समाजख़बर दिल्ली में जो हुआ वो दंगा नहीं, नरसंहार था।

दिल्ली में जो हुआ वो दंगा नहीं, नरसंहार था।

हमें हिंसा का तब ही हो जाना चाहिए था जब 8 फ़रवरी को तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' ने दिल्ली की सड़कों पर मोर्चा निकाला था और "देश के ग़द्दारों जैसे नारे लगाए थे।"

सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को हम आमतौर पर ‘दंगे’ का नाम दे देते हैं। हम सोचते हैं कि दोनों तरफ़ से हिंसा बराबर होती है, जबकि असल में साल 1947 के बाद से भारत में ऐसी जितनी भी घटनाएं हुई हैं, वे दंगे नहीं बल्कि नरसंहार हैं। चाहे वो साल 1984 की घटना हो जब पूरे उत्तर भारत में सिक्खों को चुन चुनकर मारा गया था या फिर साल 2002 में गुजरात में हिन्दू फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा मुसलमानों की हत्या और अत्याचार। नरसंहार, जिसे अंग्रेजी में ‘जेनोसाइड’ या ‘पोग्रम’ कहते हैं, तब होता है जब एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाकर उनकी हत्या की जाती है। ये दो पक्षों की लड़ाई नहीं, बल्कि एक ताक़तवर पक्ष से एक कमज़ोर पक्ष पर किया गया ज़ुल्म है। ऐसे नरसंहारों में ज़्यादातर सरकार का हाथ रहता है, जैसा कि जर्मनी में यहूदियों का सफ़ाया करने में हिटलर का हाथ था।

पिछले हफ़्ते दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़ों में हुई हिंसा भी किसी नरसंहार से कम नहीं थी। अब तक 40 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं और क़रीब 200 लोग घायल हैं। मरनेवालों में से ज़्यादातर मुसलमान हैं, जिनमें एक नवजात बच्चे से लेकर एक 85 साल की बुढ़िया शामिल हैं। नरसंहार फरवरी 23 से फ़रवरी 26 तक चला। हिन्दू आतंकवादियों ने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते हुए मुसलमानों को बेरहमी से मार डाला। क़ुरान की प्रतियां जलाई गईं और मस्जिदों को तोड़कर उन पर भगवा झंडा लहराया गया। पुलिसकर्मियों से कोई मदद तो मिली ही नहीं, बल्कि वो भी निहत्थे, बेक़सूर मुसलमानों के अत्याचार में शामिल होते देखे गए। दिल्ली सरकार भी मौन थी।

हमें इस हिंसा का आभास बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था जब 8 फ़रवरी को तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ ने दिल्ली की सड़कों पर मोर्चा निकाला था। मोर्चे में जो नारा लगाया गया वो था-“देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को।” अब ‘देश के ग़द्दार’ कौन हैं, वो सरकार और उसके समर्थकों की मर्ज़ी के मुताबिक बदलता रहता है। कभी वो जेएनयू के छात्र हैं तो कभी बॉलीवुड के कलाकार। इस बार ये तमगा मिला देशभर में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में सड़क पर उतरे हुए सैकड़ों भारतीय, जिनमें से एक बड़ा अंश मुसलमान हैं। इसके बाद 23 फ़रवरी की सुबह दिल्ली बीजेपी कार्यकर्ता कपिल मिश्रा ने रैली निकाली। चांदबाग़ और जाफ़राबाद इलाक़ों के सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि, “(यूएस राष्ट्रपति) ट्रंप के वापस जाने से पहले सड़कें खाली हो जाएं, ये हमारी आपसे विनती है। नहीं तो हमें सड़कों पर उतरना होगा। ट्रंप के जाने तक हम शांति से पेश आ रहे हैं। उसके बाद हम आपकी एक नहीं सुनेंगे अगर रास्ता खाली नहीं हुआ तो।”

और पढ़ें :क्या हमारे राष्ट्र की बुनियाद इतनी कमज़ोर है कि ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे से हिल जाए?

