इंटरसेक्शनलजेंडर प्रवासन और संघर्ष के दौरान महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा

प्रवासन और संघर्ष के दौरान महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा

प्रवासन के दौरान महिलाओं को न केवल भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी झेलनी पड़ती है।  बल्कि युद्ध की स्थितियों में उनके ऊपर शारीरिक और मानसिक हिंसा, सामाजिक बहिष्कार, जबरन शादी, परिवार से बिछड़ने और मानव तस्करी जैसी घटनाओं का भय हमेशा बना रहता है।

किसी भी हिस्से में होने वाला संघर्ष और तनाव ना केवल वहां की सामाजिक संरचना को प्रभावित करते हैं, बल्कि ये वहां के लोगों के जीवन में गहरी असुरक्षा और अनिश्चितता भी पैदा करते हैं। प्राकृतिक आपदाएं, युद्ध, जातीय हिंसा, धार्मिक हिंसा या आर्थिक संकट इन सब के कारण लोग अपने घरों से विस्थापित हो जाते हैं, जिससे उन्हें सामाजिक, आर्थिक और मानसिक अस्थिरता का सामना करना पड़ता हैं। ऐसी अस्थिरता के हालत में महिलाएं संवेदनशील स्थिति में होती हैं । उनकी सुरक्षा अचानक ही बेहद गंभीर रूप से खतरे में पड़ जाती है। प्रवासन के दौरान महिलाओं को न केवल भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी झेलनी पड़ती है।  बल्कि युद्ध की स्थितियों में उनके ऊपर शारीरिक और मानसिक हिंसा, सामाजिक बहिष्कार, जबरन शादी, परिवार से बिछड़ने और मानव तस्करी जैसी घटनाओं का भय हमेशा बना रहता है।

प्रवासन और संघर्ष के दौरान महिलाओं की स्थिति 

ऐसे स्थिति में महिलाओं की हालत बेहद संवेदनशील और मुश्किल हो जाती है। महिलाओं के कंधों पर उनके परिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है, जबकि उन्हें ख़ुद भी सामाजिक, शारीरिक और मानसिक असुरक्षा से का सामना करना पड़ता है। वहीं सीमा क्षेत्र से लेकर शरणार्थी शिविर, या अस्थायी कैंपों तक में महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं, भोजन, सुरक्षित आवास और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं अक्सर उपलब्ध नहीं होती हैं। संघर्ष के दौरान महिलाओं के लिए ऐसे स्थानों पर जीवित रहना भी लड़ाई बन जाती है। जहां जल, स्वच्छता, और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधा उनके पहुंच से दूर होती है। नैशनल लाईब्रेरी ऑफ मेडिसिन की रिपोर्ट बताती है कि ऐसे संघर्ष और विस्थापन के दौरान महिलाएं यौन हिंसा, बलात्कार, मानसिक तनाव और सामाजिक बहिष्कार जैसी हिंसाओं का सामना करती हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य, गर्भावस्था और मातृत्व स्थिति पर गंभीर प्रभाव पड़ता हैं। 

इसी वजह से कई अनचाही गर्भावस्थाएं होती हैं। इनमें से 60 फीसदी से ज़्यादा गर्भावस्थाएं एबॉर्शन में खत्म होती हैं, और करीब 45 एबॉर्शन असुरक्षित होते हैं। नतीजन  मातृ मृत्यु दर में 5 से 13 फीसदी तक बढ़ जाती है ।

वहीं यूएनएफपीए की रिपोर्ट भी यह दिखाती है कि ऐसे हालात में महिलाओं को सही स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पातीं। इसी वजह से कई अनचाही गर्भावस्थाएं होती हैं। इनमें से 60 फीसदी से ज़्यादा गर्भावस्थाएं एबॉर्शन में खत्म होती हैं, और करीब 45 एबॉर्शन असुरक्षित होते हैं। नतीजन  मातृ मृत्यु दर में 5 से 13 फीसदी तक बढ़ जाती है । शिविरो और अस्थायी कैंपों में रहने वाली महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय होती है। उन पर खुले आसमान के नीचे रहने, शौचालय और सुरक्षित स्थानों की कमी के साथ साथ यौन हिंसा और मानव तस्करी का ख़तरा बना रहता है। ऐसी स्थिति में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को छोड़कर परिवार और समुदाय की देखभाल में लगी रहती हैं। जिससे उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भारी दबाव पड़ता है। इसके बावजूद, वे साहस और जिम्मेदारी की मिसाल पेश करती हैं। 

