संस्कृतिकिताबें सलाख़ों के पीछे: दृश्य-अदृश्य जेलों में बंद औरतों के नाम एक दस्तावेज

सलाख़ों के पीछे: दृश्य-अदृश्य जेलों में बंद औरतों के नाम एक दस्तावेज

जेल में एक दिन एक वरिष्ठ आईएस का मुआयना था। वह बंदियों से इस स्तर पर सवाल कर रहा था," तो किस को मार कर आई हो? यार के साथ मिलकर पति को मार दिया? हनी ट्रैप बिछाया था ना? धंधा करती हो ना?  

जेल वास्तव मे बाहरी दुनिया की प्रतिलिपि होती है बल्कि और अधिक बारीक होती है। समाज मे व्याप्त धर्म, जाति नस्ल और वर्ग के हिसाब से यहां भी हैसियत तय होती है। जेल में एक दिन एक वरिष्ठ आईएएस का मुआयना था। वह बंदियों से इस स्तर पर सवाल कर रहा था, “तो किस को मार कर आई हो? यार के साथ मिलकर पति को मार दिया? हनी ट्रैप बिछाया था ना? धंधा करती हो ना?” 

मैं ठहरकर सोचने लगी क्या यही आईएएस, पीसीएस हैं? इन पेशों को आज की नौजवान पीढ़ी अपनी समूची जवानी खपा देती है, ये बनना मध्यवर्गीय समाज का उच्चतम आदर्श होता है। ये अमिता शीरीं की लिखी जेल डायरी ‘सलाखों के पीछे’ का एक अंश है। ये कैसा समाज है जहां जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इस तरह के सवाल करते हैं? क्या पितृसत्तात्मक ढांचे का समाज स्त्रियों को लेकर इतना संवेदनहीन और क्रूर है कि उनके लिए मन में मानवीय बोध ही खत्म रहता है?

सामाजिक कार्यकर्ता अमिता शीरीं की डायरी पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि स्त्री के लिए जो संसार बाहर की दुनिया में है चलता है, वही संसार जेल की दुनिया में अपने और अधिक यथार्थ रूप में मिलता है। तमाम तरह के अन्याय, भ्रष्टाचार जिसे स्त्री बाहरी दुनिया में झेलती है जेल में वह और भी वीभत्स रूप में झेलती है। स्त्रियों की दुनिया की इतनी मार्मिक सच्चाई और अन्याय की परतें इस किताब में पढ़ने को मिलती हैं कि लगता है कि आखिर और कितना सहना होगा। इस जेल डायरी के जितने अध्याय हैं उनमें स्त्री के साथ अन्याय, हिंसा और क्रूरता की उतनी कहानियां खुलती जाती हैं।

लखनऊ जिला कारागार में महिलाओं के लिए जूट का बैग सिलने की एक कार्यशाला चलती है। बाजार में दो सौ से तीन सौ तक बिकने वाले प्रति बैग पर यहां सिलाई करने वालों को मात्र दस रूपये मिलते हैं।

जेल सुधरता कतई नहीं है

लेखिका आगे अपने अनुभव के आधार पर लिखती हैं कि समाज की तरह जेल में भी औरतों को एक अच्छी औरत बने रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि जेल से बाहर जाकर वे अच्छी पत्नियां, अच्छी माएँ बनी रहें। जेल इसका पूरा प्रयास करता है। उनका आगे कहना है कि भारतीय समाज आज भी इस तरह के अंधविश्वास चमत्कार, भूत-प्रेत, जादू-टोने से घिरा हुआ है और जेल में इन सबका बड़ा अजीब सा भोंडा प्रदर्शन होता है।

जेल में पढ़ी-लिखी औरतें भी इससे ग्रस्त दिखाई देती हैं। ऐतिहासिक रूप से पिछड़े होने के कारण जेल के भीतर औरतों के मानसिक और बौद्धिक पिछड़ेपन का सबसे विकृत प्रदर्शन होता है। बिना किसी तर्क और बौद्धिक सवाल किए पढ़ी-लिखी आधुनिक औरतें तुलसीदास कृत सुंदरकांड में लिखी गयी पंक्ति “ढोल गँवार शूद्र पशु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी, का पाठ हर रोज भक्ति भाव से करती हैं। कुल मिलाकर जेल भारतीय समाज के पिछड़ेपन को ही प्रश्रय देता है, जेल सुधरता कतई नहीं।

