हाल ही में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (आईजेआर) की प्रकाशित अध्ययन ‘जुवेनाइल जस्टिस एंड चिल्ड्रन इन कनफ्लिक्ट विद दा लॉ: अ स्टडी ऑफ़ कैपेसिटी एट दा फ्रंटलाइन्स’ के अनुसार, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 (जेजेबी ऐक्ट) के एक दशक बीत जाने के बावजूद, 362 किशोर न्याय बोर्डों के समक्ष 1,00,904 मामलों में से आधे से अधिक यानी 55 फीसद लंबित हैं। इस अध्ययन के अनुसार लंबित मामलों का दर व्यापक रूप से भिन्न है। जहां यह ओडिशा में सब से ज्यादा 83 फीसद है, वहीं यह कर्नाटक में सबसे कम 35 फॉसद है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के उलट जेजेबी पर जानकारी का कोई केंद्रीय और सार्वजनिक भंडार नहीं है। अध्ययन के लिए, आईजेआर ने 21 राज्यों से 250 से ज़्यादा आरटीआई आवेदन और उनके जवाब प्राप्त किए, जिनसे पता चला कि 31 अक्टूबर, 2023 तक, आधे से भी कम मामलों का निपटारा किया था।
31 अक्टूबर 2023 तक 362 किशोर न्याय बोर्डों (जेजेबी) के समक्ष आधे से अधिक मामले लंबित रहे। हालांकि भारत के 765 जिलों में से 92 फीसद ने जेजेबी का गठन किया है, जो कानून के साथ संघर्ष में बच्चों से निपटने वाला प्राधिकरण है, इसके बावजूद लंबित मामलों की दर में व्यापक रूप से वृद्धि ही हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक किशोर न्याय बोर्ड में औसतन 154 मामले प्रतिवर्ष लंबित रहते हैं। इसके अतिरिक्त, अपर्याप्त डेटा निगरानी और धन की कमी ने किशोर न्याय के कार्यान्वयन में गंभीर बाधाएं उत्पन्न की हैं। भारत में अपराध संबंधी 2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारतीय दंड संहिता और भारत में विशेष एवं स्थानीय कानूनों के तहत 31,365 मामलों में 40,036 किशोरों को पकड़ा गया। इनमें शामिल चार में से तीन से अधिक बच्चे 16 से 18 वर्ष की आयु के थे।
रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक किशोर न्याय बोर्ड में औसतन 154 मामले प्रतिवर्ष लंबित रहते हैं। इसके अतिरिक्त, अपर्याप्त डेटा निगरानी और धन की कमी ने किशोर न्याय के कार्यान्वयन में गंभीर बाधाएं उत्पन्न की हैं। भारत में अपराध संबंधी 2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारतीय दंड संहिता और भारत में विशेष एवं स्थानीय कानूनों के तहत 31,365 मामलों में 40,036 किशोरों को पकड़ा गया।
आईजेआर के अध्ययन में किशोर न्याय प्रणाली की क्षमता को समझने के लिए 16 सवाल तैयार किए गए। यह सवाल राज्य पुलिस मुख्यालय, महिला एवं बाल विकास विभाग, राज्य बाल संरक्षण सोसायटी और राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को भेजे गए। देश के 28 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों के 530 जिलों को शामिल किया गया। इसमें 500 से ज़्यादा जवाब मिले। लेकिन, इन जवाबों में कई समस्याएं दिखीं। 11 फीसद जवाब गलत होने के कारण खारिज कर दिए गए। 24 फीसद सवालों का कोई जवाब ही नहीं मिला। 29 फीसद जवाब जिलों को भेज दिए गए, जबकि 36 फीसद जवाब सीधे राज्य नोडल अधिकारियों ने दिए। यह स्थिति बताती है कि सार्वजनिक डेटा साझा करने और पारदर्शिता को लेकर हमारी व्यवस्था अभी भी बहुत कमज़ोर है।