दुनिया भर में विस्थापन के बाद महिलाओं का संघर्ष 

एनसीबीआई में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार युद्ध और विस्थापन की परिस्थितियों में महिलाओं को गहरा भय, असुरक्षा, भोजन और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर कमी का सामना करना पड़ता है। जिससे यौन हिंसा और लिंग आधारित हिंसा (GBV) की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। उदाहरण के लिए 2011 से अब तक सिरिया में 11,553 महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ यौन हिंसा की घटनाएं दर्ज की गई हैं। विस्थापन शिविरों में शारीरिक हिंसा के साथ साथ महिलाओं को मानसिक तनाव, सामाजिक बहिष्कार और अपराधीकरण का भी सामना करना पड़ता है। यूनाइटेड नेशंस महिला आयोग द्वारा जारी 2023 की रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और सुरक्षा तंत्र का अभाव महिलाओं की रक्षा और पुनर्वास के लिए गंभीर चुनौतियां बनता है। किसी भी शरणार्थी, आंतरिक रूप से विस्थापित या राज्यविहीन आबादी में लगभग 50 फीसदी महिलाएं और लड़कियां होती हैं , और जो महिलाएं अकेली हैं, गर्भवती हैं, परिवार की मुखिया हैं, विकलांग हैं या बुजुर्ग हैं, वे खासतौर पर रूप असुरक्षित होती हैं।

किसी भी शरणार्थी, आंतरिक रूप से विस्थापित या राज्यविहीन आबादी में लगभग 50 फीसदी महिलाएं और लड़कियां होती हैं , और जो महिलाएं अकेली हैं, गर्भवती हैं, परिवार की मुखिया हैं, विकलांग हैं या बुजुर्ग हैं, वे खासतौर पर रूप असुरक्षित होती हैं।

ह्यूमनराइट वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार में वर्ष 2017 में रोहिंग्या महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ एक संगठित यौन हिंसा की नीति देखी गई। म्यांमार की सेना और संबंधित बलों ने सामूहिक बलात्कार तथा अन्य यौन हिंसा की घटनाओं को रणनीतिक आतंक-योजना के रूप में अंजाम दिया । विस्थापन के बाद वहां की महिलाओं को जबरन शादी, मानव तस्करी, सामाजिक बहिष्कार और प्रत्यक्ष शारीरिक हिंसा जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा था। यूक्रेन युद्ध अवधि में महिलाओं को यौन हिंसा, शोषण और मानव तस्करी का खासा खतरा रहा है। कोविड महामारी और युद्ध से उत्पन्न आर्थिक अस्थिरता ने महिलाओं को खतरे भरे रोजगार स्वीकारने के लिए मजबूर किया, जिससे उनका शोषण और भी अधिक होता है। नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर (एनसीएटी ) की रिपोर्ट बताती है कि भारत में पूर्वोत्तर और कश्मीर जैसे संघर्ष क्षेत्रों में 2009-19 के बीच दर्ज 114 यौन हिंसा के मामलों में से लगभग 70 प्रतिशत सर्वाइवर महिलाएं आदिवासी समुदाय से थीं। जबकि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूर और घरेलू महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और घरेलू हिंसा सहित कई चुनौतियों का सामना पड़ा।

कानून, नीतियां और अंतरराष्ट्रीय प्रयास

महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले हिंसा को रोकने और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कानून, नीतियां और अंतरराष्ट्रीय प्रयास महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1325 के हिसाब से शांति स्थापना और संघर्ष समाधान में महिलाओं की भागीदारी आवश्यक है। क्योंकि महिलाएं युद्ध के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। 1979 में लागू किए गए ‘महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन संबंधी कन्वेंशन’ के तहत भारत समेत 180 से अधिक देशों ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा का संकल्प लिया है। वहीं भारत ने महिला संरक्षण अधिनियम, मानव तस्करी निवारण अधिनियम, घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, और बाल संरक्षण अधिनियम जैसे कानून लागू कर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की है। राष्ट्रीय महिला आयोग भी शिकायतों की सुनवाई और नीति सुधारों में सक्रिय है। अंतरराष्ट्रीय तौर पर यूएनएचसीआर, एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठन संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं को कानूनी, मनोवैज्ञानिक और मानवीय सहायता प्रदान करते हैं, जिससे वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा होती है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1325 के हिसाब से शांति स्थापना और संघर्ष समाधान में महिलाओं की भागीदारी आवश्यक है। क्योंकि महिलाएं युद्ध के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं।

