समाजकैंपस समावेशी शिक्षा से असुरक्षित माहौल तक: जेएनयू में घटती छात्राओं की हिस्सेदारी की कहानी

समावेशी शिक्षा से असुरक्षित माहौल तक: जेएनयू में घटती छात्राओं की हिस्सेदारी की कहानी

रिपोर्ट के मुताबिक महिला विद्यार्थियों की संख्या जहां साल 2016-17 में 51.1 फीसदी थी, वह आज कुल बहुमत से घटकर साल 2024-25 में आधे से भी कम यानी 43.1 फीसदी रह गई है। इसके साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) विद्यार्थियों की संख्या और महिला शिक्षिकों की संख्या में भी कमी दिखाई दी है। रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च, 2025 तक जेएनयू में 208 महिला संकाय सदस्य थी, जो कुल 700 संकाय सदस्यों का महज 29.7 फीसदी है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय (जेएनयू) वो विश्वविधालय है जो अपने समावेशी माहौल के लिए पूरे देश में जाना जाता है। यह समय-समय पर विद्यार्थियों के ही नहीं आम जनता के बुनियादी अधिकारों जैसे शिक्षा, सुरक्षा और स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के लिए आवाज़ उठाने और छात्र आंदोलन के लिए राष्ट्रीय मीडिया से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तक चर्चा का विषय बना रहता है। यह वही विश्वविधालय है जहां छात्राएं भी छात्रों की ही तरह पढ़ने से लेकर स्टूडेंट राजनीति करने तक यूनिवर्सिटी में एक समान दिखाई देती रही हैं। लेकिन, हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) की जारी रिपोर्ट ने कुछ चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्राओं की संख्या में भारी गिरावट आई है जो बहुमत से कम होकर कुल विद्यार्थियों के संख्या के आधे से भी कम रह गई हैं। रिपोर्ट के मुताबिक महिला विद्यार्थियों की संख्या जहां साल 2016-17 में 51.1 फीसदी थी, वह आज कुल बहुमत से घटकर साल 2024-25 में आधे से भी कम यानी 43.1 फीसदी रह गई है।

इसके साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) विद्यार्थियों की संख्या और महिला शिक्षिकों की संख्या में भी कमी दिखाई दी है। रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च, 2025 तक जेएनयू में 208 महिला संकाय सदस्य थी, जो कुल 700 संकाय सदस्यों का महज 29.7 फीसदी है। वहीं वह प्रतिशत 31 मार्च, 2022 को 30 फीसदी से कम था और 31 मार्च, 2016 को 30.9 फीसदी से भी कम पाया गया। लेकिन, जेएनयू में छात्राओं की संख्या में भारी कमी के पीछे के कई बुनियादी जमीनी कारण हैं। जेएनयूटीए के विश्वविद्यालय की स्थिति नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार, महिला विद्यार्थियों की संख्या में कमी के पीछे कई कारण हैं। इसमें से एक मुख्य कारण जेएनयू के खुद के प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की प्रणाली और पीएचडी यानी शोध कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए छात्राओं को मिलने वाले डेप्रिव़ेशन पॉइंट को खत्म करना है।

रिपोर्ट के मुताबिक महिला विद्यार्थियों की संख्या जहां साल 2016-17 में 51.1 फीसदी थी, वह आज कुल बहुमत से घटकर साल 2024-25 में आधे से भी कम यानी 43.1 फीसदी रह गई है।

रिपोर्ट यह दावा करती है कि यह दोनों ही छात्राओं की बराबर भागेदारी बनाए रखने में अहम भूमिका रखते हैं। रिपोर्ट जेएनयू के जेन्डर सेंसिटाइजेसन कमिटी अगैन्स्ट सेक्शुअल हरासमेंट (जीएस सीएएसएच) को जेएनयू का साल 2017 में खत्म करने को भी जिम्मेदार मानती है। रिपोर्ट के अनुसार, जीएस सीएएसएच की जगह विश्वविद्यालय का आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) को लाने के कारण महिलाओं की सुरक्षा में कमी हुई है जिसके कारण यौन हिंसा के मामले बढ़े हैं। साथ ही यौन हिंसा करने वालों के लिए आईसीसी में दंड से मुक्ति आसान है। इस कारण विश्वविधालय परिसर छात्राओं के लिए असुरक्षित होता जा रहा है। आईसीसी में यौन हिंसा मामलों की रिपोर्ट करने वालों में भी कमी आई है। जेएनयू में छात्राओं की कम होती संख्या और असुरक्षित माहौल को लेकर सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज की पीएचडी स्कालर शिखा (नाम बदला हुआ) बताती हैं, “मैं जेएनयू में साल 2015-16 से हूं। जब से यहां हूं, तब लड़कियों की संख्या लड़कों के बराबर थी। अब उनकी संख्या में कमी में, देरी से स्कालर्शिप मिलने से लेकर कम बच्चों को स्कालर्शिप मिलने के साथ-साथ अलावा अन्य कारण भी शामिल हैं।”