सस्ते श्रम की जगह जेल

जेल के भीतर के कितने अनदेखे सच को यह डायरी दर्ज करती हैं जो कि समाज की बाहरी दुनिया की मुनाफाखोर संरचना के आवश्यक अंग हैं। जेल में वही मुनाफाखोर बाजार अपने अलग अंदाज में और क्रूरता से चलता है। जेल में कारपोरेट तो नहीं है पर कई एनजीओ परमार्थ के लिए सिलाई या अगरबत्ती बनवाने का काम करते हैं। लखनऊ जिला कारागार में महिलाओं के लिए जूट का बैग सिलने की एक कार्यशाला चलती है। बाजार में दो सौ से तीन सौ तक बिकने वाले प्रति बैग पर यहां सिलाई करने वालों को मात्र दस रूपये मिलते हैं। इसके अलावा जेल के भीतर खाना बनाना, साफ-सफाई, बिजली-पानी के काम, ऑफिस के काम, गेट पर मुलाकातों के झोले की जांच बंदियों की गिनती, कंप्यूटर ऑपरेशन आदि अनेक छोटे-बड़े काम बंदी लोग करते हैं जिसके लिए उन्हें प्रतिदिन मात्र बीस रुपये मिलते हैं। यानी इतनी बड़ी मात्रा में श्रम का दोहन लगभग मुफ्त का हासिल है। इतनी बड़ी संख्या में नियुक्ति के लिए सरकार को करोड़ों रुपए अतिरिक्त खर्च करने पड़ते इस तरह भारतीय जेल भी विक्रांत से बड़ी मात्रा में सस्ते श्रम का दोहन करती हैं।

गरीब बंदी, स्त्रियां सालों जेल में पड़ी रहती हैं कोई उनकी पैरवी करने वाला नहीं होता, कोई जमानत लेने वाला नहीं होता। इस तरह जेल कारागार नहीं मानसिक-शारीरिक यंत्रणागार हो जाते हैं।

भारत में नहीं की जा सकती आंदोलन की कल्पना 

एंजेला डेविस अमेरिका की राजनीति एक्टिविस्ट हैं। पिछले तीस सालों से वह ‘जेल खत्म करो’ मुहिम के तहत विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। एंजेला डेविस का कहना है ऐसे विकल्प जो नस्लवाद पुरुष प्रभुत्व, होमोफोबिया वर्गी पूर्वाग्रह और अन्य ढांचागत प्रभुत्व को संबोधित नहीं करते हुए आखिरकार लोगों को कैद ही करते हैं और इससे जेल को खत्म करने का लक्ष्य आगे नहीं बढ़ सकता। भारत के मौजूदा आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात में जेल खत्म करो आंदोलन छेड़े जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

लोगों के असंतोष का दमन करने के लिए जब सरकार ने एक समूचे राज्य को ही कैद खाने में तब्दील कर दिया ऐसे में जनमानस में विभिन्न कारणों से खोलते असंतोष को दबाने के लिए आने वाले समय में असम की जेलों की जरूरत पड़ने वाली है। एक अध्ययन का हवाला देते हुए एंजेला बताती हैं कि जेल में मानसिक रोगियों की संख्या बहुत अधिक दिखाई देती है। अपने घर-परिवार से कटी हुई हर एक बन्दी यहाँ की परिस्थिति में कमोबेश अवसादग्रस्त रहती है। जेल की परिस्थितियां ज्यादातर लोगों को शारिरिक व मानसिक रूप से बीमार कर देती हैं।

स्त्री कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य की अवहेलना

स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर इस जेल डायरी में बहुत सी स्त्रियों की विचित्र मनःस्थिति को दर्ज किया गया हैं। सीता मिश्रा (बदला हुआ नाम) नाम की स्त्री लगातार चलती ही रहती थी, रुकती ही नहीं थी लेकिन उन्हें किसी मानसिक चिकित्सालय में नहीं भेजा गया। साल दर साल बीतते चले जा रहे हैं सीता मिश्रा के जीने का कोई सबब बचा ही नहीं है। लोग बताते हैं कि सीता मिश्रा को किसी एक केस में केवल सात दिनों की सजा मिली है। एक अन्य केस में सीता मिश्रा हर पेशी में अदालत जाती हैं, महामहिम न्यायधीश न उन्हें सजा सुनाते हैं न रिहा करते हैं। जेल में सीता मिश्रा चलती रहती हैं, केवल चलती रहती हैं ना जाने उनकी यह परिक्रमा कब पूरी होगी।

किताब के एक अन्य अंश में तवि नाम की एक लड़की का ज़िक्र हैं। बताया जाता है कि तवि को अपना नाम नहीं पता। पुलिस वाले उसे कहीं से उठा लाये और जेल में डाल दिया। जेल वालों ने खुद ही उसका नाम लिख दिया कुछ भी। उसे तो यह भी नहीं पता कि वह लखनऊ जेल में है। कल्पना कीजिए कोई अगर अपने देश काल से परे चला जाये तो उसके लिए कौन जिम्मेदार बनाया जायेगा। जेल में ऐसे कई सारे लोग होते हैं। कुछ तो समाज पहले ही औरतों को देश काल से विस्थापित कर देता है और रही सही कमी जेल की संवेदनहीनता बना देती है।

