब कुछ लोगों की नहीं, बल्कि पूरे देश के संवाद का हिस्सा बन गए हैं।”

सोशल मीडिया पर नारीवादी आंदोलन की चुनौतियां

सोशल मीडिया ने नारीवादी आंदोलनों को नई ऊर्जा दी है, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियां भी आई हैं। एल्गोरिदम अब यह तय करते हैं कि कौन-सा कॉन्टेंट वायरल होगा और कौन नज़रअंदाज़। गहराई वाले मुद्दों की बजाय अक्सर सनसनीखेज़ सामग्री को बढ़ावा मिलता है, जिससे असल बहसें पीछे छूट जाती हैं। वहीं, जैसे नारीवादी सोशल मीडिया का इस्तेमाल समानता और न्याय की आवाज़ उठाने में करते हैं, वैसे ही पितृसत्तात्मक और स्त्रीद्वेषी समूह भी अपने एजेंडे को फैलाने में इसका उपयोग करने लगे हैं।

डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने एक्टिविज़्म को सिर्फ़ शहरी या पढ़े-लिखे वर्ग तक सीमित नहीं रखा। छोटे शहरों और गाँवों से भी लोग अब ऑनलाइन अभियानों का हिस्सा बन रहे हैं। सोशल मीडिया के वीडियो फॉर्मेट्स, हैशटैग कैंपेन और लाइव सेशंस ने युवाओं को अपने-अपने मुद्दों पर सीधी भागीदारी का मौका दिया है।

इसके अलावा, इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन की सीमित पहुंच, खासकर ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं के बीच, डिजिटल भेदभाव को और गहरा करती है। सबसे गंभीर चुनौती है ऑनलाइन ट्रोलिंग और साइबर बुलीइंग जहां महिला क्रिएटर्स और एक्टिविस्ट्स को निजी हमले, धमकियां और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। कई बार यह हिंसा ऑनलाइन से निकलकर उनके निजी जीवन तक पहुंच जाती है। यह न सिर्फ़ उनकी मानसिक सेहत को प्रभावित करती है, बल्कि डिजिटल स्पेस को असुरक्षित भी बना देती है।

क्या हो सकता है आगे का रास्ता 

सोशल मीडिया और नारीवाद का संगम भारत में एक नई डिजिटल क्रांति का प्रतीक है। इसके ज़रिए फ़ेमिनिस्ट इन्फ्लुएंसर्स और क्रिएटर्स न केवल अपने विचार साझा कर रहे हैं, बल्कि समाज में जागरूकता और बदलाव की लहर भी ला रहे हैं। खासकर युवाओं में इसकी लोकप्रियता ने नारीवादी विमर्श को नया आयाम दिया है। हालांकि, इस रास्ते में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। ऑनलाइन ट्रोलिंग, स्त्रीद्वेषी टिप्पणियां और फ़ेक कॉन्टेंट जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। ज़रूरत है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स महिलाओं के लिए सुरक्षित और समावेशी स्पेस बनें। ट्रोलिंग और घृणास्पद सामग्री पर रोक के लिए मज़बूत एल्गोरिदम और गाइडलाइन तय की जाएं। अगर तकनीक का इस्तेमाल जिम्मेदारी से किया जाए और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स जवाबदेह बनें, तो यही सोशल मीडिया समानता, स्वतंत्रता और न्याय की दिशा में असली परिवर्तन का माध्यम बन सकता है।

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