तस्वीर साभार: राखी यादव

वह आगे कहती हैं, “एक मुख्य कारण परिसर का लड़कियों के लिए खराब और असुरक्षित होता माहौल भी है, जिसके लिए साल 2017 में जेएनयू के जीएस सीएएसएच खत्म करना जिम्मेदार है। इसके बाद से परिसर में लड़कियों के खिलाफ़ यौन हिंसा के केस ज्यादा हुए है। अगर मैं पहले की बात करूं तो मुझे खुद रात में निकलने में भी कभी असुरक्षित महसूस नहीं हुआ। लेकिन आज ऐसा माहौल नहीं रह गया है। वहीं दूसरी ओर लड़कियों को मिलने वाले डेप्रिव़ेशन पॉइंट को रिसर्च में दाखिले से खत्म करना भी एक अहम कारण हो सकता है। यह पॉइंट्स लड़कियों को खास करके उनकी जेएनयू में समान भागेदारी बनाये रखने के लिए खास करके दिए जाते थे। मुझे लगता जीएस सीएएसएच का खत्म होना जिसके चलते यूनिवर्सिटी में असुरक्षा का माहौल पेरेंट्स से लेकर छात्राओं में जेएनयू को लेकर संकोच और दुविधा पैदा करता है।” 

रिपोर्ट के अनुसार, जीएस सीएएसएच की जगह विश्वविद्यालय का आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) को लाने के कारण महिलाओं की सुरक्षा में कमी हुई है जिसके कारण यौन हिंसा के मामले बढ़े हैं। साथ ही यौन हिंसा करने वालों के लिए आईसीसी में दंड से मुक्ति आसान है। इस कारण विश्वविधालय परिसर छात्राओं के लिए असुरक्षित होता जा रहा है।

वहीं इसपर एसआईएस की पीएचडी स्कालर और आईसीसी की स्टूडेंट रेप्रिज़ेनटेटिव अदिति मिश्रा कहती हैं, “आईसीसी उस तरह से काम नहीं करता है जैसे उसे काम करना चाहिए। मैं जेएनयू में काफी लंबे वक्त से हूं। विश्वविद्यालय परिसर का माहौल आज छात्राओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है। हम बार- बार प्रशासन से परिसर में जीएस सीएएसएच लागू करने की मांग करते हैं और परिसर में जीएस सीएएसएच को लेकर जागरूकता के लिए पर्चे लगाते और बांटते हैं। मुझे लगता है कि जीएस सीएएसएच न होना और असुरक्षित परिसर एक कारण है। यूनिवर्सिटी परिसर में एक सुरक्षित माहौल के लिए जीएस सीएएसएच होना बहुत जरूरी है।”

रिपोर्ट के दूसरों कारणों जैसे जेएनयू के खुद की प्रवेश परीक्षा खत्म करने और सीयूटी के माध्यम से प्रवेश लेना से भी छात्राओं की संख्या में कमी आई है। इसपर जेएनयू के जाकिर हुसैन सेंटर फॉर एजुकेशनल स्टडीस की पीएचडी स्कालर शिवांगी (नाम बदला हुआ) कहती हैं, “इसको तो सही नहीं माना जा सकता है क्योंकि सीयूटी ने ग्रामीण परिवेश और स्टेट यूनिवर्सिटी से आने वाले स्टूडेंट्स को जेएनयू में पढ़ने का मौका दिया है। इसकी जगह लड़कियों के लिए असुरक्षित यूनिवर्सिटी परिसर के साथ ही खराब और असुरक्षित हॉस्टल इंफ्रास्ट्रक्चर कारण भी मुख्य है जिसके लिए यूनिवर्सिटी में फन्डिंग क्राइसिस जिम्मेदार है।”  रिपोर्ट के मुताबिक जेएनयू का कुल शैक्षणिक खर्चा (परीक्षा लागत को छोड़कर) साल 2015-16 के 30.28 करोड़ रुपये से घटकर 2024-25 में मात्र 19.29 करोड़ रुपये रह गया है,  जिसमें कुल 36.3 फीसद की कमी सामने आती है।

