भारत में पिछले कुछ सालों में पीरियड्स और स्वच्छता को लेकर कुछ सकारात्मक बदलाव दिखे हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019–2020 के अनुसार, 15 से 24 वर्ष की उम्र की लगभग 10 में से 8 युवतियां अब सुरक्षित स्वच्छता उत्पादों का इस्तेमाल कर रही हैं। खासकर शहरी इलाकों और कुछ वर्गों में स्थिति बेहतर हुई है। लेकिन इस सुधार की तस्वीर पूरी नहीं है। समाज के सबसे हाशिए पर रहने वाले समूहों में से एक–जेलों में बंद महिलाएं अब भी इस बुनियादी सुविधा से वंचित हैं। देश में जेलें एक ऐसा संस्थान है, तो आम तौर पर राजनीतिक चर्चा से एकदम अदृश्य है। सामाजिक पूर्वाग्रह और व्यवस्था की लापरवाही के कारण उनकी ज़रूरतों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, भारत की जेलों में 23,722 महिलाएं बंद हैं। इनमें से लगभग 77 प्रतिशत महिलाएं 18 से 50 वर्ष की प्रजनन आयु में हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद, उन्हें पानी, साफ़-सफाई और पीरियड्स से जुड़ी मूल सुविधाएं ठीक से नहीं मिल पातीं। महाराष्ट्र की जेलों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि वहां पानी, स्वच्छता और साफ़-सफाई की व्यवस्था महिला कैदियों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती। पीरियड्स के दौरान सुरक्षित उत्पाद, निजी जगह और साफ़ पानी का अभाव उनकी सेहत को और जोखिम में डाल देता है।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, भारत की जेलों में 23,722 महिलाएं बंद हैं। इनमें से लगभग 77 प्रतिशत महिलाएं 18 से 50 वर्ष की प्रजनन आयु में हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद, उन्हें पानी, साफ़-सफाई और पीरियड्स से जुड़ी मूल सुविधाएं ठीक से नहीं मिल पातीं।
पीरियड्स स्वास्थ्य एक गंभीर व्यवस्थागत समस्या
जेलों और सुधारगृहों में बंद महिलाओं के साथ-साथ ट्रांसजेंडर और गैर-बाइनरी कैदियों के लिए भी पीरियड्स स्वास्थ्य एक गंभीर व्यवस्थागत समस्या है। पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण उत्पादों की कमी, खराब स्वच्छता सुविधाएं और संवेदनशीलता की कमी उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती हैं। असल समस्या यह है कि जेल व्यवस्था अब भी मुख्य रूप से पुरुष कैदियों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। लैंगिक संवेदनशील नीतियों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की कमी इस संकट को और गहरा कर देती है। जब तक इन खामियों को दूर नहीं किया जाता, तब तक जेलों में बंद लोगों के लिए मासिक धर्म स्वच्छता एक अधूरी और अनदेखी ज़रूरत बनी रहेगी।
हमारे समाज में आज भी कैदियों को अक्सर मौलिक अधिकारों के योग्य नहीं माना जाता। ऐसे माहौल में महिला कैदियों को दोहरा अन्याय झेलना पड़ता है। समाज महिलाओं की “पवित्रता” को लेकर अवास्तविक सोच से चिपका हुआ है और यह मानने को तैयार नहीं कि महिलाएं भी अपराध कर सकती हैं। इसी सोच के चलते महिला कैदियों की बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया जाता है। इसमें पीरियड्स से जुड़ी स्वच्छता सबसे अहम है। ज़्यादातर भारतीय जेलें पुरुष कैदियों को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। वहां की सुविधाएं भी पुरुषों की ज़रूरतों के हिसाब से तय की गई हैं। नतीजतन, महिला कैदियों को अपनी सुविधा और अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ता है।
महाराष्ट्र की जेलों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि वहां पानी, स्वच्छता और साफ़-सफाई की व्यवस्था महिला कैदियों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती। पीरियड्स के दौरान सुरक्षित उत्पाद, निजी जगह और साफ़ पानी का अभाव उनकी सेहत को और जोखिम में डाल देता है।
पीरियड्स, स्वच्छता उत्पाद और महिला कैदी