जेल में स्त्रियों की दमित यौन इच्छाएं

स्त्रियों की यौनिकता को लेकर लेखिका “जिन्नातों की कैद में नाम के अध्याय में लिखती हैं कि जेल के जीवन में स्त्रियां कैदी जीवन को जीते हुए अपनी कितनी दमित यौन इच्छाओं की भी कैदी हो जाती हैं। समाज में वैसे भी स्त्री की यौन इच्छा को वर्जित चीज माना जाता है। हमारे समाज में जाने कितनी स्त्रियां अपनी यौन इच्छाओं को आजीवन दबाकर ही जीती हैं।

इसी अंश में लिखती हैं कि जेल में आपका युद्ध बहुस्तरीय हो जाता है। आपको एकसाथ कई मोर्चे पर लड़ना पड़ता है। एक तो अपने शारिरिक-मानसिक स्वास्थ्य को संतुलित करना पड़ता है। प्रशासन की ज्यादतियों से लड़ना है और वहाँ की व्याप्त गलत बातों से जूझना है। साथ ही एक मोर्चा खुला रहता है अंधविश्वास के ख़िलाफ़। समाज की ही तरह जेल में भी अधिकतर स्त्रियाँ अंधविश्वास के कब्जे में होती हैं। जेल में भूत, प्रेत, चुड़ैल की मौजूदगी के ढेरों किस्से प्रचलित हैं।

स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर इस जेल डायरी में बहुत सी स्त्रियों की विचित्र मनःस्थिति को दर्ज किया गया हैं। सीता मिश्रा ( बदला हुआ नाम) नाम की स्त्री लगातार चलती ही रहती थी, रुकती ही नहीं थी लेकिन उन्हें किसी मानसिक चिकित्सालय में नहीं भेजा गया।

जेल में सबसे ज्यादा नन्हें बच्चों को देखकर दुःख होता है। आखिर वो किस अपराध की सजा भुगत रहे हैं। लेकिन बच्चे इन सारी बातों से अनजान वहां भी मगन रहते हैं। उनके लिए सारी दुनिया खेल का मैदान ही होती है। उन्हें जो कुछ लकड़ी-डंडा मिलता है उसे खिलौना बनाकर खेलते रहते हैं। वे तो किसी भी चीज का खिलौना बना सकते हैं। कई बार उनके लिए “हम बड़े भी खिलौना ही होते हैं।

जेल में अमिता की मुलाकात सदफ से होती है। सदफ सीएए आंदोलन का नियमित चेहरा हैं इसलिए पुलिस ने उन्हें उठाकर जेल में डाल दिया था। थाने में पूछताछ के दौरान ही उनकी निर्ममता से पिटाई हुई। उसके बाल पकड़ कर खींचे गये, उसके बालों की जड़े उखड़ी हुई हैं, उसके पूरे शरीर पर नील पड़े हैं। आने के कई दिन बाद तक वो सीधे से चल नहीं पा रही थी।

अपने हक अधिकार के लिए लड़ने वाली स्त्री समाज में सबको खटकती है उसे हर तरह से तोड़ने की कोशिश की जाती है। लेखिका लिखती हैं कि शायद इस व्यवस्था के लिए सदफ एक माकूल मोहरा थीं। एक तो वो अकेली अपने दम पर अपने बच्चों को पालकर समाज की आँखों में आँखे डालकर लोहा ले रही थीं। उसमें रंग और चोखा वो अल्पसंख्यक हैं, मुसलमान हैं और इन सबसे बढ़कर वह एक औरत हैं। एक ऐसी औरत जो न केवल समाज से लड़ रही है बल्कि आंदोलनरत है।

स्त्रियों की यौनिकता को लेकर लेखिका “जिन्नातों की कैद में नाम के अध्याय में लिखती हैं कि जेल के जीवन में स्त्रियां कैदी जीवन को जीते हुए अपनी कितनी दमित यौन इच्छाओं की भी कैदी हो जाती हैं।

आज की तारीख में भारत में जनवादी आंदोलनों की बेहद कमी है और जो है उस पर भी राज्य के क्रूर दमन का शिकंजा रहता है। ऐसे में जेल खत्म करो आंदोलन खड़ा करना जेल में कैदियों के और अधिक बढ़ने का सबब ही होगा। जेल मनुष्य का मनुष्य पर भरोसा न करने का प्रशिक्षण देता है। भारतीय जेल हजारों सामाजिक, राजनैतिक, कार्यकर्ताओं, मुसलमानों दलितों आदिवासियों से भरे पड़े हैं। गरीब बंदी, स्त्रियां सालों जेल में पड़ी रहती हैं कोई उनकी पैरवी करने वाला नहीं होता, कोई जमानत लेने वाला नहीं होता। इस तरह जेल कारागार नहीं मानसिक-शारीरिक यंत्रणागार हो जाते हैं। हालांकि ऊपर से देखने से लगता है कि जेल सर्वाधिक साम्यवादी संस्था है लेकिन सतह के नीचे जेल में वे सारे फैक्टर बहुत विद्रुप तरीके से काम करते हैं जो भारतीय समाज में व्याप्त है।