लड़कियों को मिलने वाले डेप्रिव़ेशन पॉइंट को रिसर्च में दाखिले से खत्म करना भी एक अहम कारण हो सकता है। यह पॉइंट्स लड़कियों को खास करके उनकी जेएनयू में समान भागेदारी बनाये रखने के लिए खास करके दिए जाते थे। मुझे लगता जीएस सीएएसएच का खत्म होना जिसके चलते यूनिवर्सिटी में असुरक्षा का माहौल पेरेंट्स से लेकर छात्राओं में जेएनयू को लेकर संकोच और दुविधा पैदा करता है।

छात्राओं की संख्या में कमी के कारण दूरगामी प्रभाव

जेएनयूटीए रिपोर्ट लैंगिक असमानता पर प्रकाश डालते हुए विश्वविद्यालय के छात्र समुदाय की सामाजिक संरचना में सुधार लाने और महिलाओं के अनुपात में वृद्धि करने को लेकर सामने रखती है कि इस संदर्भ में जेएनयू की बीते सालों की पिछली उपलब्धियां आज के समय में हासिल करना बहुत मुश्किल है। इनमें पहले जैसा सुधार लाने और उपलब्धि हासिल करने की बहुत ही कम उम्मीद है। रिपोर्ट दिखाती है कि महिला छात्रों की संख्या जहां साल 2016-17 में 51.1 फीसदी थी, वह आज 2024-25 में कुल बहुमत से घटकर आधे से भी कम यानी 43.1 फीसदी रह गई है। अगर ऐसे ही यह अंतर बढ़ता रहा और कायम रहा, तो जेएनयू में आने वाले समय में लड़कियां माइनॉरिटीज में भी हो सकती हैं। वहीं इस असमानता पर अगर समय रहते काम नहीं किया गया, तो जेएनयू में एक विशेष जेंडर का वर्चस्व हो सकता है।

इसपर बात करते हुए सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज के पीएचडी स्कालर डॉक्टर प्रकाश चन्द्र कहते हैं, “जेएनयू में लड़कियों की कम होती भागेदारी पर अगर समय रहते काम नहीं किया, तो वह जेएनयू जो अपने प्रोग्रेसीव होने का दावा करता है वहां आने वाले समय में लड़कियों की कम संख्या के कारण एक टाक्सिक माहौल बनेगा। लड़कियों पर टाक्सिक मैस्‌क्‍युलिनटि ज्यादा हावी होंगी। बहुत हद तक ऐसा माहौल आज भी यूनिवर्सिटी परिसर में साफ देखा जा सकता है, जो एक समावेशी परिवेश के लिए सही नहीं है।” हालांकि हिंदुस्तान टाइम्स की 9 अक्टूबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, जेएनयू की वर्तमान कुलपति शांतिश्री धुलीपुडी पंडित जेएनयूटीए की इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करने से इनकार करती और मानती हैं कि रिपोर्ट में बताया गया डेटा बहुत हद तक सही नहीं है।

जेएनयू का इतिहास हमेशा उसकी समावेशी और प्रगतिशील सोच के लिए जाना गया है। लेकिन हाल की रिपोर्ट बताती है कि अब यह चरित्र बदल रहा है। छात्राओं की संख्या घट रही है, महिला शिक्षकों की भागीदारी कम है और परिसर में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। यह सिर्फ जेएनयू की नहीं, बल्कि समाज में मौजूद लैंगिक असमानता की झलक है। अगर जेएनयू जैसे संस्थान में भी महिलाओं की भागीदारी घट रही है, तो यह उच्च शिक्षा के लोकतांत्रिक स्वरूप के लिए गंभीर संकेत है। अब ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्र समुदाय और सरकार मिलकर ठोस कदम उठाएं। महिलाओं की सुरक्षा, समान अवसर और शिक्षा में बराबर पहुंच सुनिश्चित की जाए। क्योंकि जब तक विश्वविद्यालयों में महिलाओं की बराबर भागीदारी नहीं होगी, तब तक समाज में सच्ची समानता संभव नहीं है।

Comments:

  1. Jatin Singh says:

    Well written, Rakhi ji. I really appreciate the student testimonies you have provided here to understand the depth of impact of less enrollment of female students in JNU and how, JNU is becoming a mirror of our society.

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