संयुक्त राष्ट्र के ‘बैंकॉक नियम’ यह साफ़ कहते हैं कि जहां महिलाओं को हिरासत में रखा जाता है, वहां उनकी विशेष स्वच्छता ज़रूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए। इन नियमों में मुफ्त सैनिटरी पैड और साफ़ पानी की नियमित उपलब्धता शामिल है। ये नियम दस साल से भी ज़्यादा पुराने हैं, फिर भी ज़मीन पर इनका पालन बहुत कम होता है। हैरानी की बात यह है कि अमेरिका जैसे अमीर देशों में भी जेलों के भीतर पीरियड्स से जुड़ी गरीबी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। इसके बावजूद, महिला कैदियों की स्थिति पर होने वाली चर्चाओं में इस मुद्दे को अब भी पर्याप्त महत्व नहीं मिलता। दुनिया भर में महिला कैदियों को स्वच्छता से जुड़ी गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
इसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य, गरिमा और मानसिक स्थिति पर पड़ता है। सबसे बड़ी समस्या है खराब और अपर्याप्त स्वच्छता ढांचा। कई जेलें, खासकर कम आय वाले देशों में, बेहद भीड़भाड़ वाली हैं। वहां शौचालय और स्नान की सुविधाएं बहुत कम होती हैं। महिलाओं को लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ता है या मजबूरी में स्वच्छता से समझौता करना पड़ता है। कई जगहों पर बाथरूम साझा होते हैं और उनमें दरवाज़े या परदे जैसी बुनियादी गोपनीयता भी नहीं होती। ऊपर से साफ़ पानी की अनियमित आपूर्ति हालात को और मुश्किल बना देती है। ऐसे में पीरियड्स के दौरान स्वच्छता बनाए रखना महिला कैदियों के लिए एक रोज़ की लड़ाई बन जाता है।
ज़्यादातर भारतीय जेलें पुरुष कैदियों को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। वहां की सुविधाएं भी पुरुषों की ज़रूरतों के हिसाब से तय की गई हैं। नतीजतन, महिला कैदियों को अपनी सुविधा और अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ता है।
जेलों में महिलाओं के लिए एक बड़ी और अक्सर अनदेखी की जाने वाली समस्या पीरियड्स से जुड़ी स्वच्छता और देखभाल है। कई जेलों में महिलाओं को सैनिटरी पैड या टैम्पोन पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलते। पीरियड्स के कचरे के सुरक्षित निपटान के लिए भी ज़्यादातर जगहों पर कोई सही व्यवस्था नहीं होती। जेल कर्मचारियों में इस विषय को लेकर समझ और संवेदनशीलता की कमी के कारण महिलाओं को पीरियड्स के दौरान शर्मिंदगी और अपमान झेलना पड़ता है। पीरियड्स के समय दर्द निवारक दवाएं, साफ अंडरवियर या थोड़ी निजता मिलना भी अक्सर मुश्किल होता है। इन सुविधाओं की कमी से महिलाओं को न सिर्फ शारीरिक तकलीफ़ होती है, बल्कि मानसिक तनाव भी बढ़ता है। कई बार पीरियड्स का दर्द और असहजता सहते हुए भी महिलाओं को सामान्य दिनचर्या निभाने के लिए मजबूर किया जाता है।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) और गैर सरकारी संस्था बूंद के किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारतीय जेलों में बंद लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स से गुज़रती हैं। इसके बावजूद, कई जेलों में पीरियड्स से जुड़ी स्वच्छता के लिए बुनियादी व्यवस्थाएं मौजूद नहीं हैं। अध्ययन में यह भी सामने आया कि ज़्यादातर जेलों में महिलाओं को मुफ़्त और असीमित सैनिटरी पैड, गर्म पानी या पीरियड्स के कचरे के लिए सुरक्षित निपटान की सुविधा नहीं मिलती। इसके अलावा, जेलों में पीरियड्स से जुड़ी स्वच्छता को लेकर कोई मानकीकृत नीति भी नहीं है। इसी वजह से अलग-अलग जेलों में सुविधाओं की उपलब्धता में बड़ा फर्क देखने को मिलता है।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) और गैर सरकारी संस्था बूंद के किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारतीय जेलों में बंद लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स से गुज़रती हैं। इसके बावजूद, कई जेलों में पीरियड्स से जुड़ी स्वच्छता के लिए बुनियादी व्यवस्थाएं मौजूद नहीं हैं।
क्या बताते हैं आंकड़े
साल 2019 में सीएचआरआई की रिपोर्ट ‘हरियाणा जेलों के अंदर’ ने जेलों में बंद महिलाओं की स्थिति को लेकर कई गंभीर बातें सामने रखीं। रिपोर्ट में बताया गया कि महिला कैदियों को अपने अधिकारों और हकों की सही जानकारी नहीं थी। कई महिलाओं को यह तक नहीं पता था कि जेल प्रशासन की ओर से उन्हें मुफ्त सैनिटरी नैपकिन मिल सकते हैं। कई जेलों में महिलाओं को या तो कैंटीन से सैनिटरी नैपकिन खरीदने पड़ते थे या फिर पुराने कपड़े और चिथड़ों का इस्तेमाल करना पड़ता था। इससे उनकी पीरियड्स स्वच्छता को लेकर गंभीर खतरे पैदा हो रहे थे। कुछ महिलाओं ने बताया कि वे मुलाकात के समय परिवार से अच्छे सैनिटरी पैड मंगवाने पर निर्भर रहती थीं। लेकिन जब मिलने पिता या भाई आते थे, तो वे शर्म और झिझक की वजह से मांग नहीं कर पाती थीं। यह समाज में पीरियड्स को लेकर गहरी वर्जनाओं को दिखाता है।
