इंटरसेक्शनलजेंडर शादी के बाद ‘पति-पत्नी’ नहीं बल्कि ‘साथी’ बनना है समानता का पहला क़दम

शादी के बाद ‘पति-पत्नी’ नहीं बल्कि ‘साथी’ बनना है समानता का पहला क़दम

समाज में अपने साथ होने वाली घरेलू हिंसा को छुपाती ऐसी कई औरतें हैं जो अपने पति को ईश्वर मानती है और उनके ऊपर हाथ उठाए जाने को भी सही ठहराती है।

‘क्या पति पत्नी के रिश्ते के लिए आपको कोई दूसरा शब्द ही नहीं मिला? पति यानी कि मालिक और अगर रिश्ते में एक अगर मालिक है तो दूसरा नौकर ही होगा ना।’

कमला भसीन की कही ये बात एकदम तार्किक लगती है, ख़ासकर तब जब हम इसे समाज के बनायी शादी वाली परिभाषा से परे, जीवनभर साथ निभाने वाले जीवनसाथी के संदर्भ में दो इंसानों के रिश्ते को देखते है। हमारे समाज में औरत और मर्द के रिश्ते को जन्म-जन्मांतर के रूप में देखा जाता है और साथ फेरों से ही यह तय हो जाता है कि सात जन्म तक दो लोग एक ही साथ रहने वाले हैं। इसके साथ ही औरत का नाम और उसकी पहचान हर तरह से बदली जाती है। ‘शादी’ के बाद से पति परमेश्वर बन जाता है और औरत उस परमेश्वर की दासी बन जाती है। इसके बाद वो शराब, सिगरेट और यहां तक की उसपर हाथ भी उठाएं तब भी वो परमेश्वर ही कहलाया जाता है। 

समाज में अपने साथ होने वाली घरेलू हिंसा को छुपाती ऐसी कई औरतें हैं जो अपने पति को ईश्वर मानती है और उनके ऊपर हाथ उठाए जाने को भी सही ठहराती है। इसके कारण तो बहुत है लेकिन सबसे मुख्य कारण ये भी है कि बचपन से उन्हें यही सिखाया जाता है कि उनकी जिससे शादी होगी वो उसका परमेश्वर होगा। जो भी वो तुम्हारे साथ करे उसको सही मानना। मेरे घर में भी जब भी मेरी बुआ आती तो मेरी दादी हमेशा उनको कहा करती थी कि ‘उसके आगे बोला ही मत कर और वो तेरा परमेश्वर है तो उसकी हर बात माना कर और अगर वो तुझे हमारे पास आने से रोकता है तो वो सुना कर और माना भी कर।’ हमारे यहाँ इस तरीके के माहौल में औरतों को बड़ा किया जाता है।

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हमेशा से औरतों को उनके पति का पीटना ठीक माना गया है क्योंकि पति जैसा भी व्यवहार करे वो सही होता है क्योंकि परमेश्वर से गलती नहीं होती। हमारी फिल्मों के गाने ही देख लीजिए और टेलीविज़न पर आने वाले धारावाहिक भी, जिसमें औरतों को उनके पति के दास के रूप में दिखाया जाता है। बॉलीवुड फिल्म बागबान में भी कैसे हेमा मालिनी का किरदार अमिताभ बच्चन के पैर छूता है और उसे अपना ईश्वर ही मानता है। ये सब दिखाता है कि हमारी फिल्म से लेकर धारावाहिक तक सब बराबरी नहीं बल्कि असमानता को ही बढ़ावा देते है। 

हमेशा से औरतों को उनके पति का पीटना ठीक माना गया है क्योंकि पति जैसा भी व्यवहार करे वो सही होता है क्योंकि परमेश्वर से गलती नहीं होती।

इस रिश्ते में सबसे पहले जरूरी है कि हम ‘पति’ शब्द को ‘साथी’ से बदलें, क्योंकि ‘साथी’ शब्द का मतलब है – जो आपका साथ देता है। लेकिन गलत बात पर नहीं बल्कि वो आपके साथ होकर आपको सही या ग़लत के बीच का फर्क समझाता है। मुझे याद है कि मेरी शादी के दौरान फेरों के वक़्त पंडित जी ने सबसे सुंदर बात यही कही थी आप इनकी धर्म पत्नी है और उसका काम होता है धर्म यानी सही के वक़्त साथ देना और गलत के वक़्त उनका साथ नहीं देना। इसके अलावा हमारी शादी के पहले ही मेरे साथी ने मुझे यही कहा थी कि मैं तुम्हारा पति नहीं साथी बनूंगा। हमारी शादी में हर काम हम बांट देते है जैसे मुझे खाना बनाना नहीं आता तो वो बनाते है तो मैं कुछ और काम कर लेती हूँ और ऐसे ही घर के सभी काम। हम बांट लेते है।

ये सब आदर्श नहीं है क्योंकि अगर आप आदर्श बनाते है तो समाज तरक्की नहीं करेगा। ये सब काम सामान्य होने चाहिए तभी कोई मेरे पार्टनर को जोरू का गुलाम नहीं कहेगा। इसके अलावा दोनों के रिश्ते में समानता के साथ-साथ इज्जत भी होनी चाहिएं। दोनों को इज्जत पर समझौता कभी नहीं करना चाहिए। अक्सर समाज में देखा गया है कि फैसले लेने वाले पुरुष होते है लेकिन बराबरी की बात हम तभी करेंगे जब हम एक साथ बैठकर किसी भी विषय पर निर्णय ले पाए। बच्चों को पैदा करने से लेकर सब्जी कौन-सी बनेगी ये सभी फैसले साथ मिलकर करने चाहिए।

सबसे ख़ास बात ये भी है कि अर्धांगिनी जब आप कहते है तो आप फिर से एक औरत के व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते। शादी में दो अलग लोग साथ आते है और एक दूसरे के साथी ही बनकर रहे और दोनो का अपना अपना व्यक्तित्व भी सही सलामत रहे। शादी का रिश्ता हमेशा बराबरी की सेज पर ही सजा रहे तो बेहतर और भगवान, पति, अर्धांगिनी जैसे शब्द शादी के शब्दकोश से ही निकाल फेंकने चाहिए, क्योंकि समय के साथ वे शब्द विचार में और विचार हमारे व्यवहार में बदलते जाते हैं जो एक समय के बाद नासूर बन जाते है।

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तस्वीर साभार : bhaskar

Comments:

  1. Vidyawati says:

    Eh to bilkul 99 parsent sahi hai.sach hamesa kadva hota hai.

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