इस रैली में कपिल मिश्रा के साथ दिल्ली पुलिस के डीसीपी भी मौजूद थे। उसी रात से जाफ़राबाद, चांदबाग, खुरेजी ख़ास, बाबरपुर आदि इलाक़ों में क़त्ल-ए-आम शुरू हो गया। काण्ड शुरू होने के कुछ ही समय बाद कपिल मिश्रा ने ट्वीट भी किया था कि, ‘जाफ़राबाद खाली हो चुका है।” इन घटनाओं के कई विडियो सामने आए हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं। रूह कंपा देने वाली इन विडियोज़ में हम देखते हैं किस तरह ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते हुए एक अधमरे युवक को भीड़ खींचते हुए ले जाती है। किस तरह पुलिस कर्मचारी चार लड़कों को पीटते हुए उनसे राष्ट्रगान गवाते हैं, और रास्ते पे लगे सीसीटीवी कैमरे तोड़ते नज़र आते हैं। हर विडियो में एक ही बात नज़र आती है। हिंदुत्ववादी ताक़तों द्वारा मुसलमानों पर, उनके घरों, मस्जिदों, दुकानों हमला, और इसमें दिल्ली पुलिस का सहयोग। ऐसा मालूम होता है कि दिल्ली पुलिस और भगवा आतंकी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और भगवा आतंकवादी शक्तियों को ख़ुद सरकारी संस्थानों से मदद मिल रही है।

हमें इस हिंसा का आभास बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था जब 8 फ़रवरी को तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ ने दिल्ली की सड़कों पर मोर्चा निकाला था। मोर्चे में जो नारा लगाया गया वो था-“देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को।”

वॉशिंगटन पोस्ट की पत्रकार और ग्लोबल मैकगिल मैडल विजेता, राना अय्यूब कहती हैं, “एक भारतीय पत्रकार होने के तौर पर मैंने आज तक इससे ज़्यादा पीड़ादायक कुछ नहीं देखा। मैं सहमत हूं कि ये कोई आम दंगा नहीं, एक नरसंहार है। इस हिंसक भीड़ को मुस्लिम इलाक़ों में जाकर वहां क़त्ल-ए-आम करने की खुली छूट दे दी गई है। ये सब कुछ पहले से आयोजित था और पुलिस सिर्फ खाली हाथ बैठी ही नहीं है, बल्कि भीड़ की मदद भी कर रही है। और जहां हमारे केंद्रीय गृह मंत्री को क़ानून बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए, वे रोज़ एक से एक भड़काऊ भाषण देते हैं। और इस नरसंहार में पीड़ित एक भी व्यक्ति से वे अभी तक मिले नहीं।” अपने कार्यकाल में राना साल 2002 का गुजरात नरसंहार कवर कर चुकी हैं और बड़े सरकारी पदाधिकारियों पर स्टिंग ऑपरेशन करके इस नरसंहार में उनकी भूमिका भी सामने ला चुकी हैं। साल 2002 के गुजरात और साल 2020 की दिल्ली, दोनों का ज़िम्मेदार ही वो नरेंद्र मोदी के शासन को मानती हैं।

और पढ़ें : जेएनयू में हुई हिंसा देश के लोकतंत्र पर सीधा हमला है

इस हिंसा में हिन्दू जानें नहीं गई हैं, ऐसा नहीं है। आईबी अफ़सर अंकित शर्मा और लॉ छात्र राहुल सोलंकी जैसे कुछ नाम भी सामने आते हैं। वे भी मारे गए हैं। पर क्या नरभक्षी भीड़ों ने उनके समुदाय का ‘सफ़ाया’ करने की कोशिश की है? क्या उनके धर्मग्रंथों को जलाया गया है? क्या किसी मंदिर में वैसा ही हमला हुआ जैसा मस्जिदों में हुआ है? हिंसा ख़त्म होने के बाद भी इस क्षेत्र के मुसलमानों को सुकून नहीं है। दीवारों और सड़कों पर स्याही से उनके, उनके समुदाय और धार्मिक प्रतीकों के बारे में गंदी-गंदी गालियां लिखी गई हैं। मुसलमान परिवार, जो पीढ़ियों से इन इलाक़ों में रह रहे हैं, अब भारी मात्रा में घर छोड़ रहे हैं क्योंकि अब वे यहां असुरक्षित महसूस करते हैं। यही सच है। ये कोई दंगा नहीं था बल्कि उग्रवादी हिन्दू संगठनों द्वारा नियोजित मुसलमानों का नरसंहार था। जो लंबे समय तक हमारे समाज और प्रशासन पर एक कलंक बनकर रहेगा।

और पढ़ें : जेएनयू में दमन का क़िस्सा हम सभी का हिस्सा है, जिसपर बोलना-मुँह खोलना हम सभी के लिए ज़रूरी है!


तस्वीर साभार : ichowk

Comments:

  1. How can u say it was a genocide people from both sides died just only to quench the thirst of ego of some stubborn people. These people are from both sides whether he/ she is pro or anti caa . As nobody was approaching for dialogues from both sides even i dont like bjp much but i believe dialogue is democracy what do u think?

संबंधित लेख

Skip to content