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की मुख्य संपादक माजा दारूवाला का कहना है कि हमारे देश में किशोर न्याय से जुड़ी व्यवस्था एक बड़ी संरचना की तरह है, जो कई स्तरों पर काम करती है। इसमें पुलिस थाने, बाल देखभाल संस्थान, ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के अधिकारी शामिल होते हैं। इस पूरी व्यवस्था के ठीक से काम करने के लिए ज़रूरी है कि हर स्तर से सही और नियमित जानकारी ऊपर तक पहुंचती रहे। लेकिन, रिपोर्ट बताती है कि ज़िम्मेदार अधिकारी अक्सर इस तरह का डेटा इकट्ठा नहीं करते या उस पर ध्यान नहीं देते। इसी कारण आंकड़ें बिखरे हुए और अधूरे रह जाते हैं।
रिपोर्ट बताती है कि अभी भी लगभग 24 फीसद किशोर न्याय बोर्ड पूरी तरह से गठित नहीं हैं। 470 बोर्डों में से 111 बोर्डों में सभी सदस्य मौजूद नहीं थे। इससे काम का बोझ बढ़ जाता है और बच्चों को न्याय पाने में देर होती है। साथ ही, 30 फीसद किशोर न्याय बोर्डों में कानूनी सहायता क्लिनिक भी नहीं है, जहां बच्चों को मुफ्त कानूनी मदद मिल सके।
जेजेबी में खाली रिक्तियां
भारत में किशोर न्याय प्रणाली कई चुनौतियों का सामना कर रही है। कानून के अनुसार, हर जिले में एक किशोर न्याय बोर्ड (जेजेबी) होना चाहिए, जिसमें एक प्रधान मजिस्ट्रेट और दो सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों। यह इसलिए ज़रूरी है ताकि बच्चों से जुड़े मामलों में कानूनी प्रक्रिया के साथ-साथ उनकी मानसिक और सामाजिक ज़रूरतों को भी समझा जा सके। लेकिन, रिपोर्ट बताती है कि अभी भी लगभग 24 फीसद किशोर न्याय बोर्ड पूरी तरह से गठित नहीं हैं। 470 बोर्डों में से 111 बोर्डों में सभी सदस्य मौजूद नहीं थे। इससे काम का बोझ बढ़ जाता है और बच्चों को न्याय पाने में देर होती है। साथ ही, 30 फीसद किशोर न्याय बोर्डों में कानूनी सहायता क्लिनिक भी नहीं है, जहां बच्चों को मुफ्त कानूनी मदद मिल सके। देश में केवल ओडिशा, सिक्किम और जम्मू-कश्मीर ने बताया है कि उनके सभी जिलों में पूरी तरह से गठित बोर्ड काम कर रहे हैं। यह स्थिति बताती है कि बच्चों के न्याय के अधिकार को मजबूत करने के लिए तुरंत सुधार की ज़रूरत है।
चिकित्सा देखभाल और निगरानी का अभाव
भारत में बाल देखभाल संस्थानों (सीसीआई) में कर्मचारियों की भारी कमी है। 15 राज्यों के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 80 फीसद संस्थानों में न कोई डॉक्टर है और न ही चिकित्सा कर्मचारी। ऐसे में वहां रहने वाले बच्चों की स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करना बहुत मुश्किल हो जाता है। साथ ही, इन संस्थानों की निगरानी के लिए बनाए गए तंत्र भी सही तरीके से काम नहीं कर रहे। कानून के अनुसार, किशोर न्याय बोर्ड को हर महीने सीसीआई का निरीक्षण करना चाहिए। लेकिन 14 राज्यों और जम्मू-कश्मीर में जहां 1,992 निरीक्षण होने चाहिए थे, वहां केवल 810 निरीक्षण ही किए गए। इससे साफ है कि बच्चों की सुरक्षा और देखभाल की स्थिति चिंताजनक है और सुधार की ज़रूरत है।
कानून के अनुसार, किशोर न्याय बोर्ड को हर महीने सीसीआई का निरीक्षण करना चाहिए। लेकिन 14 राज्यों और जम्मू-कश्मीर में जहां 1,992 निरीक्षण होने चाहिए थे, वहां केवल 810 निरीक्षण ही किए गए। इससे साफ है कि बच्चों की सुरक्षा और देखभाल की स्थिति चिंताजनक है और सुधार की ज़रूरत है।