सामाजिक और मानसिक प्रभाव 

महिलाओं पर होने वाले  हिंसा को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। संघर्ष और विस्थापन के दौरान यौन हिंसा और मानसिक हिंसा झेलने वाली महिलाएं लंबे समय तक मानसिक विकारों जैसे ट्रॉमा, अवसाद, निद्रा में कमी, भय और आत्महत्या की प्रवृत्ति से प्रभावित होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, संघर्ष या संकट की परिस्थितियों में लगभग प्रत्येक पांचवी महिला किसी मनोवैज्ञानिक विकार का समाना कर रही होती है। हिंसा का असर केवल सर्वाइवर तक सीमित नहीं रह जाता है। यह उनके परिवार और समुदाय तक फैलता है। बच्चों में हिंसा के प्रति संवेदनशीलता और हिंसा को सामान्य समझने की प्रवृत्ति ख़तरे का कारण बन जाती है। हिंसा का समाना कर रही महिलाओं के लिए समाज में वापसी का रास्ता भी मुश्किल होता है। उन्हें सामाजिक बहिष्कार और मानसिक आघात का सामना करना पड़ता है। सरकारें और अंतरराष्ट्रीय संगठन, जैसे कि डब्ल्यू एचओ और वन स्टॉप सेंटर जैसी योजनाओं के माध्यम से महिलाओं को मनोवैज्ञानिक और कानूनी सहायता प्रदान करने का भी प्रयास करते हैं।

समाधान और सुझाव

संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु महिला सुरक्षा केंद्रों और मानसिक स्वास्थ्य सहायता सेवाओं की स्थापना जरूरी है। ये केंद्र महिलाओं को परामर्श, चिकित्सा, शिक्षा और आत्मनिर्भरता के अवसर प्रदान करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की वन स्टॉप सेंटर योजना जैसी पहल को लागू करने की आवश्यकता है ताकि महिलाएं सुरक्षित पुनर्वास पा सकें। साथ ही अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों को युद्ध अपराध के रूप में महिलाओं पर यौन हिंसा के दोषियों को सख्त सज़ा देने का क़दम उठाना चाहिए। महिलाओं की नेतृत्व क्षमता और शांति वार्ताओं में भागीदारी भी स्थायी शांति के लिए महत्वपूर्ण है। दक्षिण सूडान, कोलंबिया और नेपाल जैसे देशों में महिलाओं की भागीदारी से हिंसा में कमी और सामाजिक पुनर्निर्माण तेजी से हुआ है। प्रवासी और विस्थापित महिलाओं के लिए सुरक्षित आवास, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा और रोजगार सुनिश्चित करना सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की ज़िम्मेदारी है।

इसके अलावा मीडिया को संवेदनशील रिपोर्टिंग करते हुए पीड़ितों की पहचान छुपानी चाहिए और नागरिक समाज को जागरूकता और निगरानी में सक्रिय रहना चाहिए। ताकि महिलाओं के लिए एक सुरक्षित सामाजिक वातावरण बन सके।महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा केवल एक व्यक्तिगत दुखद घटना नहीं, बल्कि समाज की गहरी राजनीतिक और सामाजिक विफलता है। जब किसी समाज में महिलाएं असुरक्षित होती हैं, तो उसकी शांति, विकास और न्याय की बुनियाद कमजोर हो जाती है। महिलाओं के साथ केवल सहानुभूति जताने तक सीमित ना रहकर व्यवहारिक और संस्थागत बदलाव के लिए ठोस कदम उठाना आवश्यक है। हर युद्ध, संघर्ष और समाज में महिलाओं की आवाज़ को सुनना और उनका सम्मान करना सच्ची शांति की शुरुआत है। जब महिलाएं बिना भय और भेदभाव के अपने जीवन के फैसले खुद ले सकेंगी, तभी मानवता वास्तव में सुरक्षित होगी।

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