प्रेस की आज़ादी किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होती है। एक स्वतंत्र मीडिया सत्ता से सवाल करता है, नागरिकों तक सही जानकारी पहुंचाता है और जनमत को आकार देता है। लेकिन जब पत्रकारों पर हमले बढ़ते हैं, रिपोर्टिंग को रोका जाता है और सच्चाई को दबाया जाता है, तो लोकतंत्र कमज़ोर होता है। भारत जैसे विशाल और विविध देश में प्रेस की स्वतंत्रता का सवाल और भी अहम हो जाता है। एक ऐसे समय में जब आर्टिफिशियल इन्टेलिजन्स का युग आ चुका है और लोगों तक व्यापक रूप से गलत सूचनाएं जा रही हैं, तब मीडिया की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। हाल ही में जारी हुए दक्षिण एशिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2024–25 भारत में मीडिया की स्थिति को लेकर कई गंभीर सवाल उठाती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे सरकारी सेंसरशिप, डिजिटल निगरानी, सोशल मीडिया ट्रोलिंग और कॉरपोरेट दखल के ज़रिए पत्रकारों को चुप कराने की कोशिशें हो रही हैं।
भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, लेकिन क्या यह स्तंभ वास्तव में स्वतंत्र है? इस सवाल पर आज कई गंभीर बहसें हो रही हैं। पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य है कि सच्चाई के साथ खड़ा होना और आम जनता की आवाज़ बनना। लेकिन भारत में मीडिया की स्वतंत्रता लगातार कमजोर हो रही है, जिससे यह उद्देश्य प्रभावित हो रहा है। पत्रकारिता की आज़ादी सिर्फ पत्रकारों की स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) की रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले 12 वर्षों में यह साफ़ देखने को मिला है कि सरकारें और बड़ी-बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के मालिक मीडिया को अपने हितों के अनुसार नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं।
दक्षिण एशिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2024–25 भारत में मीडिया की स्थिति को लेकर कई गंभीर सवाल उठाती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे सरकारी सेंसरशिप, डिजिटल निगरानी, सोशल मीडिया ट्रोलिंग और कॉरपोरेट दखल के ज़रिए पत्रकारों को चुप कराने की कोशिशें हो रही हैं।
क्या बताती है रिपोर्ट
दक्षिण एशिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट 2024–25 के अनुसार, भारत अब चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन चुका है, जहां इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या सबसे अधिक है। देश में 80 करोड़ से ज़्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। जनवरी 2025 तक, 33 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। रिपोर्ट बताती है कि डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ओटीटी सेवाओं पर भी सरकारी नियंत्रण बढ़ाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर पोस्ट की निगरानी की जा रही है, खासकर तब जब कोई पोस्ट सरकार, किसी धार्मिक हिंसा या जातिगत हिंसा को रिपोर्ट करती है।

ऐसे पोस्टों को या तो हटा दिया जाता है, या संबंधित अकाउंट को बंद कर दिया जाता है। यह सिर्फ ऑनलाइन सेंसरशिप तक सीमित नहीं है। कई पत्रकारों को इन पोस्टों के कारण डराया-धमकाया जाता है, उनके खिलाफ केस दर्ज किए जाते हैं। अमूमन इस कारण मीडिया से जुड़े लोगों के बीच डर और असुरक्षा का माहौल बन रहा है। रिपोर्ट यह भी दिखाती है कि भारत में इंटरनेट बंद करने के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। संघर्ष, विरोध-प्रदर्शन, अस्थिरता, धार्मिक हिंसा, परीक्षाओं में नकल रोकने और चुनावों के दौरान इंटरनेट सेवाएं बंद की जाती हैं। इस मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है।
अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को पत्रकारिता की आज़ादी के मामले में 180 देशों की सूची में 151वें स्थान पर रखा गया है। पिछले वर्ष भारत का स्थान 159वां था। रैंकिंग में थोड़ा सुधार भले हुआ है, लेकिन ज़मीनी हालात में कोई ठोस बदलाव नहीं आया है। पत्रकारों के लिए भारत अब भी एक मुश्किल और असुरक्षित देश बना हुआ है। जब कोई पत्रकार या मीडिया संस्थान सरकार की किसी गलत नीति, धार्मिक हिंसा या मानवाधिकार उल्लंघन पर सवाल उठाता है, तो उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आज रिपोर्टिंग करने की स्वतंत्रता लगभग कागज़ों तक सीमित रह गई है।
अगस्त 2024 में जारी एक रिपोर्ट अनुसार, 60 फीसद से अधिक महिला पत्रकारों ने बताया कि उन्हें जेंडर के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। वहीं, 80 फीसद पुरुष पत्रकारों का कहना था कि उन्हें इस तरह के किसी भेदभाव का अनुभव नहीं हुआ।
पत्रकारों की सुरक्षा है एक गंभीर मुद्दा
पत्रकारों की सुरक्षा अब एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आईएफजे की रिपोर्ट ‘दक्षिण एशिया प्रेस स्वतंत्रता रिपोर्ट 2024–2025’ के अनुसार भारत में मीडिया की आज़ादी पर गहरा संकट बना हुआ है। रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2024–2025 के बीच पत्रकारिता से जुड़े अधिकारों के उल्लंघन के लगभग 250 मामले दर्ज किए गए हैं। इनमें कम से कम 20 पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की हत्या शामिल है। यह आंकड़ा पिछले साल की 8 हत्याओं की तुलना में तीन गुना अधिक है। इसके अलावा, 70 से अधिक पत्रकारों को जेल में बंद किया गया और 190 से ज्यादा पत्रकारों को धमकी या हिंसा का सामना करना पड़ा। इन आंकड़ों से साफ है कि भारत अब पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक बन गया है।
रिपोर्टिंग के दौरान हमलों में बढ़ोतरी

रिपोर्ट में ऐसे कई मामलों का ज़िक्र किया गया है, जिनमें पत्रकारों पर काम के दौरान हमले किए गए। 1 अगस्त, 2024 को मणिपुर के इंफाल ईस्ट ज़िले में पत्रकार एम. रमेश चंद्र एक रैली की रिपोर्टिंग कर रहे थे, तभी एक पुलिसकर्मी ने उन पर बेरहमी से हमला किया। 18 दिसंबर, 2024 को असम के गुवाहाटी में प्रदर्शन रैली की रिपोर्टिंग करते समय पुलिस ने पत्रकारों पर आंसू गैस छोड़ी। वहीं 1 जनवरी, 2025 को छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में एक निर्माण घोटाले का खुलासा किया था। रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे ठेकेदार सुरेश चंद्राकर ने 50 करोड़ की लागत वाले सड़क निर्माण कार्य को 120 करोड़ में दिखाया था। पत्रकार मुकेश ने इस भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग की जिसके लिए उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी।
रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2024–2025 के बीच पत्रकारिता से जुड़े अधिकारों के उल्लंघन के लगभग 250 मामले दर्ज किए गए हैं। इनमें कम से कम 20 पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की हत्या शामिल है।
कार्यस्थल पर महिला पत्रकारों के साथ हिंसा और भेदभाव
महिला पत्रकारों को अपने कार्यस्थल पर कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की साल 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है। लैंगिक समानता के मामले में भारत 146 देशों में 129वें स्थान पर है। रिपोर्ट बताती है कि भारत अब तक केवल 64 फीसद जेंडर गैप ही खत्म कर पाया है। दक्षिण एशिया में भारत अपने पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान से पीछे है। मीडिया संस्थानों में निर्णायक पदों पर महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। वरिष्ठ और नेतृत्व वाले पदों पर महिलाएं एक चौथाई से भी कम हैं। पत्रकार संगठनों की नेतृत्वकारी भूमिकाओं में भी उनकी भागीदारी बेहद सीमित है। अगस्त 2024 में जारी एक रिपोर्ट अनुसार, 60 फीसद से अधिक महिला पत्रकारों ने बताया कि उन्हें जेंडर के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। वहीं, 80 फीसद पुरुष पत्रकारों का कहना था कि उन्हें इस तरह के किसी भेदभाव का अनुभव नहीं हुआ।