साल 2016 की मॉडल जेल नियमावली में साफ कहा गया है कि महिला कैदियों को उनकी ज़रूरत के मुताबिक साफ और सुरक्षित सैनिटरी पैड उपलब्ध कराए जाने चाहिए। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अलग-अलग राज्यों में इन नियमों का पालन एक जैसा नहीं हो रहा है। कई जेलों में महिलाओं के लिए पानी और साफ़-सफाई की सुविधाएं बेहद कम हैं। भीड़भाड़ की वजह से पीरियड्स के दौरान पानी, सैनिटरी नैपकिन, साबुन और डिटर्जेंट जैसी बुनियादी चीज़ों की कमी और ज़्यादा बढ़ जाती है। कुछ जेलों में लगभग 50 महिलाओं के लिए सिर्फ़ दो शौचालय होते हैं, जिनका इस्तेमाल उन्हें शौच, कपड़े धोने और सैनिटरी नैपकिन बदलने के लिए करना पड़ता है।
साल 2016 की मॉडल जेल नियमावली में साफ कहा गया है कि महिला कैदियों को उनकी ज़रूरत के मुताबिक साफ और सुरक्षित सैनिटरी पैड उपलब्ध कराए जाने चाहिए। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अलग-अलग राज्यों में इन नियमों का पालन एक जैसा नहीं हो रहा है।
पानी की नियमित सप्लाई न होने के कारण महिलाओं को पानी जमा करके रखना पड़ता है, जिससे जगह की समस्या और बढ़ जाती है। गंदे और अस्वच्छ शौचालयों की वजह से महिलाएं उनका बार-बार इस्तेमाल करने से कतराती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि यूरिन इन्फेक्शन जैसी बीमारियां बढ़ जाती हैं। कई जेलों में सैनिटरी नैपकिन की आपूर्ति गैर-सरकारी संगठनों के दान पर निर्भर होती है। ऐसे में पीरियड्स के दौरान मिलने वाले पैड की संख्या, गुणवत्ता और प्रकार का फैसला जेल प्रशासन नहीं, बल्कि ये संगठन करते हैं। इसका असर यह होता है कि महिलाओं को अक्सर घटिया गुणवत्ता वाले सैनिटरी नैपकिन ही मिल पाते हैं।
महिला कैदियों में पीरियड्स से जुड़ी जानकारी की कमी
महिला कैदियों को अक्सर पीरियड्स से जुड़ी बुनियादी जानकारी नहीं होती। कई महिलाओं को यह नहीं पता होता कि पीरियड्स क्यों होते हैं, अनियमितता क्या संकेत देती है, स्वच्छता कैसे रखी जाए और इस्तेमाल किए गए पैड का सुरक्षित निपटान कैसे किया जाए। यह समस्या केवल महिला कैदियों तक सीमित नहीं है। जेल कर्मचारियों में भी इस विषय पर जागरूकता की कमी देखी जाती है। इसलिए महिला कैदियों और जेल स्टाफ—दोनों के लिए नियमित जागरूकता शिविर बेहद ज़रूरी हैं। कुछ जेलों ने सकारात्मक पहल भी की है। केरल के कन्नूर महिला जेल में हर महिला को 20 सैनिटरी पैड दिए जाते हैं। ज़रूरत पड़ने पर अतिरिक्त पैड भी मिलते हैं। तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली विशेष महिला जेल में जैव-चिकित्सा अपशिष्ट नियमों का पालन किया जाता है। वहां अलग-अलग ढक्कन वाले कूड़ेदान और सुरक्षित बैग उपलब्ध हैं। भारतीय जेलों में स्वच्छता की खराब स्थिति की एक वजह एकसमान नियमों की कमी है।
केंद्र की आदर्श जेल नियमावली का कई राज्यों ने पालन नहीं किया है। स्वच्छता सुधार के लिए कड़े निरीक्षण, स्वच्छ भारत अभियान से जुड़ाव और एनजीओ व सीएसआर पहलों की भागीदारी ज़रूरी है। कुल मिलाकर, भारतीय जेलों में महिला कैदियों के लिए पीरियड्स स्वच्छता केवल स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि गरिमा और मानवाधिकार का सवाल है। कुछ सकारात्मक पहल के बावजूद, ज़मीनी हकीकत आज भी असमान, अपर्याप्त और असंवेदनशील बनी हुई है। एकसमान नीतियों की कमी, ढांचे की बदहाली और जागरूकता का अभाव इस समस्या को और गहरा करता है। जब तक जेल व्यवस्था को लैंगिक संवेदनशील दृष्टि से नहीं देखा जाएगा और मासिक धर्म स्वच्छता को बुनियादी अधिकार के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा, तब तक महिला, ट्रांसजेंडर और गैर-बाइनरी कैदियों के लिए यह ज़रूरत अनदेखी ही बनी रहेगी।