आईजेआर के अध्ययन में पाया गया कि भारत के अधिकतर जिलों में किशोर न्याय बोर्ड (जेजेबी) बने हुए हैं। 765 जिलों में से लगभग 92 फीसद में जेजेबी मौजूद हैं। लेकिन, इनमें से कई बोर्डों में ज़रूरी स्टाफ नहीं है। हर चार में से एक बोर्ड अधूरा है, जिससे मामलों के समय पर निपटारे में कठिनाई होती है। वहीं, जेलों की हालत भी बहुत खराब है। कई जेलों में क्षमता से ढाई गुना ज़्यादा बंदी हैं। 76 फीसद क़ैदी अपने मामलों के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं, जो न्याय व्यवस्था की धीमी रफ़्तार दिखाता है। कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च भी बहुत कम—सिर्फ़ ₹6.46 है।
रिपोर्ट बताती है कि भारत में जेजेबी के पास डेटा रखने की कोई केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं है। नियमित अदालतों की तरह ऑनलाइन जानकारी उपलब्ध नहीं होती। आईजेआर को 21 राज्यों से जानकारी पाने के लिए 250 से ज़्यादा आरटीआई डालनी पड़ीं। इससे पता चलता है कि पारदर्शिता कमज़ोर है और रिकॉर्ड रखने की प्रणाली भरोसेमंद नहीं है। इसके अलावा, न्यायाधीशों और बोर्डों के पास भारी कार्यभार है। कुछ राज्यों में एक जज पर 4000 से ज़्यादा मामले हैं। कई बच्चों को पुनर्वास और कानूनी सहायता की सुविधाएन समय पर नहीं मिल पातीं। कई बोर्डों में कानूनी सहायता क्लिनिक भी नहीं हैं और प्रशिक्षित कर्मियों की भी कमी है। इन समस्याओं से साफ़ है कि क़ानून और व्यवस्था तो मौजूद हैं, लेकिन उनका लागू होना कमजोर है। बच्चों को वास्तव में न्याय मिले, इसके लिए ज़रूरी संसाधन, पारदर्शिता और जवाबदेही को मज़बूत करना बहुत आवश्यक है।
765 जिलों में से लगभग 92 फीसद में जेजेबी मौजूद हैं। लेकिन, इनमें से कई बोर्डों में ज़रूरी स्टाफ नहीं है। हर चार में से एक बोर्ड अधूरा है, जिससे मामलों के समय पर निपटारे में कठिनाई होती है। वहीं, जेलों की हालत भी बहुत खराब है। कई जेलों में क्षमता से ढाई गुना ज़्यादा बंदी हैं।
किशोर न्याय बोर्ड यानी जेजेबी एक ऐसी समिति है जो उन बच्चों के मामलों को देखती है जिन पर किसी कानून को तोड़ने का आरोप होता है। यह बोर्ड किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के तहत बनाया गया है। जेजेबी का काम बच्चों को सज़ा देना नहीं, बल्कि उनका सुधार करना है। यहाँ बच्चों से जुड़े मामलों में माहौल और प्रक्रिया दोनों ही बाल-अनुकूल रखी जाती हैं। भारत में किशोर न्याय प्रणाली बच्चों के अधिकारों और सुरक्षा पर आधारित है। इस प्रणाली का उद्देश्य बच्चों को जेल भेजना नहीं, बल्कि उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ाना है। अगर कोई बच्चा अपराध में शामिल होता है या संरक्षण की ज़रूरत में है, तो राज्य उसकी देखभाल एक अभिभावक की तरह करता है। इस पूरी प्रक्रिया में बच्चे को शिक्षा, परामर्श और पुनर्वास की सुविधाएं देने पर ज़ोर होता है।
हालांकि, एक बड़ी समस्या यह है कि ज़मीनी स्तर पर यह प्रणाली कई बार वयस्क आपराधिक न्याय व्यवस्था जैसी ही दिखने लगती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कागज़ों में जो नियम लिखे हैं, उनका पालन पूरी तरह नहीं हो पाता। जो दस्तावेज़ उपलब्ध हैं, वे दिखाते हैं कि बच्चों के लिए बनाई गई यह अलग व्यवस्था व्यवहार में अलग नज़र नहीं आती। इसका मतलब यह है कि कानून की भावना—बच्चों को संरक्षण और सुधार का अवसर देना—अभी भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। इसलिए ज़रूरी है कि किशोर न्याय व्यवस्था को सच में बाल-अनुकूल बनाया जाए, ताकि हर बच्चे को न्याय और जीवन में आगे बढ़ने का अवसर मिल सके।