महिला पत्रकारों को फील्ड रिपोर्टिंग के दौरान भी कई बार यौन हिंसा और शोषण जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जब वे पितृसत्तात्मक ढांचे पर सवाल उठाती हैं या सरकार की नीतियों की आलोचना करती हैं, तब उन्हें सोशल मीडिया पर यौन हिंसा और हत्या की धमकियों का सामना करना पड़ता है। उनके लिए काम का जोखिम अपने समकक्षों की तुलना में कहीं ज़्यादा होता है। अक्सर उन्हें कमतर समझा जाता है और उनके पेशेवर योगदान को हल्के में लिया जाता है।
1 अगस्त, 2024 को मणिपुर के इंफाल ईस्ट ज़िले में पत्रकार एम. रमेश चंद्र एक रैली की रिपोर्टिंग कर रहे थे, तभी एक पुलिसकर्मी ने उन पर बेरहमी से हमला किया। 18 दिसंबर, 2024 को असम के गुवाहाटी में प्रदर्शन रैली की रिपोर्टिंग करते समय पुलिस ने पत्रकारों पर आंसू गैस छोड़ी।
पत्रकारिता में एआई का इस्तेमाल और सोशल मीडिया पर असर
आज पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। एआई का उपयोग खबरें लिखने, विज्ञापन बनाने और कंटेंट को बूस्ट करने के लिए किया जा रहा है। इससे काम जल्दी और तकनीकी रूप से आसान ज़रूर हो गया है, लेकिन इससे कई गंभीर सवाल भी उठ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या एआई से तैयार की गई सामग्री भरोसेमंद और निष्पक्ष हो सकती है? पत्रकारिता का मकसद सिर्फ कंटेंट बनाना नहीं, बल्कि सटीक और ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग करना होता है। एआई से यह ज़रूरी मानवीय दृष्टिकोण और संवेदनशीलता अक्सर गायब होती है।

सोशल मीडिया के साथ मिलकर एआई का प्रभाव और भी जटिल हो जाता है। झूठी खबरें, भ्रामक प्रचार और हेट स्पीच को फैलाने में एआई की भूमिका चिंता का विषय है। इसके अलावा, ऑडियंस तक पहुंचने के लिए एल्गोरिदम पर निर्भरता बढ़ गई है, जिससे पत्रकारिता की स्वतंत्रता प्रभावित होती है। इसलिए, ज़रूरी है कि एआई का इस्तेमाल जिम्मेदारी से किया जाए और पत्रकारिता में मानवीय मूल्य, संवेदनशीलता और सत्यनिष्ठा को प्राथमिकता दी जाए।
1 जनवरी, 2025 को छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में एक निर्माण घोटाले का खुलासा किया था।
चुनावी राजनीति में एआई और सोशल मीडिया की भूमिका
2024 के चुनावों में राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया, एआई और इन्फ्लुएंसर्स का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी इस डिजिटल प्रचार में सबसे आगे रही, जबकि अन्य पार्टियां भी सोशल मीडिया टीमों के ज़रिये अपनी पकड़ मजबूत कर रही हैं। चुनाव प्रचार के लिए एआई कंटेंट पर करीब 400 करोड़ रुपये खर्च किए गए। सस्ते इंटरनेट और स्मार्टफोन की मदद से दल यूट्यूब-इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर स्थानीय इन्फ्लुएंसर्स के माध्यम से जनता से सीधे जुड़ रहे हैं। हालांकि, इससे फेक न्यूज़ का खतरा भी बढ़ा है। रिपोर्ट बताती है कि 77 फीसद गलत जानकारी सोशल मीडिया के ज़रिये फैलाई जा रही है। एआई के बढ़ते इस्तेमाल से पत्रकारों की मेहनत और ग्राउंड रिपोर्टिंग की अहमियत कम हो रही है। साथ ही, डेटा सुरक्षा को लेकर भी चिंता बढ़ी है।
ऐसे में ज़रूरी है कि एआई का इस्तेमाल ज़िम्मेदारी से हो, ताकि पत्रकारिता की निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुरक्षित रह सके। यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि भारत में पत्रकारिता की आज़ादी गंभीर संकट में है। मीडिया की दुनिया अभी भी पितृसत्ता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। साथ ही, सोशल मीडिया और एआई का बढ़ता दखल पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्यों को चुनौती दे रहा है। यह लड़ाई केवल पत्रकारों की नहीं, बल्कि हर उस नागरिक की है जो लोकतंत्र, सच्चाई और अभिव्यक्ति की आज़ादी में विश्वास रखता है। जरूरी है कि पत्रकारिता को हर समुदाय, जाति, वर्ग और पहचान से आने वाले लोगों के लिए सुरक्षित और सुलभ बनाया जाए।